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Monday, August 31, 2015

लाओत्से और च्वांगत्सु

लाओत्से अपने शिष्यों की परीक्षाएं लिया करता था। वह उनको सवाल देता, वे ठीक जवाब ले आते और लाओत्से फाड़ कर फेंक देता। क्योंकि उनके पेट पर हाथ रख कर देखता और कहता, सवाल बेकार गया, जवाब गलत है। एक युवक आया हुआ था और उसने लाओत्से से कहा, तुम पागल तो नहीं हो! तुमने जो समझाया था, ठीक वही-वही लिख कर लाया हूं। लाओत्से ने कहा, वह तो बिलकुल ठीक है, लेकिन जो लिख कर लाया है, उसकी श्वास! उसकी श्वास नाभि से नहीं चल रही है। और यह जवाब तो तभी आ सकता है भीतर से, जब श्वास नाभि से चल रही हो। तुम मुझे सुन कर ले लाए हो। यह बुद्धि से सुना गया था, बुद्धि से दे दिया गया है। तुम्हारे भीतर इसका कोई भी अनुभव नहीं है।

च्वांगत्सु जब उसके पास पहुंचा, उसका सबसे बड़ा शिष्य, तो लाओत्से ने उसे सब समझाया और उसने सब सुना। और जब उसकी परीक्षा का वक्त आया, तो जैसे कि सभी शिष्य अपने कागजात लेकर आते थे जवाब देने के लिए, वह बिना कागजात खाली हाथ आकर बैठ गया। लाओत्से ने कहा कि आज तुम्हारी परीक्षा का दिन है और मैं कुछ पूछूंगा; जवाब लिखने के लिए कुछ लाए नहीं? च्वांगत्से ने कहा कि अगर मैं जवाब नहीं हूं, तो मेरे लिखे हुए जवाबों का क्या उपयोग होगा! उसने अपने कपड़े उतार दिए और नग्न होकर सामने लेट गया। उसने कहा कि तुम मेरी श्वास देख लो।

और ध्यान रहे, अगर नाभि से सच्ची श्वास नहीं चलने लगी है और आप सिर्फ कोशिश करके चलाते रहे हैं, तो जब कोई आपके पेट पर हाथ रखेगा, फौरन श्वास सीने से चलने लगेगी। फौरन! जैसे ही आप कांशस हो जाएंगे, श्वास आपकी सीने से चलने लगेगी। वह तो बच्चे जैसे सरल ही न हो गए हों कि कोई पेट पर हाथ रखे या कुछ भी करे, श्वास वहीं से चलती ही है। डाक्टर जब आपका हाथ अपने हाथ में लेकर नाड़ी नापता है, तो आप कभी यह मत सोचना कि नाड़ी उतनी ही होती है जितनी डाक्टर को पता चलती है। डाक्टर को भी कम से कम थोड़ा उसे घटा लेना चाहिए; उतनी नहीं होती। वह डाक्टर के पकड़ने से बढ़ती है। बढ़ेगी ही, क्योंकि आप सचेतन हो गए, आप कांशस हो गए। घबड़ाहट आ गई। तनाव बढ़ गया। तो बीमारी जब डाक्टर जांचता है तो उसे यह नहीं समझना चाहिए बीमारी इतनी ही होगी, थोड़ी ज्यादा मालूम होती है। क्योंकि उतनी घबड़ाहट भी बढ़ गई होती है भीतर।

च्वांगत्सु लेट गया और उसने कहा, मेरी श्वास देख लो। तो उसका पेट ऊपर-नीचे गिर रहा है। वह एक छोटे बच्चे की तरह लेटा है। और लाओत्से कहता है कि तू उत्तीर्ण हो गया है। अब मुझे कुछ पूछना नहीं है। क्योंकि जो जवाब दे सकता है, अब तेरे भीतर मौजूद है।

बुद्धि से हटाना है चेतना को और नाभि की तरफ ले आना है।

हमारा सारा संस्कार, हमारी सारी शिक्षा, सारा समाज चेतना को बुद्धि की तरफ ले जाने की कोशिश में लगा रहता है। उपयोग है उसका, जैसा मैंने कहा। लेकिन एक दिन हमें उस उपयोग से वापस लौट आना जरूरी है। मूल केंद्र को खो देना किसी भी कीमत पर खतरनाक है। और किसी भी कीमत पर मूल केंद्र को पा लेना सस्ता है।

तो लाओत्से के इस सूत्र को साधना का सूत्र समझें। अपनी श्वास का ध्यान रखें और श्वास के रूपांतरण की कोशिश करें। श्वास की बदलाहट आपकी बदलाहट हो जाएगी। श्वास में क्रांति आपके स्वयं के व्यक्तित्व की क्रांति हो जाएगी। और जैसे-जैसे श्वास गहरी होने लगेगी, आपकी गहराई बढ़ने लगेगी, आपका उथलापन समाप्त हो जाएगा। और जिस दिन श्वास केंद्र पर होगी, उस दिन आप सारे जगत के साथ एक अद्वैत के बिंदु पर मिल जाएंगे।

अपने केंद्र पर जो आ गया, वह जगत के केंद्र पर आ जाता है। स्वयं के केंद्र पर जो डूब गया, वह विराट के केंद्र से एक हो जाता है। तो एक परम आलिंगन अद्वैत का फलित होता है। और जैसे-जैसे आपकी श्वास गहरी और भीतर-भीतर उतरने लगती है, वैसे-वैसे रहस्य के नए पर्दे और सत्य के नए द्वार खुलने शुरू हो जाते हैं। जो मनुष्य के भीतर छिपा है, वही विराट में विस्तीर्ण होकर फैला हुआ है। जो अपने भीतर गहरे उतर आता है, वह परम के भीतर ऊंचा उठ जाता है।

ताओ उपनिषाद (भाग–2) प्रवचन–24


 

मन और धूल

जो मूलभूत मन है वह दर्पण की भांति है; वह शुद्ध है। वह शुद्ध ही रहता है। उस पर धूल जमा हो सकती है, लेकिन उससे दर्पण की शुद्धता नष्ट नहीं होती। धूल शुद्धता को मिटा नहीं सकती, लेकिन वह शुद्धता को आच्छादित कर सकती है। सामान्य मन की यही अवस्था है-वह धूल से ढंका है। लेकिन धूल में दबा हुआ मौलिक मन भी शुद्ध ही रहता है। वह अशुद्ध नहीं हो सकता, यह असंभव है। और अगर उसका अशुद्ध होना संभव होता तो फिर उसकी शुद्धता को वापस पाने का उपाय नहीं रहता। अपने आप में मन शुद्ध ही रहता है-सिर्फ धूल से आच्छादित हो जाता है।

हमारा जो मन है वह मौलिक मन + धूल है, वह शुद्ध मन + धूल है, वह परमात्म-मन . धूल है; और जब तुम जान लोगे कि इस मन को कैसे उघाड़ा जाए कैसे धूल से मुक्‍त किया जाए, तो तुमने सब जान लिया जो जानने योग्य है और तुमने सब पा लिया जो पाने योग्य है।

ये सभी विधियां यही बताती हैं कि कैसे तुम्हारे मन को रोज रोज की धूल से मुक्‍त किया जाए। धूल का जमा होना लाजिमी है; धूल स्वाभाविक है। जैसे अनेक रास्तों से यात्रा करते हुए यात्री पर धूल जमा हो जाती है वैसे ही तुम्हारे मन पर भी धूल जमा होती है। तुम भी अनेक जन्मों से यात्रा कर रहे हो; तुमने भी बड़ी दूरियां तय की हैं; और फलत: बहुत बहुत धूल इकट्ठी हो गई है।

विधियों में प्रवेश करने के पहले अनेक बातें समझने जैसी हैं। एक कि आंतरिक रूपांतरण के प्रति पूरब की दृष्टि पश्चिम की दृष्टि से सर्वथा भिन्न है। ईसाइयत समझती है कि मनुष्य की आत्मा को कुछ हुआ है, जिसे वह पाप कहती है। पूरब ऐसा नहीं सोचता है। पूरब का खयाल है कि आत्मा को कुछ नहीं हुआ है; कुछ हो भी नहीं सकता। आत्मा अपनी परिपूर्ण शुद्धता में है; उससे कोई पाप नहीं हुआ है। इसलिए पूरब में मनुष्य निंदित नहीं है; वह पतित नहीं है। बल्कि इसके विपरीत मनुष्य ईश्वरीय बना रहता है-जो वह है, जो वह सदा रहा है।
और यह स्वाभाविक है कि धूल जमा हो। धूल का जमा होना अनिवार्य है। वह पाप नहीं है; महज गलत तादात्म्य है। हम मन से, धूल से तादात्म्य कर लेते हैं। हमारे अनुभव, हमारे ज्ञान, हमारी स्‍मृतियां सब धूल है। तुमने जो भी जाना है, जो भी अनुभव किया है, जो भी तुम्हारा अतीत रहा है, सब धूल है। मूलभूत मन को पुन: प्राप्त करने का अर्थ है कि शुद्धता को पुन: प्राप्त किया जाए-अनुभव और ज्ञान से, स्मृति और अतीत से मुक्‍त शुद्धता को।

समूचा अतीत धूल है। और हमारा तादात्म्य अतीत से है, उस चैतन्य से नहीं जो सदा मौजूद है। इस पर इस भांति विचार करो। तुम जो कुछ जानते हो वह सदा अतीत का है; और तुम वर्तमान में हो, अभी और यहीं हो। जीना सदा वर्तमान में है। तुम्हारा सारा ज्ञान धूल है। जानना तो शुद्ध है, शुद्धता है; लेकिन ज्ञान धूल है। जानने की क्षमता, जानने की ऊर्जा, जानना तुम्हारा मूलभूत स्वभाव है। उस जानने के जरिए तुम ज्ञान इकट्ठा कर लेते हो; वह ज्ञान धूल जैसा है। अभी और यहां, इसी क्षण तुम बिलकुल शुद्ध हो, परम शुद्ध हो; लेकिन इस शुद्धता के साथ तुम्हारा तादात्म्य नहीं है। तुम्हारा तादात्म्य तुम्हारे अतीत के साथ है, सारे संगृहीत अतीत के साथ है।

तो ध्यान की सारी विधियां बुनियादी रूप से तुम्हें तुम्हारे अतीत से तोड़कर अभी और यहां से जोड्ने के उपाय हैं, तुम्हें तुम्हारे वर्तमान में प्रवेश देने के उपाय हैं।

तंत्र सूत्र

ओशो 

Saturday, August 29, 2015

रक्षाबंधन


(ओशो जब बहन निशा के घर आए तो उनकी चप्पल बहन से संभाल के रख ली, जो अभी भी उनके पास है।)
 11 दिसंबर 1931 को मध्य प्रदेश के रायसेन शहर के कुच्वाडा गांव में जन्म लेने वाले आध्यात्मिक गुरु ओशो रजनीश से जुड़ी कई ऐसी घटनाएं हैं, जो उनके परिवार के लोगों से बेहतर कोई नहीं बता सकता। ओशो रजनीश के 10 भाई-बहनों में आठवें नंबर की निशा भारती आज भी जबलपुर के मनमोहन नगर में रहती हैं। निशा ने भी ओशो से दीक्षा ली थी। ओशो निशा से मिलने उनके घर गए थे तो उन्होंने जो चप्पल पहनी थी वो आज भी निशा ने सहेज कर रखी हैं। ये बात तब की है जब निशा ओशो से दीक्षा ले चुकी थीं। 

निशा बताती हैं कि 8 अगस्त 1979 को पूना में पिता अस्पताल में भर्ती थे, इसी दिन रक्षाबंधन भी था और पूरा परिवार अस्पताल में था मां ने कहा कि सब भाइयों को यहीं राखी बांध दो। लेकिन ओशो अस्पताल में नहीं, अपने आश्रम में थे। तब निशा आश्रम पहुंची, लेकिन आश्रम में इतनी कड़ी सुरक्षा होती थी कि आप कुछ भी नहीं ले जा सकते थे। बड़ी मुश्किल से वे रूमाल में एक छोटी राखी छुपाकर ले गईं। 
सबसे पहले ओशो ने उनसे यही पूछा कि दद्दा को देखने गई थीं, उन्होंने हां में जवाब दिया और फिर अपने भाई ओशो से कहा कि मैं राखी बांधना चाहती हूं, तभी वहां खड़े ओशो के बॉडीगार्ड ने अचानक उन्हें रोक दिया, मेरी आंखों में आंसू देखकर ओशो ने गार्ड को पीछे हटने को कहा और हाथ आगे बढ़ाकर राखी बंधवाई। यह बड़ा भावुक पल था। उसी दिन छोटी बहन ने भाई ओशो से जिद की कि वह आज ही उनसे दीक्षा लेगी। काफी देर तक मना करने के बाद ओशो मान गए और उन्हें संन्यास धारण करने की आज्ञा दे दी। वे कहती हैं कि ओशो काफी शांत स्वभाव के थे, कम बोलते थे और अक्सर वे ध्यान में हुआ करते थे। 
निशा आगे बताती हैं कि रजनीश चंद्र मोहन ओशो उनसे 18 साल बड़े थे और जब उन्होंने होश सम्हाला तब तक वे मशहूर आचार्य रजनीश हो चुके थे। निशा ने हमेशा उन्हें साधु जैसा ही देखा है। वे घर पर अक्सर लुंगी व चादर में ही होते थे। निशा बताती हैं कि ओशो जब गाडरवारा आते थे तो पूरा परिवार इकट्ठा हो जाता था। वे अक्सर घर पर ही खाना खाते थे और उनके खाना बनाने का जिम्मा हम बहनों के पास होता था। वे याद करती हैं कि एक बार खाना परोसते वक्त जब वे उदास हो गईं तो ओशो ने उनसे उदासी का कारण पूछा। 
तब उन्होंने कहा कि निकलंक भाई कह रहे हैं कि खाना अच्छा नहीं बना है इस पर ओशो ने निकलंक भाई को डांटते हुए कहा कि आज का खाना तो निशा ने वाकई बहुत अच्छा बनाया है। वे बताती हैं कि ओशो ने ही दो भाई निकलंक और अकलंक की पढ़ाई का पूरा खर्चा खुद उठाया। निशा जब कॉलेज में दाखिला ले रही थीं तो ओशो ने ही उन्हें डिग्री कॉलेज में पढ़ने के लिए कहा और बोले कि ट्यूशन बच्चे जाते हैं, छात्र स्कूल और कॉलेज जाते हैं।
ऐसा ही एक वाक्या बताते-बताते निशा जी की आंखें भर आईं, उन्होंने बताया कि यह बात सन् 1979 की है, बच्चों के कारण वे ध्यान नहीं लगा पाती थीं और इसी बात को लेकर वे परेशान थीं तभी वे पूना चली गई और उनका चेहरा देखते ही ओशो ने उनसे परेशानी का कारण पूछा और कहा कि परेशान मत हो दो साल में सब ठीक हो जाएगा और वाकई में दो साल में सब कुछ ठीक हो गया और उसके बाद उन्होंने गुरु दीक्षा अपने भाई (ओशो) से ली। 
ओशो के पिता देवतीर्थ भारती और मां अमृत सरस्वती की दूसरी पुत्री रसा फौजदार (मां योग भारती) होशंगाबाद में रहती हैं इसके अलावा उनके भाई विजय भारती, स्वामी अकलंद भारती इंजीनियर, पांचवे नंबर की उनकी बहिन मां स्नेह भारती, छठवें नंबर के भाई निकलंद भारती हैं, सातवीं बहिन मां प्रेम नीरू, निशा भारती, फिर स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती और दसवें नंबर के भाई जो सबसे छोटे हैं स्वामी अमित भारती हैं। 
 Women in India mostly wear a sari for the lower part of the body and a blouse for the upper part. As it happened, it was ‘Rakhi day’ when sisters tie a thread around the right wrist of her brothers. Nisha succeeded to pass through all checks with a thread hidden under her blouse because nothing was allowed to be taken into the auditorium. When her name was called she went upfront and bowed down on the ground in front of Osho.

After sitting down she took out the hidden thread and wanted to wrap and tie it around Osho’s wrist. Laxmi asked her not to do it. The guard made frantic hand gestures not to do it. Meanwhile Osho smiled and asked them not to prevent her and reached out his arm and Nisha, though trembling out of love and reverence, contentedly tied the thread loosely around Osho’s wrist.

Then Osho asked, “What do you want?” Nisha hadn’t gone to take sannyas otherwise she would have been dressed in orange clothes but in that moment she said, “Sannyas.” Osho asked her to wait and to first let her family members (husband and his parents) be ready for it otherwise she would be in trouble. But Nisha said, “I want sannyas. There will be no trouble.”
Osho is being handed the .

Friday, August 28, 2015

क्रियाओं में कर्ता

एक बहुत अदभुत कहानी है। कहानी है कि कृष्ण के गांव के बाहर एक संन्यासी का आगमन हुआ। बरसा के दिन थे। नदी पूर पर थी। संन्यासी उस पार था। गांव की स्त्रियां जाने लगीं भोजन कराने, तो राह में उन्होंने कृष्ण से पूछा कि कैसे हम नदी पार करें! भारी है पूर, नाव अब लगती नहीं। संन्यासी भूखा है। दो चार दिन हो गए। खबरें भर आती हैं। उस पार खड़ा है। उस पार तो घना जंगल है। भोजन पहुंचाना जरूरी है। कोई तरकीब बताओ कि कैसे हम नदी पार करें।

तो कृष्ण ने कहा कि तुम जाकर नदी से कहना कि अगर संन्यासी ने जीवन में कभी भी भोजन न किया हो, सदा उपवासा रहा हो, तो नदी राह दे दे। कृष्ण ने कहा था तो स्त्रियों ने मान लिया। वे गईं और उन्होंने नदी से कहा कि हे नदी, राह दे दे। अगर संन्यासी जीवन भर का उपवासा है, तो हम भोजन लेकर उस पार चली जाएं।
कहानी कहती है कि नदी ने राह दे दी। नदी को पार करके उन स्त्रियों ने संन्यासी को भोजन कराया। वे जितना भोजन लाई थीं वह बहुत ज्यादा था। लेकिन संन्यासी सारा भोजन खा गया। अब जब वे लौटने लगीं, तब अचानक उन्हें खयाल आया कि हमने लौटने की कुंजी तो पूछी नहीं। अब मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि तब तो कह दिया था नदी से कि अगर संन्यासी जीवन भर का उपवासा हो! मगर अब तो किस मुंह से कहें कि संन्यासी जीवन भर का उपवासा हो! उपवासा कहना तो मुश्किल है, भोजन भी साधारण करने वाला नहीं है। सारा भोजन कर गया है। जो भी वे लाई थीं, वह सब साफ कर गया है। वे बिलकुल खाली हाथ हैं। उस संन्यासी ने उन्हें मनाने की भी तकलीफ न दी कि वे दोबारा उससे कहें कि और ले लो, और ले लो। और बचा ही नहीं है। अब वे बहुत घबरा गई हैं।

उस संन्यासी ने पूछा कि क्यों इतनी परेशान हो, बात क्या है? तो उन्होंने कहा, हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं, हम सिर्फ आने की कुंजी लेकर आए थे, लौटने की कुंजी हमें पता नहीं। संन्यासी ने पूछा, आने की कुंजी क्या थी? उन्होंने कहा, कृष्ण ने कहा था कि नदी पार करना तो नदी से कहना कि राह दे दो अगर संन्यासी उपवासा हो। उस संन्यासी ने कहा, तो फिर इसमें क्या बात है? यह कुंजी फिर भी काम करेगी। जो कुंजी ताला बंद कर सकती है, वह खोल भी सकती है, जो खोल सकती है, वह बंद कर सकती है। फिर उपयोग करो।

उन्होंने कहा, लेकिन अब कैसे उपयोग करें, आपने भोजन कर लिया। वह संन्यासी खिलखिला कर हंसा। उस नदी के तट पर उसकी हंसी बड़ी अदभुत थी। वे स्त्रियां बहुत परेशानी में पड़ गईं। उन्होंने कहा, आप हमारी परेशानी पर हंस रहे हैं। उसने कहा, नहीं, मैं अपने पर हंस रहा हूं। तुम फिर से कहो, नदी मेरी हंसी समझ गई होगी। तुम फिर से कहो।

और उन स्त्रियों ने बड़े डर, बड़े संकोच और बड़े संदेह से उस नदी से कहा कि अगर यह संन्यासी जीवन भर का भूखा रहा हो……। उनका मन ही कह रहा था कि बिलकुल गलत है यह बात। लेकिन नदी ने रास्ता दे दिया। वे तो बड़ी मुश्किल में पड़ गईं। लौटते वक्त जितना बड़ा चमत्कार हुआ था, वह जाते वक्त भी नहीं हुआ था।

उन्होंने कृष्ण से जाकर कहा कि हद हो गई। हम तो सोचते थे, चमत्कार तुमने किया है, लेकिन चमत्कार उस संन्यासी ने किया है। जाते वक्त तो बात ठीक थी, ठीक है, हो गई। लौटते वक्त भी वही बात हमने कही और नदी ने रास्ता दे दिया! तो कृष्ण ने कहा कि नदी रास्ता देगी ही, क्योंकि संन्यासी वही है, जो भोजन नहीं करता है। उन्होंने कहा, लेकिन हमने अपनी आंखों से उसको भोजन करते देखा है। तो कृष्ण ने कहा, जैसे तुमने उसे भोजन करते देखा है, ऐसे ही वह संन्यासी भी अपने को भोजन करते देख रहा था। इसलिए वह कर्ता नहीं है।
यह कहानी है। किसी नदी के साथ ऐसा करने की कोशिश मत करना। नहीं तो नाहक किसी संन्यासी को फंसा देंगे आप। कोई नदी रास्ता देगी नहीं।

लेकिन बात यह ठीक ही है। अगर हम अपने को भी अपनी क्रियाओं में कर्ता की तरह नहीं द्रष्टा की तरह देख पाएं सारी क्रियाओं में-तों मरना भी एक किया है और वह आखिरी किया है। और अगर तुम जीवन की क्रियाओं में अपने को दूर रख पाए, तो मरते वक्त भी तुम अपने को दूर रख पा सकते हो। तब तुम देखोगे कि मर रहा है वही, जो कल भोजन करता था; मर रहा है वही, कल जो दुकान करता था; मर रहा है वही, जो कल रास्ते पर चलता था; मर रहा है वही, जो कल लड़ता था, झगड़ता था, प्रेम करता था। तब तुम इस एक क्रिया को और देख पाओगे। क्योंकि यह मरने की क्रिया है, वह प्रेम की थी, वह दुश्मनी की थी, वह दूकान की थी, वह बाजार की थी। यह भी एक क्रिया है। अब तुम देख पाओगे कि मर रहा है वही।

मैं मृत्यु सिखाता हूँ

ओशो 

आदमी के व्यक्तित्व के तीन तल - प्रेम का प्रकार

आदमी के व्यक्तित्व के तीन तल हैं: उसका शरीर विज्ञान, उसका शरीर, उसका मनोविज्ञान, उसका मन और उसका अंतरतम या शाश्वत आत्मा। प्रेम इन तीनों तलों पर हो सकता है लेकिन उसकी गुणवत्ताएं अलग होंगी। शरीर के तल पर वह मात्र कामुकता होती है। तुम भले ही उसे प्रेम कहो क्योंकि शब्द प्रेम काव्यात्म लगता है, सुंदर लगता है। लेकिन निन्यानबे प्रतिशत लोग उनके सैक्स को प्रेम कहते हैं। सैक्स जैविक है, शारीरिक है। तुम्हारी केमिस्ट्री, तुम्हारे हार्मोन, सभी भौतिक तत्व उसमें संलग्न हैं।  तुम एक स्त्री या एक पुरुष के प्रेम में पड़ते हो, क्या तुम सही-सही बता सकते हो कि इस स्त्री ने तुम्हें क्यों आकर्षित किया? निश्चय ही तुम उसकी आत्मा नहीं देख सकते, तुमने अभी तक अपनी आत्मा को ही नहीं देखा है। तुम उसका मनोविज्ञान भी नहीं देख सकते क्योंकि किसी का मन पढ़ना आसान काम नहीं है। तो तुमने इस स्त्री में क्या देखा? तुम्हारे शरीर विज्ञान में, तुम्हारे हार्मोन में कुछ ऐसा है जो इस स्त्री के शरीर विज्ञान की ओर, उसके हार्मोन की ओर, उसकी केमिस्ट्री की ओर आकर्षित हुआ है। यह प्रेम प्रसंग नहीं है, यह रासायनिक प्रसंग है।जरा सोचो, जिस स्त्री के प्रेम में तुम हो वह यदि डाक्टर के पास जाकर अपना सैक्स बदलवा ले  और मूछें और दाढ़ी ऊगाने लगे तो क्या तब भी तुम इससे प्रेम करोगे? कुछ भी नहीं बदला, सिर्फ केमिस्ट्री, सिर्फ हार्मोन। फिर तुम्हारा प्रेम कहां गया?

सिर्फ एक प्रतिशत लोग थोड़ी गहरी समझ रखते हैं। कवि, चित्रकार, संगीतकार, नर्तक या गायक के पास एक संवेदनशीलता होती है जो शरीर के पार देख सकती है। वे मन की, हृदय की सुंदरताओं को महसूस कर सकते हैं क्योंकि वे खुद उस तल पर जीते हैं।

इसे एक बुनियादी नियम की तरह याद रखो: तुम जहां भी रहते हो उसके पार नहीं देख सकते। यदि तुम अपने शरीर में जीते हो, स्वयं को सिर्फ शरीर मानते हो तो तुम सिर्फ किसी के शरीर की ओर आकर्षित होओगे। यह प्रेम का शारीरिक तल है। लेकिन संगीतज्ञ , चित्रकार, कवि एक अलग तल पर जीता है। वह सोचता नहीं, वह महसूस करता है। और चूंकि वह हृदय में जीता है वह दूसरे व्यक्ति का हृदय महसूस कर सकता है। सामान्यतया इसे ही प्रेम कहते हैं। यह विरल है। मैं कह रहा हूं शायद केवल एक प्रतिशत, कभी-कभार।

दूसरे तल पर बहुत लोग क्यों नहीं पहुंच पा रहे हैं जबकि वह अत्यंत सुंदर है? लेकिन एक समस्या है: जो बहुत सुंदर है वह बहुत नाजुक भी है। वह हार्डवेयर नहीं है, वह अति नाजुक शीशे से बना है। और एक बार शीशा गिरा और टूटा तो इसे वापिस जोड़ने का कोई उपाय नहीं होता। लोग इतने गहरे जुड़ना नहीं चाहते कि वे प्रेम की नाजुक पर्तों तक पहुंचें, क्योंकि उस तल पर प्रेम अपरिसीम सुंदर होता है लेकिन उतना ही तेजी से बदलता भी है।

भावनाएं पत्थर नहीं होतीं, वे गुलाब के फूलों की भांति होती हैं। इससे तो प्लास्टिक का फूल लाना बेहतर है क्योंकि वह हमेशा रहेगा, और रोज तुम उसे नहला सकते हो और वह ताजा रहेगा। तुम उस पर जरा सी फ्रेंच सुगंध छिड़क सकते हो। यदि उसका रंग उड़ जाए तो तुम उसे पुन: रंग सकते हो। प्लास्टिक दुनिया की सबसे अविनाशी चीजों में एक है। वह स्थिर है, स्थायी है; इसीलिए लोग शारीरिक तल पर रुक जाते हैं। वह सतही है लेकिन स्थिर है।

कवि, कलाकार लगभग हर दिन प्रेम में पड़ते रहते हैं। उनका प्रेम गुलाब के फूल की तरह होता है। जब तक होता है तब तक इतना सुगंधित होता है, इतना जीवंत, हवाओं में, बारिश में सूरज की रोशनी में नाचता हुआ, अपने सौंदर्य की घोषणा करता हुआ, लेकिन शाम होते-होते वह मुरझा जाएगा, और उसे रोकने के लिए तुम कुछ नहीं कर सकते। हृदय का गहरा प्रेम हवा की तरह होता है जो तुम्हारे कमरे में आती है; वह अपनी ताज़गी, अपनी शीतलता लाती है, और बाद में विदा हो जाती है। तुम उसे अपनी मुट्ठी में बांध नहीं सकते।

बहुत कम लोग इतने साहसिक होते हैं कि क्षण-क्षण जीएं, जीवन को बदलते रहें। इसलिए उन्होंने ऐसा प्रेम करने का सोचा है जिस पर वे निर्भर रह सकते हैं। मैं नहीं जानता तुम किस प्रकार का प्रेम जानते हो, शायद पहले किस्म का, शायद दूसरे किस्म का। और तुम भयभीत हो कि अगर तुम अपने अंतरतम में पहुंचो तो तुम्हारे प्रेम का क्या होगा? निश्चय ही वह खो जाएगा लेकिन तुम कुछ नहीं खोओगे। एक नए किस्म का प्रेम उभरेगा जो कि लाखों में एकाध व्यक्ति के भीतर उभरता है। उस प्रेम को केवल प्रेमपूर्णता कहा जा सकता है।

पहले प्रकार के प्रेम को सैक्स कहना चाहिए। दूसरे प्रेम को प्रेम कहना चाहिए, तीसरे प्रेम को प्रेमपूर्णता कहना चाहिए: एक गुणावत्ता, असंबोधित; न खुद अधिकार जताता है, न किसी को जताने देता है। यह प्रेमपूर्ण गुणवत्ता ऐसी मूलभूत क्रांति है कि उसकी कल्पना करना भी अति कठिन है।पत्रकार मुझसे पूछते रहते हैं, " यहां पर इतनी स्त्रियां क्यों हैं?" स्वभावत: प्रश्न संगत है, और जब मैं जवाब देता हूं तो उन्हें धक्का लगता है। उन्हें यह उत्तर अपेक्षित नहीं था। मैंने उनसे कहा, " मैं पुरुष हूं।" उन्होंने अविश्वसनीय रूप से मुझे देखा। मैंने कहा, " यह स्वाभाविक है कि स्त्रियां बहुत बड़ी संख्या में होंगी, क्योंकि उन्होंने अपनी जिंदगी में जो भी जाना है वह है या तो सैक्स या बहुत विरले क्षणों में प्रेम। लेकिन उन्हें कभी प्रेमपूर्णता का स्वाद नहीं मिला।" मैंने उन पत्रकारों से कहा, "तुम यहां पर जो पुरुष देखते हो उनमें भी बहुत से गुण विकसित हुए हैं जो बाहर के समाज में दबे रह गए होंगे।"


बचपन से ही लड़के से कहा जाता है, " तुम लड़के हो, लड़की नहीं हो। एक लड़के की तरह बरताव करो। आंसू लड़कियों के लिए होते हैं, तुम्हारे लिए नहीं। मर्द बनो।" अत: हर लड़का उसके स्त्रैण गुणों को खारिज करता रहता है। और जो भी सुंदर है वह सब स्त्रैण है। तो अंतत: जो शेष रहता है वह सिर्फ एक बर्बर पशु। उसका पूरा काम ही है बच्चों को पैदा करना। लड़की के भीतर कोई पुरुष के गुण पालने की इजाजत नहीं होती। अगर वह पेड़ पर चढ़ना चाहे तो उसे फौरन रोक देंगे, "यह लड़कों के लिए है, लड़की के लिए नहीं।" कमाल है! यदि लड़की पेड़ पर चढ़ना चाहती है तो यह पर्याप्त प्रमाण है कि उसे चढ़ने देना चाहिए।"सभी पुराने समाजों ने स्त्री और पुरुष केलिए भिन्न-भिन्न कपड़े बनाए हैं। यह सही नहीं है, क्योंकि हर पुरुष एक स्त्री भी है। वह दो स्रोतों से आया है: उसके पिता और उसकी मां। दोनों ने उसके अंतस को बनने में योगदान दिया है। और हर स्त्री पुरुष भी होती है। हमने दोनों को नष्ट कर दिया। स्त्री ने समूचा साहस, हिम्मत, तर्क, युक्ति खो दी क्योंकि इन्हें पौरुष की गुणवत्ताएं माना जाता है। और पुरुष ने प्रसाद, संवेदनशीलता, करुणा, दयालुता खो दी। दोनों आधे हो गए। यह एक बड़ी समस्याओं में एक है जिसे हमें हल करना है, कम से कम हमारे लोगों के लिए।

 मेरे संन्यासियों को दोनों होना है: आधा पुरुष, आधी स्त्री। यह उन्हें समृद्ध बनाएगा। उनके पास वे सभी गुण्वत्ताएं होंगी जो मनुष्य के लिए संभव हैं, केवल आधी ही नहीं।अंतरतम के बिंदु पर तुम्हारे भीतर सिर्फ प्रेमपूर्णता की एक सुवास होती है। तो डरो मत। तुम्हारा भय सही है, जिसे तुम प्रेम कहते हो वह विदा हो जाएगा लेकिन उसकी जगह जो आएगा वह अपरिसीम है, अनंत है । तुम बिना लगाव के प्रेम करने में सफल होओगे। तुम अनेक लोगों से प्रेम कर सकोगे क्योंकि एक व्यक्ति से प्रेम करना खुद को गरीब रखना है। वह एक व्यक्ति तुम्हें एक अनुभव दे सकता है लेकिन कई-कई लोगों से प्रेम करना …

तुम चकित होओगे कि हर व्यक्ति तुम्हें एक नया अहसास, नया गीत, नई मस्ती देता है। इसीलिए मैं विवाह के खिलाफ हूं। कम्यून में विवाह खारिज कर देने चाहिए। लोग चाहें तो तह-ए-जिंदगी एक-दूसरे के साथ रह सकते हैं लेकिन यह एक कानूनी आवश्यकता नहीं होगी। लोगों को कई संबंध बनाने चाहिए, प्रेम के जितने अनुभव संभव हैं उतने लेने चाहिए। उन्हें मालकियत नहीं जमाना चाहिए। और किसी को अपने ऊपर मालकियत नहीं करने देना चाहिए क्योंकि वह भी प्रेम को नष्ट करता है।

सभी मनुष्य प्रेम करने के पात्र हैं। एक ही व्यक्ति के साथ आजीवन बंधकर रहने की जरूरत नहीं है। यह एक कारण है कि दुनिया में लोग इतने ऊबे हुए क्यों लगते हैं। वे तुम जैसे हंस क्यों नहीं सकते? वे तुम्हारी तरह नाच क्यों नहीं सकते? वे अदृश्य जंजीरों से बंधे हैं: विवाह, परिवार, पति, पत्नी, बच्चे। वे हर तरह के कर्तव्यों, जिम्मेदारियों और त्याग के बोझ तले दबे हैं, और तुम चाहते हो कि वे हंसें, मुस्कुराएं, और आनंद मनाएं? तुम असंभव की मांग कर रहे हो। लोगों के प्रेम को स्वतंत्र करो, लोगों को मालकियत से मुक्त करो। लेकिन यह तभी होता है जब तुम ध्यान में अपने अंतरतम को खोजते हो। इस प्रेम का अभ्यास नहीं किया जा सकता।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आज रात किसी अलग स्त्री के पास जाओ अभ्यास की खातिर। तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा और तुम अपनी पत्नी को भी खो दोगे। और सुबह तुम बेवकूफ दिखाई दोगे। यह अभ्यास का सवाल नहीं है, यह तुम्हारे अंतरतम को खोजने का सवाल है। अंतरतम की खोज के साथ अवैयक्तिक प्रेमपूर्णता, इम्पर्सनल लविंगनैस पैदा होती है। फिर तुम सिर्फ प्रेम होते हो। और वह फैलता जाता है। पहले मनुष्यों पर, फिर जल्दी ही पशु, पक्षी, पेड़ पर्वत, तारे…। वह दिन भी आता है जब यह पूरा अस्तित्व तुम्हारी महबूबा बनता है। और जो इसको उपलब्ध नहीं होता वह मात्र जीवन व्यर्थ गंवा रहा है।

हां, तुम्हें कुछ चीजें खोनी होंगी, लेकिन वे निरर्थक हैं। तुम्हें इतना कुछ मिलेगा कि तुम्हें दोबारा याद भी न आएगी कि तुमने क्या खोया है। एक विशुद्ध अवैयक्तिक प्रेमपूर्णता रहेगी जो किसी के भी अंतरतम में प्रविष्ट हो सकती है। यह निष्पत्ति है ध्यानपूर्ण स्थिति की, मौन की, अपने अंतस में गहरे डूबने की। मैं केवल तुम्हें राजी करने की कोशिश कर रहा हूं। जो है उसे खोने से डरो मत।

ओशो
फ्रॉम डैथ टु डैथलैसनेस

विचार का संग्रह

एक मुसलमान फकीर हुआ, नसरुद्दीन। वह एक नदी पार कर रहा था एक नाव में बैठ कर। रास्ते में दोनों की कुछ बातचीत हुई। नसरुद्दीन बड़ा जानी आदमी समझा जाता था। ज्ञानियों को हमेशा यह कोशिश रहती है कि किसी को अज्ञानी सिद्ध करने का मौका मिल जाए तो वह छोड़ नहीं सकते हैं। तो उसने, मल्लाह अकेला था, मल्लाह से पूछा कि भाषा जानते हो? उस मल्लाह ने कहा भाषा! बस जितना बोलता हूं उतना ही जानता हूं। पढ़ना लिखना मुझे कुछ पता नहीं है।

नसरुद्दीन ने कहा तेरा चार आना जीवन बेकार हो गया; क्योंकि जो पढ़ना नहीं जानता उसकी जिंदगी में क्या उसे ज्ञान मिल सकता है? बिना पढ़े, पागल! कहीं ज्ञान मिला है? लेकिन मल्लाह चुपचाप हंसने लगा। फिर आगे थोड़े चले और नसरुद्दीन ने पूछा कि तुझे गणित आता है? उस मल्लाह ने कहा. नहीं, गणित मुझे बिलकुल नहीं आता है, ऐसे ही दो और दो चार जोड़ लेता हूं यह बात दूसरी है।

नसरुद्दीन ने कहा : तेरा चार आना जीवन और बेकार चला गया; क्योंकि जिसे गणित ही नहीं आता, जिसे जोड़ ही नहीं आता है वह जिंदगी में क्या जोड़ सकेगा, क्या जोड़ पाएगा। अरे, जोड़ना तो जानना चाहिए, तो कुछ जोड़ भी सकता था। तू जोड़ेगा क्या? तेरा आठ आना जीवन बेकार हो गया।

फिर जोर का तूफान आया और आधी आई और नाव उलटने के करीब हो गई। उस मल्लाह ने पूछा आपको तैरना आता है?

नसरुद्दीन ने कहा मुझे तैरना नहीं आता।

उसने कहा आपकी सोलह आना जिंदगी बेकार जाती है। मैं तो चला। न मुझे गणित आता है और न मुझे भाषा आती है, लेकिन मुझे तैरना आता है। तो मैं तो जाता हूं-और आपकी सोलह आना जिंदगी बेकार हुई जाती है।
जिंदगी में कुछ जीवंत सत्य हैं जो स्वयं ही जाने जाते हैं, जो किताबों से नहीं जाने जा सकते हैं, जो शास्त्रों से नहीं जाने जा सकते हैं। आत्मा का सत्य या परमात्मा का; स्वयं ही जाना जा सकता है और कोई जानने का उपाय नहीं है।

लेकिन शास्त्रों में सब बातें लिखी हैं, उनको हम पढ़ लेते हैं, उनको हम समझ लेते हैं, वे हमें कंठस्थ हो जाती हैं, वे हमें याद हो जाती हैं। दूसरों को बताने के काम भी आ सकती हैं, लेकिन उससे कोई ज्ञान उपलब्ध नहीं होता है।

विचार का संग्रह ज्ञान का लक्षण नहीं है अज्ञान का ही लक्षण है। क्योंकि जिस आदमी के पास अपने विवेक की शक्ति जाग्रत हो जाती है, वह विचार के संग्रह से मुक्ति पा लेता है। फिर उसे संग्रह करने का कोई सवाल नहीं रह जाता, वह स्वयं ही जानता है। और जो स्वयं जानना है, वह……वह मन को मधुमक्खियों का छत्ता नहीं रहने देता है-मन को एक दर्पण बना देता है, एक झील बना देता है।

अंतरयात्रा शिविर

ओशो 

Monday, August 24, 2015

भाव और बुद्धि

एक मित्र अभी आए थे कुछ समय पहले। और मुझसे कहने लगे, हम किसी गुरु वगैरह को नहीं मानते हैं, क्योंकि हम कृष्णमूर्ति को सुनते हैं। क्योंकि हम कृष्णमूर्ति को सुनते हैं, हम किसी गुरु वगैरह को नहीं मानते। मैंने उनसे पूछा कि यदि कृष्णमूर्ति को सुन कर ही यह खयाल पैदा हुआ है, तो गुरु तो हो गए। यह खयाल तुम्हारा नहीं है। पहले तुम दूसरों के खयाल मानते रहे, अब भी दूसरे का ही खयाल मान रहे हो। कहने लगे कि नहीं, हम कृष्णमूर्ति को गुरु नहीं मानते। तो मैंने कहा, फिर अब सुनने किसलिए जाते हो? अब सुनने की क्या जरूरत रही? कहा उन्होंने कि सुनने जाते हैं समझने के लिए। तो मैंने कहा, गुरु का और मतलब ही क्या होता है? कि जिससे हम समझते हैं। और गुरु का क्या मतलब होता है? कि जिसके पास हम समझने जाते हैं।

आदमी अगर बुद्धि की ही जगह खड़ा रहे, तो बुद्धि के विपरीत बातों को भी बुद्धि से ही पकड़ेगा। इसमें कोई अस्वाभाविक बात नहीं है, स्वाभाविक है। नहीं, असली सवाल सिर्फ बुद्धि से ही जाल को काटने का नहीं है, क्योंकि बुद्धि नए जाल बना लेगी; बुद्धि से हट जाने का है। कैसे एक छलांग लगे कि हम बुद्धि से हट जाएं?
तो इस बुद्धि से हटने के दो प्रयोग किए गए हैं। एक प्रयोग है कि आदमी विचार छोड़ दे, भाव में पड़ जाए। जैसे मीरा है; तो मीरा विचार नहीं करती, भाव में पड़ गई है। नाचती है, गाती है, कीर्तन करती है।

लेकिन भाव भी बहुत गहरे नहीं ले जाता। बुद्धि से तो गहरे ले जाता है, इसलिए बुद्धि से तो बेहतर है। बुद्धि से तो कुछ भी बेहतर हो सकता है। गहरे ले जाता है। लेकिन लाओत्से जो कह रहा है, वह और गहरे ले जाता है। वह कहता है, भाव भी आखिर बहुत कुछ बुद्धि के पास है। हम तो वहां चलते हैं, जहां भाव भी नहीं रह जाता, विचार भी नहीं रह जाता। न बुद्धि और न हृदय, न ज्ञान और न भक्ति। हम वहां चलते हैं, जहां चित्त निर्विकार हो जाता है, जहां शुद्ध अस्तित्व रह जाता है।

इस शुद्ध अस्तित्व के लिए सारी कल्पनाओं का कचरा झाड़-पोंछ कर अलग कर देना जरूरी है।

लेकिन यह कौन करेगा? अगर बुद्धि से ही आपने यह काम लिया, तो आप गलती में पड़ जाएंगे। बुद्धि इसे झाड़ कर अलग कर देगी, लेकिन नए जाल बना कर खड़े कर देगी। और ध्यान रहे, पुराने जालों से नए जाल ज्यादा खतरनाक हैं। क्योंकि पुरानों को तो छोड़ने का मन भी होता है, नए को पकड़ने का और सम्हालने का मन होने लगता है। पुराने गुरुओं से नए गुरु खतरनाक हो जाते हैं। और पुराने शास्त्रों से नए शास्त्र खतरनाक हो जाते हैं। क्योंकि नए में नएपन का भी आग्रह और मोह है। और अगर किसी को यह खयाल आ गया कि मैं समर्थ हो गया हूं सारे जाल को काटने में, तो यह अहंकार बुद्धि के केंद्र पर खड़ा होकर सबसे बड़ा जाल बन जाता है।
नहीं, इससे नीचे हटना पड़ेगा। यह बहुत मजे की बात है कि अगर आप नाभि से श्वास लेने लगें, तो आप अहंकारी नहीं रह जाएंगे। आपको कुछ करना नहीं पड़ेगा कि अहंकार छोड़ने जाएं। नहीं, आप नहीं रह जाएंगे। क्योंकि नाभि पर अहंकार के टिकने का उपाय नहीं है। अहंकार इतना बड़ा तनाव है कि नाभि से श्वास चलती हो, तो नहीं टिक सकता।

 इतना शांत हो जाता है भीतर सब।

ताओ उपनिषद

ओशो 

हारा

यह जो हारा है, यह जो केंद्र है, यह आपकी बुद्धि में नहीं है। यह आपके हृदय में भी नहीं है। यह आपकी नाभि के पास है। और इसीलिए मां से बच्चे की खोपड़ी नहीं जुड़ी रहती उसके पेट में और न हृदय जुड़ा रहता है; उसकी नाभि जुड़ी रहती है। नाभि से बच्चा जुड़ा रहता है। लेकिन यह चमत्कार की बात है कि बच्चा न तो श्वास लेता मां के पेट में, न उसके हृदय में धड़कन होती, सिर्फ नाभि से मां से जुड़ा रहता है और जीवित रहता है। इसका अर्थ साफ है कि न तो हृदय अनिवार्य है जीवन के लिए और न बुद्धि अनिवार्य है जीवन के लिए। हृदय की धड़कन के बिना भी बच्चा जीवित रहता है और श्वास के बिना चले भी जीवित रहता है, लेकिन नाभि के बिना जीवित नहीं रह सकता। इसलिए मां से बच्चे के अलग होते ही पहला काम हम नाभि से संबंध तोड़ने का करते हैं। क्योंकि जब तक नाभि से संबंध न टूट जाए, बच्चा अपनी श्वास नहीं ले सकेगा। व्यक्तित्व नहीं पैदा होगा उसका, अलग खड़ा नहीं होगा। वह मां से जुड़ा है, मां से संबंध तोड़ना पड़ेगा। जब हम मां से संबंध तोड़ देंगे, तब उसके शरीर को पहली दफे जरूरत पैदा होगी कि वह श्वास ले, हृदय धड़के, खून बहे। बच्चा अपने पैरों पर जीवन को चलना शुरू करे।

ठीक इसे ऐसा समझें कि मां से नाभि से हमारा जो धागा जुड़ा है, यह एक धागा है; और ठीक नाभि से दूसरा धागा हमारा परमात्मा से जुड़ा है, अस्तित्व से जुड़ा है। वह जिस जगह से हमारा धागा जुड़ा है, नाभि के दूसरे छोर को हम समझें, दूसरे पहलू को, जहां से हम अस्तित्व से जुड़े हैं, उसका नाम हारा है। और ताओ कहता है कि उस हारा को जो पा लेता है, उस केंद्र को जो पा लेता है, वह सरल हो जाता है। फूल की तरह, आकाश के तारों की तरह, बच्चों की तरह, पशुओं की आंखों की तरह तरल और सरल हो जाता है।

यह तरलता और सरलता अगर पानी हो, तो तीसरे सूत्र में लाओत्से कहता है, “जब वह कल्पना के अतिशय रहस्यमय दृश्यों को झाड़-पोंछ कर साफ कर लेता है, तो निर्विकार हो जाता है।’

श्वास नमनीय हो जाए, केंद्र पर आ जाए और कल्पना का सारा जाल तोड़ कर फेंक दिया जाए!
कल्पना के जो हमने जाल बना रखे हैं, न मालूम कितने-कितने प्रकार के। संसार के नाम पर ही नहीं, धर्म के नाम पर भी न मालूम कितने जाल हमने अपनी कल्पना के बना रखे हैं। न मालूम कितने ईश्वर, न मालूम कितने देव, न मालूम कितने स्वर्ग-नर्क कल्पना से बना रखे हैं। जाना हमने नहीं है; पहचान हमारी कुछ भी नहीं है; सिर्फ अपनी कल्पना को भर रखा है। हमारी कल्पना एक पुस्तकालय है, जिस पुस्तकालय में जमाने भर की कल्पनाएं संगृहीत हो गई हैं। जन्मों-जन्मों में न मालूम कितनी कल्पनाओं के जाल हमने इकट्ठे कर लिए हैं और उन सब जालों के बीच में हम घिरे जीते हैं।

लेकिन ये सारे के सारे जाल बुद्धि में हैं। और अगर किसी व्यक्ति ने बुद्धि से ही इन जालों को तोड़ने की कोशिश की, तो वह नहीं तोड़ पाएगा। जरूरी है कि बुद्धि से नीचे चला जाए, गहरा चला जाए, अस्तित्व के केंद्र पर खड़ा हो जाए! और जैसे ही कोई व्यक्ति नाभि के पास आ जाता है, वैसे ही सशक्त हो जाता है कि कल्पनाओं को तोड़ कर फेंक दे। कुछ लोग बुद्धि से ही बुद्धि से लड़ने की कोशिश में लगे रहते हैं। बुद्धि के एक तर्क को आप दूसरे तर्क से काट सकते हैं, लेकिन ध्यान रखिए, दूसरा तर्क आपको पकड़ लेगा। बुद्धि की एक कल्पना को आप दूसरी कल्पना से काट सकते हैं, लेकिन तब दूसरी कल्पना आपको पकड़ लेगी। यह कठिनाई ऐसी है कि जिससे आप काटने चले हैं, वह बुद्धि ही कटनी चाहिए, अन्यथा कुछ भी नहीं कटेगा।

तो लोग काटने में लगे रहते हैं। एक धर्म को दूसरे धर्म से बदल लेते हैं। एक गुरु को दूसरे गुरु से बदल लेते हैं। एक सिद्धांत को दूसरे सिद्धांत से बदल लेते हैं। एक शास्त्र को दूसरे शास्त्र से बदल लेते हैं। और कुछ लोग तो इतनी कठिनाई में पड़ जाते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि उन्होंने सब शास्त्र छोड़ दिए; और तब वे अपना ही शास्त्र निर्मित कर लेते हैं, जो कि और भी गरीब होने वाला है। उससे तो बेहतर किसी और का भी बेहतर था।

ताओ उपनिषद

ओशो 

“जब कोई अपनी प्राणवायु को अपनी ही एकाग्रता के द्वारा नमनीयता की चरम सीमा तक पहुंचा दे, तो वह व्यक्ति शिशुवत कोमल हो जाता है।’


पहला सूत्र है, श्वास को धीरे-धीरे नाभि पर ले आना। सीने का काम ही न रह जाए।
 
दूसरा ताओ प्राण-साधना का हिस्सा है कि सदा श्वास बाहर जाए, उस पर ध्यान देना; भीतर आती श्वास पर बिलकुल ध्यान नहीं देना। और जब श्वास बाहर जाए, तो जितने जोर से श्वास को उलीचा जा सके, उलीच देना; और भीतर कभी श्वास अपनी तरफ से नहीं लेना। जितनी आए आ जाने देना। आने की प्रक्रिया परमात्मा पर छोड़ देनी; और भेजने की प्रक्रिया जितनी हमसे उलीचते बन सके, उलीच देना। इसके अदभुत परिणाम होते हैं।
हम सभी लोग श्वास लेने में तो बहुत उत्सुकता दिखाते हैं, छोड़ने में नहीं। अगर आप ध्यान करेंगे, तो हमारी एम्फेसिस सदा छोड़ने पर कभी नहीं होती, सदा लेने पर होती है। और यह सिर्फ श्वास का ही सवाल नहीं है; हमारा पूरा जीवन ही लेने पर निर्भर होता है, देने पर कभी निर्भर नहीं होता। जो व्यक्ति श्वास को छोड़ने पर जोर देगा और लेने पर नहीं, उसके पूरे व्यक्तित्व में दान और देना अपने आप गहन हो जाएगा और लेना कम हो जाएगा।

ताओ का मानना है कि श्वास को उलीचें और लेने की आप फिक्र न करें। क्योंकि लेना तो अपने आप हो जाएगा, उलीचना भर काफी है। और जितनी आप श्वास को उलीच देंगे, उतनी ताजी श्वास भीतर चली आएगी। और यह उलीचने पर जोर देने का कारण है, क्योंकि इस जोर की बदलाहट से, इस उलीचने की तरफ जोर बढ़ने से आपके पूरे जीवन में देने की संभावना बढ़ने लगेगी। हमारा सारा क्रोध इसीलिए है कि हम देना नहीं चाहते, लेना चाहते हैं। हमारी सारी घृणा इसीलिए है कि हम देना नहीं चाहते, लेना चाहते हैं। हमारीर् ईष्या इसीलिए है कि हम देना नहीं चाहते, लेना चाहते हैं। हमारे जीवन का सारा उलझाव क्या है? कि देने की हमें जरा भी इच्छा नहीं है और लेना हम बहुत चाहते हैं। जो दे नहीं सकता, उसे कुछ भी नहीं मिलेगा। और जो दे सकता है, उसे हजार गुना सदा मिल जाता है। और जो हम देते हैं, अगर हम लोहा देते हैं, तो सोना मिल जाता है। कार्बन डाय आक्साइड उलीचिए और प्राणवायु भीतर भर जाती है, आक्सीजन भीतर भर जाती है। यही पूरे जीवन का सूत्र है।

तो लाओत्से का दूसरा सूत्र है: सदा श्वास को फेंकिए; लेने को भूल ही जाइए। लेने का आपको काम ही नहीं करना है, वह तो प्रकृति स्वयं कर लेती है। आप सिर्फ उलीच दें, फेंक दें, हटा दें। खाली जगह छोड़ दें, वह भर जाएगी। और अगर आपका जोर छोड़ने पर हो और लेने पर बिलकुल न हो, तो चित्त एकदम नमनीय हो जाएगा। क्योंकि लेने में तनाव होता है, जबर्दस्ती होती है। छोड़ने में तो सिर्फ हलकापन आता है। छोड़ने में सिर्फ निर्भार होते हैं। भरना तो एक भार है। छोड़ना निर्भार होना है। छोड़ना तो वजन कम कर देता है।
तो दूसरा सूत्र है: छोड़ें, श्वास को लें मत।

तीसरा सूत्र है लाओत्से का–केंद्र नाभि हो जाए, छोड़ने पर जोर हो जाए और तीसरा–यह जो श्वास का आना-जाना है, इससे अपने को पृथक न समझें। जब श्वास बाहर जाए, तो समझें कि मैं बाहर चला गया; और जब श्वास भीतर आए, तो समझें कि मैं भीतर आ गया। प्राण के साथ एक हो जाएं।

हम क्या करते हैं? हम कहते हैं, श्वास मुझमें आई, श्वास मुझसे बाहर गई। लाओत्से कहता है इससे बिलकुल उलटी बात। वह कहता है, श्वास के साथ मैं बाहर गया, श्वास के साथ मैं भीतर आया। मैं ही बाहर हूं, मैं ही भीतर हूं। श्वास के साथ इस शरीर में भीतर आता हूं, श्वास के साथ इस शरीर के बाहर विराट शरीर में जाता हूं। चलते, उठते, बैठते, अगर यह खयाल रख सकें कि श्वास के साथ मैं बाहर गया और श्वास के साथ मैं भीतर आया। इसका जप निर्मित हो जाए। यह धीरे-धीरे-धीरे-धीरे-धीरे जप की भांति आपके भीतर गूंजने लगे कि श्वास में बाहर गया, श्वास में भीतर आया। तो श्वास की यह सतत क्रिया अगर जप बन जाए बाहर और भीतर आने की, तो अद्वैत फलित होता है, तो अद्वैत का अनुभव होता है।

और अगर ये तीन बातें ध्यानपूर्वक हो जाएं, तो लाओत्से कहता है, “जब कोई अपनी प्राणवायु को अपनी ही एकाग्रता के द्वारा नमनीयता की चरम सीमा तक पहुंचा देता है, तो वह शिशुवत कोमल हो जाता है।’
तो फिर बच्चे की भांति कोमल हो जाता है। यह कोमलता जितनी ज्यादा हो, उतना ज्यादा जीवन। यह कोमलता जितनी कम हो, उतनी ज्यादा मृत्यु। सख्त हो जाना ही मौत का दरवाजा और कोमल बने रहना ही जीवन का द्वार है। तो कोमल, जैसे कि नया-नया उगा हुआ अंकुर होता है। दिखता है कमजोर, लेकिन वही उसकी शक्ति है। बूढ़ा दिखता हो भला ताकतवर, लेकिन बच्चे से ज्यादा ताकतवर नहीं है। क्योंकि मौत करीब आती चली जा रही है। जितना सख्त होता चला जाता है, उतना मृत्यु के करीब पहुंचता चला जाता है। बच्चा बिलकुल कमजोर दिखता है, लेकिन अपनी कमजोरी में भी महा शक्तिशाली है, क्योंकि जीवन अभी उसमें फैलेगा और बड़ा होगा।

नमनीयता! लेकिन यह श्वास पर प्रयोग के बिना संभव नहीं है। और श्वास पर अगर यह संभव हो जाए, तो फिर जीवन के सभी पहलुओं पर संभव हो जाती है। और हमारी श्वास हमारे व्यक्तित्व को सब तरफ से प्रभावित करती है। आपकी श्वास आपका पूरा दर्पण है। आप श्वास के साथ क्या कर रहे हैं, उससे पता चल जाएगा कि आप अपने साथ क्या कर रहे हैं। आप कैसी श्वास लेते हैं, पता चल जाएगा, आप कैसे व्यक्ति हैं।

लाओत्से के पास कोई आता था साधना के लिए, तो लाओत्से कहता था कि एक सप्ताह मेरे पास रुक जाओ, जरा मैं देख तो लूं कि तुम कैसी श्वास लेते हो, कैसी श्वास छोड़ते हो। खोजी आया हो, अगर ज्ञानी हो, तो हैरान होगा कि हम ब्रह्मज्ञान लेने आए, सत्य का पता लगाने आए और यह आदमी कह रहा है कैसी श्वास लेते हो, कैसी छोड़ते हो। सात दिन लाओत्से देखेगा उस आदमी को अनेक हालतों में–सोते में, जगते में, काम करते, चलते वक्त, क्रोध में, प्रेम में–और देखेगा, उसकी श्वास की व्यवस्था क्या है। और जब तक वह श्वास की व्यवस्था न समझ ले, तब तक साधना का कोई सूत्र न देगा। श्वास के साथ ही साधना पूरी की पूरी व्यवस्थित की जा सकती है।

तो ये तीन सूत्र खयाल रखें। आपने सुना होगा जापानी शब्द हाराकिरी। हाराकिरी का हम अनुवाद करते हैं आत्मघात, स्युसाइड। लेकिन जापानी शब्द का अर्थ और ज्यादा है। हारा का अर्थ होता है केंद्र, परम केंद्र–जहां से जीवन पैदा होता है। उसी केंद्र में छुरा मार कर अगर कोई मरता है, तो उसको हाराकिरी कहते हैं। इसलिए हर कोई हाराकिरी नहीं कर सकता। आप चाहें कि हाराकिरी कर लें, तो आप नहीं कर सकते। हाराकिरी करने के लिए हारा को पहचानना जरूरी है कि वह केंद्र कहां है।

अभी मैंने आपसे कहा तांदेन, नाभि से दो इंच नीचे, अगर आप श्वास को नाभि से लेते रहें, तो धीरे-धीरे आपको नाभि से दो इंच नीचे एक जगह पर स्मरण होने लगेगा केंद्र का। वही केंद्र जब इतना स्पष्ट हो जाता है कि आपको लगता है पूरा शरीर परिधि है और वही केंद्र है, पूरा शरीर एक वर्तुल है और वही केंद्र है, जिस दिन आप सोते-जागते, उठते-बैठते सतत उस केंद्र के स्मरण से भरे रहते हैं और दीए की एक ज्योति की तरह वह केंद्र आपके भीतर जलने लगता है, तब उसका नाम हारा है। और जिस व्यक्ति का वह केंद्र दीए की ज्योति की तरह जलने लगता है भीतर, उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं है।

तो हाराकिरी का मतलब होता है, शरीर को केंद्र से तोड़ देना। तो वह ज्योति परम ज्योति में विलीन हो जाएगी।


ताओ उपनिषद

ओशो 

तांदेन

श्वास का जो प्राथमिक स्रोत है, जापानी भाषा में उसके लिए एक शब्द है। हमारी भाषा में कोई शब्द नहीं है। वह शब्द है उनका: तांदेन, दकमद। नाभि से दो इंच नीचे, ठीक श्वास चलती हो तो नाभि से दो इंच नीचे, जिसे जापानी तांदेन कहते हैं, उस बिंदु से श्वास का संबंध होता है। और जितना तनावग्रस्त व्यक्ति होगा, तांदेन से श्वास का बिंदु उतना ही दूर हटता जाता है।

तो जितने ऊपर से आप श्वास लेते हैं, उतने ही तनाव से भरे होंगे। और जितने नीचे से श्वास लेते हैं, उतने ही विश्राम को उपलब्ध होंगे। और अगर तांदेन से श्वास चलती हो, तो आपके जीवन में तनाव बिलकुल नहीं होगा। बच्चे के जीवन में तनाव न होने का जो व्यवस्थागत कारण है, वह तांदेन से श्वास का चलना है। जब आप भी कभी विश्राम में होते हैं, तो अचानक खयाल करना, आपकी श्वास तांदेन से चलती होगी। और जब आप तनाव से भरे हों, बहुत मन उदास, चिंतित, परेशान हो, व्यथित हो, बेचैनी में हो, तब आप खयाल करना, तो श्वास बहुत ऊपर से आकर लौट जाएगी। यह श्वास का ऊपर से आकर लौट जाना इस बात का सूचक है कि आप अपनी मूल प्रकृति से बहुत दूर हो गए हैं।

लेकिन कुछ कारण हैं जिनकी वजह से हम लोगों को शिक्षा देते हैं कि पेट से श्वास मत लेना। एक तो एक पागलपन का खयाल सारी दुनिया में फैल गया है और वह यह है कि छाती फूली हुई होनी चाहिए, छाती बड़ी होनी चाहिए। तो छाती जितनी बड़ी करनी हो, उतनी श्वास छाती में भरनी चाहिए, नीचे नहीं; और छाती से ही वापस लौटा देनी चाहिए। तो छाती को बड़ा करने का पागलपन व्यक्ति के भीतर एक भयंकर उत्पात को निर्मित कर देता है।

अगर आपने कभी जापानी या चीनी फकीरों की तस्वीरें देखी हैं, या लाओत्से की तस्वीर अगर आपने कभी देखी है, तो आपको थोड़ी हैरानी होगी। चीन और जापान में तो बुद्ध की भी जो तस्वीरें और मूर्तियां बनाई हैं, वे भी देख कर हमें हैरानी होगी। क्योंकि हमने जो बुद्ध की मूर्तियां बनाई हैं, उनसे उनका मेल नहीं है। हमारी जो बुद्ध की मूर्तियां हैं, उनमें पेट बहुत छोटा है, पीठ से लगा हुआ है; और छाती बड़ी है। और जापान और चीन में बुद्ध की भी जो मूर्तियां हैं, उनमें पेट बड़ा है, ठीक बच्चे जैसा है। बच्चे की छाती तो विश्राम में होती है; पेट थोड़ा सा बड़ा होगा, क्योंकि श्वास पेट पर आएगी-जाएगी।
 
तो छाती को बड़ा करने का खयाल भीतर एक खतरनाक स्थिति को पैदा करता है। और वह खतरनाक स्थिति है: एंद्रिक और बौद्धिक…। तीन केंद्र ताओ मानता है: एक तांदेन–नाभि केंद्र, दूसरा हृदय केंद्र और तीसरा बुद्धि का मस्तिष्क केंद्र। नाभि केंद्र अस्तित्व का सबसे गहरा केंद्र है। फिर उसके बाद उससे कम गहरा केंद्र हृदय का है। और सबसे कम गहरा केंद्र बुद्धि का है।

ताओ उपनिषद्

ओशो 

संवेदनशीलता

अभी पश्चिम में एक नया आंदोलन चलता है–विशेषकर अमरीका में–संवेदनशीलता को बढ़ाने का। क्योंकि अमरीका को अनुभव होना शुरू हुआ है कि आदमी की संवेदनशीलता समाप्त हो गई है, सेंसिटिविटी समाप्त हो गई है। हम छूते हैं, लेकिन छूना हमारा बिलकुल मुर्दा है। हम देखते हैं, लेकिन आंखें हमारी पथराई हुई हैं। हम सुनते हैं, लेकिन कानों पर आवाज ही पड़ती है, हृदय तक कोई संवेदन नहीं पहुंचता। हम प्रेम भी करते हैं, हम प्रेम की बात भी करते हैं, लेकिन प्रेम हमारा बिलकुल निष्प्राण है। हमारे प्रेम के हृदय में कोई धड़कन नहीं है। हमारा प्रेम बिलकुल कागजी है। हम सब कुछ करते हैं, लेकिन ऐसा मालूम होता है कि हमारे किसी भी करने में कोई संवेदना नहीं रह गई है। संवेदनाशून्य, जड़, यंत्रवत हम उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, सब हम कर लेते हैं। संवेदना वापस लाई जानी जरूरी है। तो मनसविद कह रहे हैं कि अगर हम आदमी की संवेदना वापस न ला सके, तो हम आदमी को पृथ्वी पर इस सदी के आगे बचा नहीं सकेंगे। अभी तक व्यक्ति पागल होते रहे थे; अब समूहगत रूप से लोग पागल हो जाएंगे। संवेदना वापस लौटानी पड़ेगी। लेकिन संवेदना वापस कैसे लौटे? और संवेदना खो क्यों गई है?

आपको भी याद होगा–अगर आपको बचपन की कोई स्मृति है तो आपको याद होगा–अगर बगीचे में फूल खिल गया है, तो जैसा बचपन में वह आपको दिखाई पड़ा था खिलता हुआ, वैसा अब भी फूल खिलता है लेकिन आपको दिखाई नहीं पड़ता। सूरज बचपन में भी उगता था, वही सूरज अब भी उगता है; लेकिन अब सूरज के उगने से हृदय में कोई नृत्य पैदा नहीं होता। चांद अब भी निकलता है, अब भी आप आंख उठा कर कभी चांद को देख लेते हैं, लेकिन चांद आपको स्पर्श नहीं करता। क्या हो गया है?

लाओत्से जो कह रहा है, आलिंगन टूट गया है। बुद्धि और एंद्रिक तल दो हो गए हैं। इंद्रियों में संवेदना होती है, बुद्धि संवेदना को अनुभव करती है। अगर दोनों टूट जाएं, तो संवेदना होनी बंद हो जाती है। इंद्रियां जड़ हो जाती हैं और बुद्धि तक कोई खबर नहीं पहुंचती। और जीवन का काव्य और जीवन का संगीत और जीवन का रस, सभी कुछ सूख जाता है।

बच्चे एक स्वर्ग में रहते हुए मालूम पड़ते हैं, इसी जमीन पर, जहां हम हैं। लेकिन उनके स्वर्ग में रहने का कोई और कारण नहीं है, सिर्फ इतना ही कारण है कि अभी उनकी इंद्रिय-आत्मा और उनकी बुद्धि-आत्मा में फासला नहीं पड़ा है। अभी जब वे भोजन करते हैं, तो शरीर ही भोजन नहीं करता, उनकी पूरी आत्मा भी उस भोजन से आनंदित होती है। अभी जब वे नाचते हैं, तो सिर्फ शरीर ही नहीं नाचता, उनकी आत्मा भी नाचती है। अभी जब वे दौड़ते हैं, तो उनका शरीर ही नहीं दौड़ता, उनकी आत्मा भी दौड़ती है। अभी वे संयुक्त हैं। अभी उनके भीतर भेद पड़ना शुरू नहीं हुआ। अभी वे अद्वैत में हैं। अभी वे दो नहीं हुए, अभी एक हैं।

इसलिए बच्चा जिन आनंद को अनुभव कर पाता है, उनको हम अनुभव नहीं कर पाते। और बच्चा जिस प्रेम को अनुभव कर पाता है, उस प्रेम को हम अनुभव नहीं कर पाते। होना तो उलटा चाहिए कि हम ज्यादा अनुभव कर सकें, क्योंकि हमारी अनुभव की क्षमता और हमारे अनुभव का संग्रह बड़ा है। लेकिन हम अनुभव नहीं कर पाते, क्योंकि अनुभव करने की जो प्रक्रिया है, वही हमारी टूट गई है।

लाओत्से कहता है, यह द्वैत हमारे भीतर पैदा होता है हमारी बुद्धि और हमारी इंद्रियों के बीच फासले के निर्माण से।

ताओ उपनिषद

ओशो 

शुभ क्या है और अशुभ क्या है? फिर शुभाशुभ के पार क्या है?

शुभ का कोई संबंध नीति से नहीं है। नीतियां अनेक हैं, शुभ एक है। हिंदू की नीति एक, मुसलमान की नीति दूसरी, जैन की नीति तीसरी। इसलिए नीतियां तो मान्यताएं है। बदलती रहती हैं। उनका कोई शाश्वत मूल्य नहीं है। जो कल अनैतिक था, आज नैतिक हो सकता है। जो आज नैतिक है, कल अनैतिक हो जाएगा।
जैसे, महाभारत युधिष्ठिर को धर्मराज कहता है, और धर्मराज जूआ खेलने में जरा भी संकोच अनुभव नहीं करते। जूआ अनैतिक नहीं था। उन दिनों जूआ नैतिक था। धर्मराज के धर्मराज होने में जूआ खेलने से कोई बाधा नहीं आती। और छोटे मोटे जूआरी भी न रहे होंगे, सब लगा दिया ,सब ही नहीं लगा दिया, पत्नी भी लगा दी। पत्नी कोई संपत्ति नहीं है, पत्नी के पास उतनी ही आत्मा है जितनी पति के पास। किसी को कोई हक नहीं है कि पत्नी को या पति को दाव पर लगा दे। दाव पर लगाने का मतलब है कि पत्नी के बेचने का हक था। इस देश में तो लोग ही कहते है-स्त्रीसंपत्ति। यह बड़ी अनैतिक बात है आज। आज धर्मराज को धर्मराज कहना बहुत मुश्किल होगा। अगर धर्मराज धर्मराज हैं तो फिर अधर्मराज कौन? यह बात ही बेहूदी है, असंस्कृत है, पर उस दिन स्वीकार थी, कोई अड़चन न थी।

आज जो नैतिक है, कल अनैतिक हो जाएगा। नीति बदलती है। इसलिए नीति के साथ शुभ को एक मत समझ लेना। शुभ शाश्वत है। शुभ न हिंदू का, न मुसलमान का, न जैन का, न ईसाई का, शुभ तो परमात्मा से संबंधित होने का नाम है। शुभ सासारिक धारणा नहीं है, न सामाजिक धारणा है। शुभ तो अंतसछंद की प्रतीति है। शांडिल्य से पूछो, या अष्टावक्र से, या मुझ से, उत्तर यही होगा कि जिस बात से तुम्हारे भीतर के छंद में सहयोग मिले, वह शुभ। और जिस बात से तुम्हारे भीतर के छंद में बाधा पड़े, वह अशुभ।

जिससे तुम्हारा अंतस गीत बढ़े वह शुभ, जिससे तुम्हारा अंतस गीत छिन्नछिन्न हो, खंडित हो, वह अशुभ। जिससे तुम समाधि के करीब आओ, वह शुभ, और जिससे तुम समाधि से दूर जाओ, वह अशुभ। कसौटी भीतर है, कसौटी बाहर नहीं है।

 अथातो भक्ति जिज्ञासा

ओशो 

नाभिकेंद्र

जीवनधारा चारों तरफ से बह रही है और जिनके नाभिकेंद्र खुले हुए नहीं हैं, वे उस धारा से वंचित रह जाएंगे। उनको उस धारा का कोई पता नहीं चलेगा। उन्हें बोध ही नहीं होगा कि यह धारा भी आई थी और हमें प्रभावित कर सकती थी। हमारे भीतर कुछ छिपा था उसे खोल सकती थी। उन्हें पता भी नहीं होगा। यह जीवनधारा प्रभावित कर सके यह हमारे नाभि का जो फूल है, जिसको बहुत पुराने दिनों से लोग कमल कहते रहे, लोटस कहते रहे, वे इसीलिए कहते रहे कि वह खिल सके, कोई एक जीवन  धारा उसे खोल दे। उसके लिए तैयारी चाहिए। उसके लिए हमारे केंद्र को खुले आकाश के नीचे होना चाहिए। हमारा ध्यान होना चाहिए उस पर। हमारी जीवनधारा, भीतर जो हमारी जीवनधारा है, वह उस फूल तक पहुंच कर उसे जीवन देना चाहिए। इसलिए मैंने सुबह कुछ थोड़ी सी बातें कहीं।

यह कैसे संभव होगा? यह कैसे संभव हो सकता है कि हमारे जीवन का केंद्र एक खिला हुआ फूल बन जाए, ताकि जो भी चारों तरफ से अदृश्य विद्युतधाराएं आ रही हैं, वे उससे संपर्क स्थापित कर सकें? किस रास्ते से यह होगा? दोंचार बातें स्मरणीय हैं जो अभी और रात में आपसे बात कर लूंगा, ताकि कल हम दूसरे बिंदु पर बात कर सकें।

पहली बात. आपकी ब्रीदिंग, आपकी श्वास की प्रक्रिया जितनी गहरी हो, उतना ही आप नाभि को प्रभावित करने में और विकसित करने में समर्थ हो सकते हैं। लेकिन हमें इसका कोई खयाल नहीं है। हमें इस बात का पता ही नहीं है कि श्वास हम कितनी ले रहे हैं या कितनी कम ले रहे हैं, या जरूरत के माफिक ले रहे हैं या नहीं ले रहे हैं। और जितने हम ज्यादा चिंतित होते जाते हैं, जितने चिंतन से भरते जाते हैं, मस्तिष्क पर जितना बोझ बढ़ता है, आपको खयाल भी न होगा, श्वास की धारा उतनी ही क्षीण और अवरुद्ध होती है। क्या आपने कभी खयाल किया है, क्रोध में आपकी श्वास दूसरी तरह से चलती है, शांति में दूसरी तरह से चलती है?

क्या आपने कभी खयाल किया है कि तीव्र कामवासना मन में चलती हो, तो श्वास और तरह से चलती है और मन मधुर भावों से भरा हो, तो श्वास दूसरी तरह से चलती है? क्या आपने खयाल किया है, बीमार आदमी की श्वास और तरह से चलती है, स्वस्थ आदमी की और तरह से चलती है? श्वास के स्पंदन प्रतिक्षण आपके चित्त को देख कर परिवर्तित होते रहते हैं। ठीक उलटी बात भी सच है। अगर श्वास के स्पंदन बिलकुल संगतिपूर्ण हों, तो आपका चित्त भी परिवर्तित होता रहता है। या तो चित्त को बदलिए तो श्वास बदलती है या श्वास को बदलिए तो चित्त पर परिणाम होते हैं।

तो जिस व्यक्ति को भी जीवनकेंद्रों को विकसित करना है और प्रभावित करना है, उसे पहली बात है, रिदमिक ब्रीदिंग, उसके लिए पहली बात है, लयबद्ध श्वास। चलते-उठते-बैठते इतनी लयबद्ध, इतनी शांत, इतनी गहरी श्वास कि श्वास का एक अलग संगीत, एक अलग हार्मनी दिन-रात उसे मालूम होने लगे। आप चल रहे हैं रास्ते पर, कोई काम तो नहीं कर रहे हैं। बड़ा आनदपूर्ण होगा कि आप गहरी, शांत, धीमी और गहरी और लयबद्ध श्वास लें। दो फायदे होंगे। जितनी देर तक लयबद्ध श्वास रहेगी, उतनी देर तक आपका चिंतन कम हो जाएगा, उतनी देर तक मन के विचार बंद हो जाएंगे।

अगर श्वास बिलकुल सम हो, तो मन के विचार एकदम बंद हो जाते हैं, शांत हो जाते हैं। श्वास मन के विचारों को बहुत गहरे, दूर तक प्रभावित करती है। और श्वास ठीक से लेने में कुछ भी खर्च नहीं करना होता है। और श्वास ठीक से लेने में कोई समय भी नहीं लगाना होता है। श्वास ठीक से लेने में कहीं से कोई समय निकालने की भी जरूरत नहीं होती है। आप ट्रेन में बैठे हैं, आप रास्ते पर चल रहे हैं, आप घर में बैठे हैं—धीरे—धीरे अगर गहरी, शांत श्वास लेने की प्रक्रिया जारी रहे तो थोड़े दिन में यह प्रक्रिया सहज हो जाएगी। आपको इसका बोध भी नहीं रहेगा। यह सहज ही गहरी और धीमी चलने लगेगी।

जितनी श्वास की धारा धीमी और गहरी होगी, उतना ही आपका नाभिकेंद्र विकसित होगा। श्वास प्रतिक्षण जाकर नाभिकेंद्र पर चोट पहुंचाती है। अगर श्वास ऊपर से ही लौट आती है, तो नाभिकेंद्र धीरे धीरे सुस्त हो जाता है, ढीला हो जाता है। उस तक चोट नहीं पहुंचती।

गहरी श्वास पहली प्रक्रिया है। जितनी गहरी श्वास, जितनी लयबद्ध, जितनी संगतिपूर्ण, उतनी ही आपके भीतर जीवनचेतना नाभि के आस पास विकीर्ण होने लगेगी, फैलने लगेगी।


नाभि एक जीवित केंद्र बन जाएगी। और थोड़े ही दिनों में आपको नाभि से अनुभव होने लगेगा कि कोई शक्ति बाहर फिंकने लगी। और थोड़े ही दिनों में आपको यह भी अनुभव होने लगेगा कि कोई शक्ति नाभि के करीब आकर खींचने भी लगी। आप पाएंगे कि एक बिलकुल लिविंग, एक जीवंत, एक डाइनैमिक केंद्र नाभि के पास विकसित होना शुरू हो गया है।

अंतर्यात्रा–(प्रवचन–2)

ओशो 

Sunday, August 23, 2015

भगवान श्री, कल आपने कहा कि कर्ता तो प्रभु है, मनुष्य तो केवल निमित्त-मात्र है। तो कोई व्यक्ति जब दुष्कर्म की ओर प्रवृत्त होता है, तो क्या दुष्कर्म का कर्ता और प्रेरक भी प्रभु है? और कर्तापन के अभाव से बुरे कर्म का अभिनय करना कहां तक उचित है?

अच्छे और बुरे का फासला आदमी का है, परमात्मा का नहीं है। और जो अच्छे —बुरे में फर्क करता है, उससे कभी न कभी बुरा होगा, वह बुरे से बच नहीं सकता है। सिर्फ बुरे से वही बच सकता है, जिसने सभी परमात्मा पर छोड़ दिया हो।

लेकिन हम कहेंगे कि एक आदमी चोरी कर सकता है और कह सकता है कि मैं तो निमित्त-मात्र हूं; चोरी मैं नहीं करता हूं, परमात्मा करता है। कहे, अड़चन अभी नहीं है, अड़चन जब घर के लोग पकड़कर उसे मारने लगते हैं, तब पता चलेगी। क्योंकि अगर वह तब भी यही कहे कि परमात्मा ही मार रहा है और ये घर के लोग कर्ता नहीं हैं, निमित्त-मात्र हैं, तभी पता चलेगा।


और ध्यान रहे, जो आदमी, कोई दूसरा उसे मार रहा हो और फिर भी जानता हो कि परमात्मा ही मार रहा है, निमित्त मात्र हैं दूसरे, ऐसा आदमी चोरी करने जाएगा, इसकी संभावना नहीं है। असंभव है, यह बिलकुल असंभव है।

हम बुरा करते ही अहंकार से भरकर हैं। बिना अहंकार के बुरा हम कर नहीं सकते। और जिस क्षण हम परमात्मा को सब कर्तृत्व दे देते हैं, अहंकार छूट जाता है, बुरे को करने की बुनियादी आधारशिला गिर जाती है। बुरा करिएगा कैसे?

हमें डर लगता है कि अगर हम निमित्त मात्र हुए, तो अभी चोरी पर निकल जाएंगे। हमें डर लगता है कि अगर हम निमित्त  मात्र हुए और हमने कहा कि अब हम कर्ता नहीं हैं, तो हम अभी चोरी पर निकल जाएंगे।

मैंने सुना है कि एक दफ्तर में एक मैनेजर को एक बुद्धिमानी की बात सूझी,  उसने अपने दफ्तर में एक तख्ती लगा दी। लोग काम नहीं करते थे, टालते थे, पोस्टपोन करते थे, तो उसने एक तख्ती लगा दी। एक वचन किसी संत का लगा दिया। लगा दिया काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। जो कल करना चाहता था, वह आज कर, जो आज करना चाहता था, वह अभी कर, क्योंकि समय का कोई भरोसा नहीं है कि कल आएगा कि नहीं आएगा।

सात दिन बाद उसके मित्रों ने पूछा, तख्ती का क्या परिणाम हुआ? उसने कहा, बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। मेरा सेक्रेटरी टाइपिस्ट को लेकर भाग गया। एकाउंटेंट सारा पैसा लेकर नदारत हो गया। सब गड़बड़ हो गई है। पत्नी का सात दिन से कोई पता नहीं चल रहा है, चपरासी के साथ भाग गई है। दफ्तर में अकेला ही रह गया हूं। क्योंकि उन लोगों ने, जो-जो उन्हें कल करना था, आज ही कर लिया है, और जो आज करना था, वह अभी कर लिया है।

हमें भी ऐसा लगता है कि अगर हम परमात्मा पर सब छोड़ दें, तो फिर तो छूट मिल जाएगी। फिर तो हमें जो भी करना है, वह हम अभी कर लेंगे। ही, अगर उसको करने के लिए ही निमित्त बन रहे हैं, अगर उसे करने के लिए ही परमात्मा को कर्ता बना रहे हैं, तो जरूर ऐसा हो जाएगा।

लेकिन जो कुछ करने के लिए निमित्त बन रहा है, वह निमित्त बन ही नहीं रहा है। और जो कुछ करने के लिए परमात्मा को कर्ता बना रहा है, वह परमात्मा को कर्ता बना ही नहीं रहा है। योजना तो उसकी अपनी ही है, अहंकार तो अपना ही है, परमात्मा का भी शोषण करना चाह रहा है।

गीतादर्शन

ओशो 

क्षत्रिय बहिर्मुखता का प्रतीक है, ब्राह्मण अंतर्मुखता का प्रतीक है। फिर शूद्र और वैश्य किस कोटि में हैं?

अंतर्मुखता अगर पूरी खिल जाए, तो ब्राह्मण फलित होता है; अंतर्मुखता अगर खिले ही नहीं, तो शूद्र फलित होता है। बहिर्मुखता पूरी खिल जाए, तो क्षत्रिय फलित होता है, बहिर्मुखता खिले ही नहीं, तो वैश्य फलित होता है। इसे ऐसा समझें। एक रेंज है अंतर्मुखी का, एक श्रृंखला है, एक सीढ़ी है। अंतर्मुखता की सीढ़ी के पहले पायदान पर जो खड़ा है, वह शूद्र है, और अंतिम पायदान पर जो खड़ा है, वह ब्राह्मण है। बहिर्मुखता भी एक सीढ़ी है। उसके प्रथम पायदान पर जो खड़ा है, वह वैश्य है, और उसके अंतिम पायदान पर जो खड़ा है, वह क्षत्रिय है।
यहां जन्म से क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की मैं बात नहीं कर रहा हूं। मैं व्यक्तियों के टाइप की बात कर रहा हूं। ब्राह्मणों में शूद्र पैदा होते हैं, शूद्रों में ब्राह्मण पैदा होते हैं। क्षत्रियों में वैश्य पैदा हो जाते हैं, वैश्यों में क्षत्रिय पैदा हो जाते हैं।


 यहां मैं जन्मजात वर्ण की बात नहीं कर रहा हूं। यहां मैं वर्ण के मनोवैज्ञानिक तथ्य की बात कर रहा हूं।


इसलिए यह भी ध्यान में रखने जैसा है कि ब्राह्मण जब भी नाराज होगा किसी पर, तो कहेगा, शूद्र है तू! और क्षत्रिय जब भी नाराज होगा, तो कहेगा, बनिया है तू! कभी सोचा है? क्षत्रिय की कल्पना में बनिया होना नीचे से नीची बात है। ब्राह्मण की कल्पना में शूद्र होना नीचे से नीची बात है। क्षत्रिय की कल्पना अपनी ही बहिर्मुखता में जो निम्नतम सीढ़ी देखती है, वह वैश्य की है। इसलिए अगर क्षत्रिय पतित हो तो वैश्य हो जाता है, और अगर वैश्य विकसित हो तो क्षत्रिय हो जाता है।

इसकी बहुत घटनाएं घटीं। और कभीकभी जब कोई व्यक्ति समझ नहीं पाता अपने टाइप को, अपने व्यक्तित्व को, अपने स्वधर्म को, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। महावीर क्षत्रिय घर में पैदा हुए, लेकिन वे व्यक्ति अंतर्मुखी थे और उनकी यात्रा ब्राह्मण की थी। बुद्ध क्षत्रिय घर में पैदा हुए, लेकिन वे व्यक्ति ब्राह्मण थे और उनकी यात्रा ब्राह्मण की थी। इसलिए बुद्ध ने बहुत जगह कहा है कि मुझसे बड़ा ब्राह्मण और कोई भी नहीं है। लेकिन बुद्ध ने ब्राह्मण की परिभाषा और की है। बुद्ध ने कहा, जो ब्रह्म को जाने, वह ब्राह्मण है।

मेरे देखे, जन्म से सारे लोग दो तरह के होते हैं - शूद्र और वैश्य। उपलब्धि से, एचीवमेंट से दो तरह के हो जाते हैं -ब्राह्मण और क्षत्रिय। जो विकसित नहीं हो पाते, वे पिछली दो कोटियों में रह जाते हैं। वर्ण तो दो ही हैं।
अगर सारे लोग विकसित हों, तो जगत में दो ही वर्ण होंगे— बहिर्मुखी और अंतर्मुखी। लेकिन जो विकसित नहीं हो पाते, वे भी दो वर्ण निर्मित कर जाते हैं। इसलिए चार वर्ण निर्मित हुए : दो, जो विकसित हो जाते हैं; दो, जो विकसित नहीं हो पाते और पीछे छूट जाते हैं।

क्षत्रिय की आकांक्षा शक्ति की आकांक्षा है, ब्राह्मण की आकांक्षा शाति की आकांक्षा है। क्षत्रिय की आकांक्षा शक्ति की है। और अगर क्षत्रिय न हो पाए कोई वैश्य रह जाए। तो बहुत भयभीत, डरा हुआ, कायर व्यक्तित्व होता है वैश्य का, लेकिन बीज उसके पास क्षत्रिय के हैं, इसलिए शक्ति की आकांक्षा भी नहीं छूटती। लेकिन क्षत्रिय होकर शक्ति को पा भी नहीं सकता। इसलिए वैश्य फिर धन के द्वारा शक्ति को खोजता है। वह धन के द्वारा शक्ति को निर्मित करने की कोशिश करता है। लड़ तो नहीं सकता, युद्ध के मैदान पर नहीं हो सकता, हाथ में तलवार नहीं ले सकता, लेकिन तिजोरी तो ली जा सकती है और तलवारें खरीदी जा सकती हैं। इसलिए इनडाइरेक्टली धन की आकांक्षा, शक्ति की आकांक्षा है-परोक्ष, पीछे के रास्ते से, भयभीत रास्ते से।

यह मैं जो कह रहा हूं वह इसलिए कह रहा हूं ताकि यह खयाल आ सके कि भारत की वर्ण की धारणा के पीछे बड़े मनोवैज्ञानिक खयाल थे। मनोवैज्ञानिक खयाल यह था कि प्रत्येक व्यक्ति ठीक से पहचान ले कि उसका टाइप क्या है, ताकि उसकी आगे जीवन की यात्रा व्यर्थ यहां—वहा न भटक जाए; वह यहां—वहां न डोल जाए। वह समझ ले कि वह अंतर्मुखी है कि बहिर्मुखी है, और उस यात्रा पर चुपचाप निकल जाए। एक क्षण भी खोने के योग्य नहीं है। और जीवन का अवसर एक बार खोया जाए, तो न मालूम कितने जन्मों के लिए खो जाता है। व्यक्तित्व ठीक से साधना में उतरे, यह जरूरी है।
 
इसलिए मैंने कहा, अगर आप बहिर्मुखी हैं, तो या तो आप वैश्य हो सकते हैं या क्षत्रिय हो सकते हैं। अंतर्मुखी हैं, तो या शूद्र हो सकते हैं या ब्राह्मण हो सकते हैं। ये पोलेरिटीज हैं, ये ध्रुवताएं हैं। लेकिन शूद्र होना तो प्रकृति से ही हो जाता है, ब्राह्मण होना उपलब्धि है। वैश्य होना प्रकृति से ही हो जाता है, क्षत्रिय होना उपलब्धि है।

गीता दर्शन

ओशो 



 

कर्म नहीं मिटा डालना, कर्ता को विदा कर देना है

कभी आपने सोचा है कि जब मेरा मरता है, तो पीड़ा क्यों होती है? क्या इसलिए पीडा होती है कि जो मेरा था, वह मर गया! या इसलिए पीड़ा होती है कि मेरा होने की वजह से मेरे मैं का एक हिस्सा था, जो मर गया! ठीक से समझेंगे, तो किसी दूसरे के मरने से किसी को कभी कोई पीड़ा नहीं होती है। लेकिन मेरा है, तो पीड़ा होती है। क्योंकि जब भी मेरा कोई मरता है, तो मेरे ईगो का एक हिस्सा, मेरे अहंकार का एक हिस्सा बिखर जाता है भीतर, जो मैंने उसके सहारे सम्हाला था।

इसीलिए तो हम मेरे को बढ़ाते हैं-मेरा मकान हो, मेरी जमीन हो, मेरा राज्य हो, मेरा पद हो, मेरी पदवी हो, मेरा ज्ञान हो, मेरे मित्र हों-जितना मेरा मेरे का विस्तार होता है, उतना मेरा मैं मजबूत और बीच में सघन होकर सिंहासन पर बैठ जाता है। अगर मेरा सब विदा हो जाए, तो मेरे मैं को खड़े होने के लिए कोई सहारा न रह जाएगा और वह भूमि पर गिरकर टूट जाएगा, बिखर जाएगा। अर्जुन की पीडा क्या है? अर्जुन की पीड़ा यह है कि सब मेरे है। इसलिए वह बार बार कहता है कि जिनके लिए राज्य जीता जाता है, जिनके लिए धन कमाया जाता है, जिनके लिए यश की कामना की जाती है, वे सब मेरे मर जाएंगे युद्ध में, तो मैं इस राज्य का, इस धन का, इस साम्राज्य का, इस वैभव को पाकर करूंगा भी क्या? जब मेरे ही मर जाएंगे!

लेकिन उसे भी साफ नहीं है कि मेरे के मरने का इतना डर मैं के मरने का डर है। जब पत्नी मरती है, तो पति भी एक हिस्सा मर जाता है। उतना ही जितना जुड़ा था, उतना ही जितना पत्नी उसके भीतर प्रवेश कर गई थी और उसके मैं का हिस्सा बन गई थी। एकदम से खयाल में नहीं आता कि हम सब एक दूसरे से अपने मैं के लिए भोजन जुटाते हैं।

एक बच्चा हो रहा है एक मां को। एक स्त्री को बच्चा हो रहा है। जिस दिन बच्चा पैदा होता है, उस दिन अकेला बच्चा ही पैदा नहीं होता है, उस दिन मां भी पैदा होती है। उसके पहले सिर्फ स्त्री है, बच्चे के जन्म के बाद वह मां है। यह जो मां होना उसमें आया, यह बच्चे के होने से आया है। अब उसके मैं में मां होना भी जुड़ गया। कल यह बच्चा मर जाए, तो उसका मां होना फिर मरेगा,।, अब उसके मैं से फिर मां होना गिरेगा। बच्चे का मरना नहीं! अखरता, गहरे में अखरता है, मेरे भीतर कुछ मरता है, मेरे मैं की! कोई संपदा छिनती है, मेरे मैं का कोई आधार टूटता है।

उपनिषदों ने कहा है, कोई किसी दूसरे के लिए दुखी नहीं होता, सब अपने लिए दुखी होते हैं। कोई किसी दूसरे के लिए आनंदित नहीं होता, सब अपने लिए आनंदित होते हैं। कोई किसी दूसरे के लिए जीता नहीं, सब अपने मैं के लिए जीते हैं। हा, जिनजिन से हमारे मैं को सहारा मिलता है, वे अपने मालूम पड़ते हैं; और जिनजिन से हमारे मैं को विरोध मिलता है, वे पराए मालूम पड़ते हैं। जो मेरे मैं को आसरा देते हैं, वे मित्र हो जाते हैं, और जो मेरे मैं को खंडित करना चाहते हैं, वे शत्रु हो जाते हैं।

इसलिए जिसका मैं गिर जाता है, उसका मित्र और शत्रु भी पृथ्वी से विदा हो जाता है। उसका फिर कोई मित्र नहीं और फिर कोई शत्रु नहीं। क्योंकि शत्रु और मित्र सभी मैं के आधार पर निर्मित होते हैं। यह जो कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि कर्म से भागने का कोई उपाय नहीं, मनुष्य परवश है, कर्म तो करना ही होगा, क्योंकि कर्म जीवन है। इस पर इतना जोर इसीलिए दे रहे हैं कि अर्जुन को दिखाई पड़ जाए कि बदलाहट, असली म्‍यूटेशन, असली क्रांति कर्म में नहीं, कर्ता में करनी है। कर्म नहीं मिटा डालना, कर्ता को विदा कर देना है। वह भीतर से कर्ता विदा हो जाए, तो कर्म चलता रहेगा, लेकिन तब, तब कर्म परमात्मा के हाथ में समर्पित होकर चलता है। तब मेरा कोई भी दायित्व, तब मेरा कोई भी बोझ नहीं रह जाता।

गीतादर्शन

ओशो 

मैं का भाव

पूरब ने संन्यासी के रास्ते से कर्मत्याग की कोशिश की है और असफल हुआ है। कृष्ण की बात नहीं सुनी गई। पश्चिम ने दूसरे ढंग से कर्म को छोड़ने की कोशिश की है और वह यह है कि यदि यंत्र सारे काम कर दें, तो आदमी कर्म से मुका हो जाए! अगर सारा काम यंत्र कर सके, तो आदमी काम से मुका हो जाए, कर्म से मुका हो जाए, तो परम आनंद को उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन पश्चिम दूसरी मुश्किल में पड़ गया है। और वह मुश्किल यह है कि जितना कम काम आदमी के हाथ में है, उतना आदमी ज्यादा उपद्रव हाथ में लेता चला जा रहा है। वह जो कर्म की ऊर्जा है, वह प्रकट होना मांगती है। वह कर्म की ऊर्जा कहीं से प्रकट होगी।

इसलिए पश्चिम में छुट्टी के दिन ज्यादा दुर्घटनाएं होंगी, ज्यादा हत्याएं होंगी, ज्यादा चोरिया होंगी, ज्यादा बलात्कार होंगे। क्योंकि छुट्टी के दिन कर्म की ऊर्जा क्या करे? अगर एक महीने के लिए पूरी छुट्टी दे दी जाए पश्चिम को, तो सारी सभ्यता एक महीने में ‘ नष्ट हो जाएगी और नीचे गिर जाएगी।

इसलिए पश्चिम के विचारक अब परेशान हैं कि आज नहीं कल यंत्र के हाथ में सारा काम चला जाएगा, फिर हम आदमी को कौनसा काम देंगे! और अगर आदमी को काम न मिला, तो आदमी कुछ तो करेगा ही , और वह कुछ खतरनाक हो सकता है; ‘ अगर वह काम का न हुआ, तो आत्मघाती हो सकता है।

कृष्ण की बात पश्चिम में भी नहीं सुनी गई। असल में कृष्ण की बात किसी ने भी नहीं सुनी कि कर्म से छुटकारा नहीं है, क्योंकि जीवन और कर्म एक ही चीज के दो नाम हैं। सिर्फ एक बात हो सकती है। इसका यह मतलब नहीं है कि हम जैसे जी रहे हैं और जो कर रहे हैं, वैसे ही जीते रहें और वैसे ही करते चले जाएं। अगर ऐसा कोई समझता है, तो उसे भी कृष्‍ण की बात सुनाई नहीं पड़ी।

कृष्ण यह कह रहे हैं कि कर्म को बदलने की उतनी फिक्र मत करो, कर्ता को बदलने की फिक्र करो। असली सवाल यह नहीं है कि क्या तुम कर रहे हो, क्या नहीं कर रहे हो! असली सवाल यह है कि तुम क्या हो और क्या नहीं हो! असली सवाल डूइंग का नहीं, बीइंग का है। असली सवाल यह है कि भीतर तुम क्या हो! अगर तुम भीतर गलत हो, तो तुम जो भी करोगे, उससे गलत फलित होगा। और अगर तुम भीतर सही हो, तो तुम जो भी करोगे, उससे सही फलित होगा।

कर्म का प्रश्न नहीं है। वह भीतर जो व्यक्ति है, चेतना है, आत्मा है, कर्म उससे ही निकलते हैं, उससे ही फलते फूलते हैं। उस चेतना, उस आत्मा का सवाल है। और वह आत्मा बीमार है एक बहुत बड़ी बीमारी से। लेकिन वह बड़ी बीमारी, हमें लगता है कि हमारा बडा स्वास्थ्य है। वह आत्मा बीमार है मैं के भाव से, ईगोइज्म से। मैं हूं-यही आत्मा की बीमारी है।

गीता दर्शन

ओशो 



भाषा द्वंद्व से भरी है

प्रभु मंदिर की यात्रा सत्य के लिए वैसे ही कठिन है, उसे कहना मुश्किल है। जो अनुभव उस यात्रा पथ पर होते हैं, शब्दों में डालते ही झूठे हो जाते हैं। क्योंकि शब्द बहुत छोटा है, अनुभव बहुत विराट है। जैसे कोई अपनी मुट्ठी में आकाश को भरने की कोशिश करे और असफल हो जाए, वैसा ही सत्य को शब्द में ढालने में असफलता मिलती है। शून्य से कहा जा सकता है, शब्द से नहीं कहा जा सकता। मौन में तो शायद मुखरित भी हो सके, लेकिन वाणी से अवरुद्ध हो जाता है। यह तो यात्रा पथ की बात है। लेकिन मंदिर के द्वार पर जब खड़ा हो जाता है साधक, तब तो शब्द बिलकुल ही कठिनाई में डाल देते हैं। क्योंकि मंदिर के द्वार का अर्थ है. द्वंद्व का हुआ अंत!

और हमारी सारी भाषा ही द्वंद्व से निर्मित है। हमारी भाषा में विपरीत का होना जरूरी है। अगर हम अंधेरे का अर्थ समझ पाते हैं, तो सिर्फ इसीलिए कि प्रकाश है, नहीं तो अंधेरे का अर्थ खो जाए। अगर कोई अंधेरे की परिभाषा पूछे, तो क्या कहिएगा? यही कहिएगा न, कि प्रकाश का न होना। अंधेरे की परिभाषा में प्रकाश को लाना पड़े, बड़ी मजबूरी है! और, और भी मजबूरी तो तब पता चलती है, जब कोई पूछ ले कि प्रकाश की परिभाषा क्या है? तो आप को कहना पड़ता है अंधेरे का न होना! यह तो बड़ा जाल हो गया। अंधेरे की परिभाषा में प्रकाश को लाना पड़ता है। प्रकाश की परिभाषा में अंधेरे को लाना पड़ता है! दोनों एकदूसरे पर निर्भर मालूम पड़ते हैं। और दोनों अलग अलग अस्तित्व में नहीं हो सकते, उनकी परिभाषा तक नहीं हो सकती।

भाषा द्वंद्व से भरी है, क्योंकि भाषा द्वंद्व जगत के लिए निर्मित हुई है। यहां जन्म का अर्थ मृत्यु में छिपा है। उलटी दिखाई पड़ने वाली मृत्यु में जन्म का सारा अर्थ छिपा है! यहां प्रेम का अर्थ भी घृणा में छिपा है। और घृणा अगर संसार से मिट जाए, तो प्रेम मिट जाए।

साधनासूत्र

ओशो 

मैंने देखा कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर में दो गुल्लक रखे हुए है।


 मैंने पूछा यह किसलिए? तो वह कहता है कि मैं एक में असली सिक्के डालता हूं, दूसरे में नकली सिक्के। हर साल खोलता हूं। तो मैंने कहा, अब की बार तुम जब खोलो तो मैं मौजूद रहूंगा। उसने खोला, गुल्लक तोड़े, तो सब सिक्के जिसमें वह नकली सिक्के डालता, उसी गुल्लक में निकले। असली सिक्केवाला गुल्लक तो खाली निकला। मैंने कहा, मामला क्या है? क्या सभी सिक्के नकली हैं? उसने कहा कि जो हमने नहीं ढाला वह असली कैसे हो सकता है? अगर ये ही सिक्के मैंने ढाले होते अपने घर में, तो सब असली गुल्लक में होते। दूसरों के ढाले सिक्के असली हो कैसे सकते हैं? सब नकली हैं।

दूसरे जो कहते हैं, दूसरों के कहने के कारण ही तुम कहने लगते हो असत्य। तुम जो कहते हो, तुम्हारे कहने के कारण ही कहने लगते हो सत्य।

सत्य की यह पूजा न हुई। सत्य का तो यह बहुत अपमान हुआ। सत्य तुमसे बड़ा है। तुम सत्य से बड़े होने की चेष्टा करोगे, मिथ्यात्व होगा।

तुम जैन घर में पैदा हुए तो तुम कहते हो, जैन धर्म सही है। तुम अगर हिंदू घर में पैदा होते तो यही तुम हिंदू धर्म के संबंध में कहते। तुम अगर मुसलमान घर में पैदा होते तो यही तुम इस्लाम के संबंध में कहते।
तो न तो तुम्हें इस्लाम से कुछ मतलब है, न जैन से, न हिंदू से। तुम जहां पैदा हुए वहीं सत्य को भी पैदा होना चाहिए। जैसे तुम्हारे होने में सत्य का कोई ठेका है!






भोजन करते हुए या पानी पीते हुए भोजन या पानी का स्वाद ही बन जाओ और उससे भर जाओ।

म खाते रहते हैं, हम खाए बगैर नहीं रह सकते। लेकिन हम बहुत बेहोशी में भोजन करते हैं-यंत्रवत। और अगर स्वाद न लिया जाए तो तुम सिर्फ पेट को भर रहे हो।

तो धीरे धीरे भोजन करो, स्वाद लेकर करो और स्वाद के प्रति सजग रही। और स्वाद के प्रति सजग होने के लिए धीरे धीरे भोजन करना बहुत जरूरी है। तुम भोजन को बस निगलते मत जाओ। आहिस्ते आहिस्ते उसका स्वाद लो और स्वाद ही बन जाओ। जब तुम मिठास अनुभव करो तो मिठास ही बन जाओ। और तब वह मिठास सिर्फ मुंह में नहीं, सिर्फ जीभ में नहीं, पूरे शरीर में अनुभव की जा सकती है। वह सचमुच पूरे शरीर पर फैल जाएगा। तुम्हें लगेगा कि मिठास या कोई भी चीज लहर की तरह फैलती जा रही है। इसलिए तुम जो कुछ खाओ, उसे स्वाद लेकर खाओ और स्वाद ही बन जाओ।

यहीं तंत्र दूसरी परंपराओं से सर्वथा भिन्न और विपरीत मालूम पड़ता है। जैन अस्वाद की बात करते हैं। महात्मा गांधी ने तो अपने आश्रम में अस्वाद को एक नियम बना रखा था। नियम है कि खाओ, लेकिन स्वाद के लिए मत खाओ। स्वाद मत लो, स्वाद को भूल जाओ। वे कहते हैं कि भोजन आवश्यक है, लेकिन यंत्रवत भोजन करो। स्वाद वासना है, स्वाद मत लो। तंत्र कहता है कि जितना स्वाद ले सकी उतना स्वाद लो। ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील बनो, जीवंत बनो। इतना ही नहीं कि संवेदनशील बनो, स्वाद ही बन जाओ। अस्वाद से तुम्हारी इंद्रियां मर जाएंगी, उनकी संवेदनशीलता जाती रहेगी। और संवेदनशीलता के मिटने से तुम अपने शरीर को, अपने भावों को अनुभव करने में असमर्थ हो जाओगे। और तब फिर तुम अपने सिर में केंद्रित होकर रह जाओगे। और सिर में केंद्रित होना विभाजित होना है।

पानी पीते हुए पानी का ठंडापन अनुभव करो। आंखें बंद कर लो, धीरेधीरे पानी पीओ और उसका स्वाद लो। पानी की शीतलता को महसूस करो और महसूस करो कि तुम शीतलता ही बन गए हो। जब तुम पानी पीते हो तो पानी की शीतलता तुममें प्रवेश करती है, तुम्हारा अंग बन जाती है। तुम्हारा मुंह शीतलता को छूता है, तुम्हारी जीभ उसे छूती है और ऐसे वह तुम में प्रविष्ट हो जाती है। उसे तुम्हारे पूरे शरीर में प्रविष्ट होने दो। उसकी लहरों को फैलने दो और तुम अपने पूरे शरीर में यह शीतलता महसूस करोगे। इस भांति तुम्हारी संवेदनशीलता बढ़ेगी, विकसित होगी और तुम ज्यादा जीवंत, ज्यादा भरे पूरे हो जाओगे।

हम हताश, रिक्त और खाली अनुभव करते हैं। और हम कहते हैं कि जीवन रिक्त है। लेकिन जीवन के रिक्त होने का कारण हम स्वयं हैं। हम जीवन को भरते नहीं हैं। हम उसे भरने नहीं देते हैं। हमने अपने चारों ओर एक कवच लगा रखा है- सुरक्षाकवच। हम वलनरेबल होने से, खुले रहने से डरते हैं। हम अपने को हर चीज से बचाकर रखते हैं। और तब हम कब बन जाते हैं-मृत लाशें।

तंत्र कहता है जीवंत बनो, क्योंकि जीवन ही परमात्मा है। जीवन के अतिरिक्त कोई परमात्मा नहीं है। तुम जितने जीवंत होगे उतने ही परमात्मा होगे। और जब समग्रत: जीवंत होगे तो तुम्हारे लिए कोई मृत्यु नहीं है।

 तंत्र सूत्र

ओशो 

 

काम आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।



इसी में सारा फर्क, सारा भेद निहित है। तुम्हारे लिए काम-कृत्य, संभोग महज राहत का, अपने को तनाव-मुक्त करने का उपाय है। इसलिए जब तुम संभोग में उतरते हो तो तुम्हें बहुत जल्दी रहती है, तुम किसी तरह छुटकारा चाहते हो। छुटकारा यह कि जो ऊर्जा का अतिरेक तुम्हें पीड़ित किए है वह निकल जाए और तुम चैन अनुभव करो। लेकिन यह चैन एक तरह की दुर्बलता है। ऊर्जा की अधिकता तनाव पैदा करती है, उत्तेजना पैदा करती है और तुम्हें लगता है कि उसे फेंकना जरूरी है। जब वह ऊर्जा बह जाती है तो तुम कमजोरी अनुभव करते हो और तुम उसी कमजोरी को विश्राम मान लेते हो। क्योंकि ऊर्जा की बाढ़ समाप्त हो गई, उत्तेजना जाती रही, इसीलिए तुम्हें विश्राम मालूम पड़ता है।

लेकिन यह विश्राम नकारात्मक विश्राम है। अगर सिर्फ ऊर्जा को बाहर फेंककर तुम विश्राम प्राप्त करते हो तो यह विश्राम बहुत महंगा है। और तो भी वह सिर्फ शारीरिक विश्राम होगा। वह गहरा नहीं होगा, वह आध्यात्मिक नहीं होगा।  यह पहला सूत्र कहता है कि जल्दबाजी मत करो और अंत के लिए उतावले मत बनो, आरंभ में बने रहो। काम-कृत्य के दो भाग हैं. आरंभ और अंत। तुम आरंभ के साथ रहो। आरंभ का भाग ज्यादा विश्रामपूर्ण है, ज्यादा उष्ण है। लेकिन अंत पर पहुंचने की जल्दी मत करो। अंत को बिलकुल भूल जाओ। ‘काम-आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो।’

आरंभ के साथ रहो, अंत की फिक्र मत करो। इस आरंभ में कैसे रहा जाए? इस संबंध में बहुत सी बातें खयाल में लेने जैसी हैं। पहली बात कि काम-कृत्य को कहीं जाने का, पहुंचने का माध्यम मत बनाओ। संभोग को साधन की तरह मत लो, वह अपने आप में साध्य है। उसका कहीं लक्ष्य नहीं है, वह साधन नहीं है। और दूसरी बात कि भविष्य की चिंता मत लो, वर्तमान में रहो। अगर तुम संभोग के आरंभिक भाग में वर्तमान में नहीं रह सकते, तब तुम कभी वर्तमान में नहीं रह सकते, क्योंकि काम-कृत्य की प्रकृति ही ऐसी है कि तुम वर्तमान में फेंक दिए जाते हो।

तो वर्तमान में रही। दो शरीरों के मिलन का सुख लो, दो आत्माओं के मिलन का आनंद लो। और एक-दूसरे में खो जाओ, एक हो जाओ। भूल जाओ कि तुम्हें कहीं जाना है। वर्तमान क्षण में जीओ, जहां से कहीं जाना नहीं है। और एक-दूसरे में मिलकर एक हो जाओ। उष्णता और प्रेम वह स्थिति बनाते हैं जिसमें दो व्यक्ति एक-दूसरे में पिघलकर खो जाते हैं। यही कारण है कि यदि प्रेम न हो तो संभोग जल्दबाजी का काम हो जाता है। तब तुम दूसरे का उपयोग कर रहे हो, दूसरे में डूब नहीं रहे हो। प्रेम के साथ तुम दूसरे में डूब सकते हो।

तंत्र तुम्हें उच्चतर विश्राम का आयाम प्रदान करता है। प्रेमी और प्रेमिका एक—दूसरे में विलीन होकर एक—दूसरे को शक्ति प्रदान करते हैं। तब वे एक वर्तुल बन जाते हैं और उनकी ऊर्जा वर्तुल में घूमने लगती है। वे दोनों एकदूसरे को जीवनऊर्जा दे रहे हैं, नवजीवन दे रहे हैं। इसमें ऊर्जा का हास नहीं होता है, वरन उसकी वृद्धि होती है। क्योंकि विपरीत यौन के साथ संपर्क के द्वारा तुम्हारा प्रत्येक कोश ऊर्जा से भर जाता है, उसे चुनौती मिलती है।

और अगर तुम उस ऊर्जा के प्रवाह में, उसे शिखर तक पहुंचाए बिना, विलीन हो सके; अगर तुम कामआलिंगन के आरंभ के साथ, उत्तप्त हुए बिना सिर्फ उसकी उष्णता के साथ रह सके तो वे दोनों उष्णताएं मिल जाएंगी और तुम कामकृत्य को बहुत लंबे समय तक जारी रख सकते हो।

यदि सख्‍लन न हो, यदि ऊर्जा को फेंका न जाए तो संभोग ध्यान बन जाता है और तुम पूर्ण हो जाते हो। इसके द्वारा तुम्हारा विभाजित व्यक्तित्व अविभाजित हो जाता है, अखंड हो जाता है। चित्त की सब रुग्णता इस विभाजन से पैदा होती है। और जब तुम जुड़ते हो, अखंड होते हो तो तुम फिर बच्चे हो जाते हो, निर्दोष हो जाते हो।

और एक बार अगर तुम इस निर्दोषिता को उपलब्ध हो गए तो फिर तुम अपने समाज में उसकी जरूरत के अनुसार जैसा चाहो वैसा व्यवहार कर सकते हो। लेकिन तब तुम्हारा यह व्यवहार महज अभिनय होगा, तुम उससे ग्रस्त नहीं होगे। तब यह एक जरूरत है जिसे तुम पूरा कर रहे हो। तब तुम उसमें नहीं हो, तुम मात्र अभिनय कर रहे हो। तुम्हें झूठा चेहरा लगाना होगा, क्योंकि तुम एक झूठे संसार में रहते हो। अन्यथा संसार तुम्हें कुचल देगा, मार डालेगा।

तंत्र सूत्र

ओशो 


Thursday, August 20, 2015

पानी पर लकीर

हम अभी जी रहे हैं छाया में। वह जो परिवर्तनशील है, उसमें हम जी रहे हैं। जीवन हमारे पास अभी है, लेकिन क्षणभंगुर है; जो अभी है और नहीं हो जाएगा। जितनी देर कहने में लगती है, उतनी देर में भी हो सकता है, नहीं हो गया। जैसे कोई रेत के मकान बनाता हो या कोई ताश के घर बनाता हो, ऐसा हमारा जीवन है–क्षणभंगुर से बंधा।

सोचें, जहां-जहां आप पाते हैं कि आपका रस है, वहां-वहां क्या है? वहां कुछ है जो क्षणभंगुर है। धन को कोई पकड़ रहा है, बहुत रस है धन में। कितना धन पकड़ सकते हैं? धन का क्या शाश्वत मूल्य है? धन का क्या सनातन मूल्य है? और अगर एक रेगिस्तान में पड़े हों और धन का ढेर भी आपके पास हो, तो एक चुल्लू पानी भी उससे नहीं मिल सकेगा। उसका कोई वास्तविक मूल्य भी नहीं है। उसका मूल्य काल्पनिक है, और समझौते पर निर्भर है।

सुना है मैंने एक फकीर एक सम्राट से कह रहा था, तूने बहुत धन इकट्ठा कर लिया, लेकिन अगर मरुस्थल में तू प्यासा मरता हो, तो एक गिलास पानी के लिए इसमें से कितना मूल्य दे सकेगा? उस सम्राट ने कहा, अगर मर ही रहा हूं, तो सारा साम्राज्य भी दे दूंगा एक गिलास पानी के लिए। तो जिस साम्राज्य का मूल्य एक गिलास पानी में भी चुकाना पड़ सकता हो, उसमें मूल्य भी कितना होगा!

कोई रूप के लिए जी रहा है, सौंदर्य के लिए जी रहा है। पानी पर पड़ी लकीर जैसा है; अभी है और अभी नहीं हो जाएगा। और जिसे हम सुंदर पाते हैं आज, कल वह कुरूप हो जाएगा। और जिसे हम युवा पाते हैं।

समाधी के सप्तद्वार 

ओशो

दान का अर्थ हैः देने का भाव।


फिर देने की बात तो अपने आप उसमें से निकल आती है, पर देने का भाव मूल में है। और ध्यान रहे, देना उतना जरूरी नहीं, जितना देने का भाव जरूरी है। फिर देना तो उसके पीछे चला आता है। और कई बार हम दे भी देते हैं, लेकिन देने का भाव बिलकुल नहीं होता है। और तब दान झूठा होता है। हम देते हैं, लेकिन हम देते ही तभी हैं, जब हम कुछ देने के पीछे चाहते हैं। उसमें भी सौदा होता है। एक आदमी कुछ दान कर देता है, तो सोचता है कि धर्म या पुण्य होगा; तो सोचता है कि स्वर्ग मिलेगा, तो सोचता है कि परमात्मा इसके प्रत्युत्तर में कुछ देगा। लेने पर ही उसकी नजर है। देना अगर है भी तो सौदा है। तो फिर दान नहीं रहा।


दान का अर्थ हैः देने में आनंद।


देना ही आनंद है, उसके पास लेने का कोई भाव नहीं है। ऐसा नहीं कि नहीं मिलेगा, बहुत मिलेगा। सच तो यह है कि देने के भाव से ही जो देगा, बिना सौदा से देगा, उसे अनंत गुना मिलेगा। लेकिन यह अनंत गुना मिलना लय नहीं होना चाहिए। यह दृष्टि नहीं होनी चाहिए, यह हमारी वासना नहीं होनी चाहिए। यह सहज परिणाम है, जो घटित होता है।


सूरज निकलता है, फूल खिल जाते हैं। सूरज कोई फूलों को खिलाने के लिए नहीं निकलता है। और फूलों को खिलाने के लिए किसी दिन निकले, तो बहुत संदेह है कि फूल खिलें। और सूरज अगर एक-एक फूल को पकड़ कर खिलाने की कोशिश करे, तो बहुत मुश्किल में पड़ जाए, सांझ होते-होते सदा के लिए थक जाए। फूल खिलते हैं, ये सूरज के निकलने में ही खिल जाते हैं। दान में ही मिल जाता है सब कुछ। जो दिया है वह ना-कुछ है; जो मिलता है, वह बहुत है। लेकिन मिलने की धारणा अगर मन में हो, तो दान नहीं हो पाता। देना हो शुद्ध। और देना कब होता है शुद्ध? जब हमें देने में ही आनंद मिलता है।


दान का अर्थ हैः उदारता और प्रेम-देने का भाव।

समाधी के सप्तद्वार


ओशो 

क्रोध और काम

छोटे-छोटे बच्चे भी जानते हैं कि अगर माता और पिता में कोई झगड़ा हो गया है, तो आज उनकी पिटाई हो जाएगी। कोई भी कारण मिल जाएगा। वे उस दिन जरा मां से सचेत, दूर रहेंगे। ऐसा नहीं है, कल भी यही था। कल भी वे स्कूल से लौटे थे, तो किताब फट गई थी। और कल भी स्कूल से आए थे, तो कपड़े गंदे हो गए थे। और कल भी पड़ोस के गंदे लड़के के साथ खेल खेला था। कल पिटाई नहीं हुई थी; आज हो जाएगी। क्यों? कल सब कारण मौजूद थे, पिटाई नहीं हुई थी। आज भी वही कारण है, कोई फर्क नहीं पड़ गया है, लेकिन पिटाई हो जाएगी। क्योंकि मां तैयार है। कोई भी कारण खोजेगी।

क्रोध के कारण होते कम, खोजे ज्यादा जाते हैं। और हमारे भीतर क्रोध इकट्ठा होता रहता है पीरियाडिकल। अगर आप अपनी डायरी रखें, तो बहुत हैरान हो जाएंगे। आप डायरी रखें कि ठीक कल आपने कब क्रोध किया; परसों कब क्रोध किया। एक छः महीने की डायरी रखें और ग्राफ बनाएं। तब आप बहुत हैरान हो जाएंगे। आप प्रेडिक्ट कर सकते हैं कि कल कितने बजे आप क्रोध करेंगे। करीब-करीब पीरियाडिकल दौड़ता है। आप अपनी कामवासना की डायरी रखें, तो आप बराबर प्रेडिक्ट कर सकते हैं कि किस दिन, किस रात, आपके मन को कामवासना पकड़ लेगी।

शक्ति रोज इकट्ठी करते चले जाते हैं आप, फिर मौका पाकर वह फूटती है। अगर मौका न मिले, तो मौका बनाकर फूटती है। और अगर बिलकुल मौका न मिले, तो फ्रस्ट्रेशन में बदल जाती है। भीतर बड़े विषाद और पीड़ा में बदल जाती है।

क्रोध और काम हमारी स्थितियां हैं, घटनाएं नहीं। चौबीस घंटे हम उनके साथ हैं। इसे जो स्वीकार कर ले, उसकी जिंदगी में बदलाहट आ सकती है। जो ऐसा समझे कि कभी-कभी क्रोध होता है, वह अपने से बचाव कर रहा है। वह खुद को समझाने के लिए धोखेधड़ी के उपाय कर रहा है। जो स्वीकार कर ले, वह बच सकता है।

गीता दर्शन

ओशो 

मुझे एक घटना स्मरण आती है....

      एक साधु-चित्त व्यक्ति वर्षों से एक कारागृह के कैदियों को परिवर्तित करने के लिए श्रम में रत था। वर्षों से लगा था कि कारागृह के कैदी रूपांतरित हो जाएं, ट्रांसफार्म हो जाएं। कोई सफलता मिलती हुई दिखाई नहीं पड़ती थी। पर साधु वही है कि जहां असफलता भी हो, तो भी शुभ के लिए प्रयत्न करता रहे। उसने प्रयत्न जारी रखा था।

एक दिन चार बार सजा पाया हुआ व्यक्ति, चौथी बार सजा पूरी करके घर वापस लौट रहा है। साठ वर्ष उस अपराधी की उम्र हो गई। उस साधु ने उसे द्वार पर जेलखाने के विदा देते समय पूछा कि अब तुम्हारे क्या इरादे हैं? आगे की क्या योजना है? उस बूढ़े अपराधी ने कहा, अब दूर गांव में मेरी लड़की का एक बड़ा बगीचा है अंगूरों का। अब तो वहीं जाकर अंगूरों के उस बगीचे में ही मेहनत करनी है, विश्राम करना है।

साधु बहुत प्रसन्न हुआ, खुशी से नाचने लगा। उसने कहा कि मुझे कुछ दिन से लग रहा था, यू आर रिफाघमग; कुछ तुम्हारे भीतर बदल रहा है। उस कैदी ने चौंककर रहा, हू सेज एनीथिंग अबाउट रिफाघमग? आई एम जस्ट रिटायरिंग! किसने तुमसे कहा कि मैं बदल रहा हूं? मैं सिर्फ रिटायर हो रहा हूं। किसने कहा कि मैं बदल रहा हूं, मैं सिर्फ थक गया हूं और अब विश्राम को जा रहा हूं!

अर्जुन रिटायर होना चाहता था; कृष्ण रिफार्म करना चाहते हैं। अर्जुन चाहता था, सिर्फ बच निकले! कृष्ण उसकी पूरी जीवन ऊर्जा को नई दिशा दे देना चाहते हैं।

और दो ही प्रकार के मार्ग हैं जीवन ऊर्जा के लिए। एक तो मार्ग है कि हम अशांति के जालों को निर्मित करते चले जाएं, जैसा कि हम सब करते हैं। अशांति की भी अपनी विधि है। पागलपन की भी अपनी विधि होती है। बीमार होने के भी अपने उपाय होते हैं। चित्त को रुग्ण करना और विक्षिप्त करना भी बड़ा सुनियोजित काम है! पता नहीं चलता हमें, क्योंकि बचपन से जिस समाज में हम बड़े होते हैं, वहां चारों तरफ हमारे जैसे ही लोग हैं। जो भी हम करते हैं, बिना इस बात को सोचे-समझे कि जो भी हम कर रहे हैं, वह हमें भी बदल जाएगा।

कोई भी कृत्य करने वाले को अछूता नहीं छोड़ता है। विचार भी करने वाले को अछूता नहीं छोड़ता है। अगर आप घंटेभर बैठकर किसी की हत्या का विचार कर रहे हैं, माना कि अपने कोई हत्या नहीं की, घंटेभर बाद विचार के बाहर हो जाएंगे। लेकिन घंटेभर तक हत्या के विचार ने आपको पतित किया, आप नीचे गिरे। आपकी चेतना नीचे उतरी। और आपके लिए हत्या करना अब ज्यादा आसान होगा, जितना घंटेभर के पहले था। आपकी हत्या करने की संभावना विकसित हो गई। अगर आप मन में किसी पर क्रोध कर रहे हैं, नहीं किया क्रोध तो भी, तो भी आपके अशांत होने के बीज आपने बो दिए, जो कभी भी अंकुरित हो सकते हैं।

हमारी कठिनाई यही है कि मनुष्य की चेतना में जो बीज हम आज बोते हैं, कभी-कभी हम भूल ही जाते हैं कि हमने ये बीज बोए थे। जब उनके फल आते हैं, तो इतना फासला मालूम पड़ता है दोनों स्थितियों में कि हम कभी जोड़ नहीं पाते कि फल और बीज का कोई जोड़ है।

जो भी हमारे जीवन में घटित होता है, उसे हमने बोया है। हो सकता है, कितनी ही देर हो गई हो किसान को अनाज डाले, छः महीने बाद आया हो अंकुर, सालभर बाद आया हो अंकुर, लेकिन अंकुर बिना बीज के नहीं आता है।

हम अशांति को उपलब्ध होते चले जाते हैं। जितनी अशांति बढ़ती जाती है, उतना ही ब्रह्म से संबंध क्षीण मालूम पड़ता है; क्योंकि ब्रह्म से केवल वे ही संबंधित हो सकते हैं, जो परम शांत हैं। शांति ब्रह्म और स्वयं के बीच सेतु है। जैसे ही कोई शांत हुआ, वैसे ही ब्रह्म के साथ एक हुआ। जैसे ही अशांत हुआ कि मुंह मुड़ गया।

गीता दर्शन

ओशो 

‘’जब नींद अभी नहीं आयी हो और बाह्य जागरण विदा हो गया हो, उस मध्‍य बिंदू पर बोधपूर्ण रहने से आत्‍मा प्रकाशित होती है।‘’ - शिव

तुम्‍हारी चेतना में कई मोड़ आते है, मोड़ के बिंदु आते है। इन बिंदुओं पर तुम अन्‍य समयों की तुलना में अपने केंद्र के ज्‍यादा करीब होते हो। तुम कार चलाते समय गियर बदलते हो और गियर बदलते हुए तुम न्‍यूट्रल से गुजरते हो। यह न्‍यूट्रल गियर निकटतम है।

 सुबह जब नींद विदा हो रही होती है और तुम जागने लगते हो। लेकिन अभी जागे नहीं हो, ठीक उस मध्‍य बिंदु पर तुम न्‍यूट्रल गियर में होते हो। यह एक बिंदु है जहां तुम न सोए हो और न जागे हो, ठीक मध्‍य में हो; तब तुम न्‍यूट्रल गियर में हो। नींद से जागरण में आते समय तुम्‍हारी चेतना की पूरी व्‍यवस्‍था बदल जाती है। वह एक व्‍यवस्‍था से दूसरी व्‍यवस्‍था में छलांग लेती है। और इन दोनों के बीच में कोई व्‍यवस्‍था नहीं होती, एक अंतराल होता है। इस अंतराल में तुम्‍हें अपनी आत्‍मा की एक झलक मिल सकती है।

वही बात फिर रात में घटित होती है जब तुम अपनी जाग्रत व्‍यवस्‍था से नींद की व्‍यवस्‍था में, चेतन से अचेतन में छलांग लेते हो। तब फिर एक क्षण के लिए कोई व्‍यवस्‍था नहीं होती है। तुम पर किसी व्‍यवस्‍था की पकड़ नहीं होती है। क्‍योंकि तब तुम एक से दूसरी व्‍यवस्‍था में छलांग लेते हो। इन दोनों के मध्‍य में अगर तुम सजग रह सकें, बोधपूर्ण रह सके, इन दोनों के मध्‍य में अगर तुम अपना स्‍मरण रख सके, तो तुम्‍हें अपने सच्‍चे स्‍वरूप की झलक मिल जाएगी।

 तो इसके लिए क्‍या करें? नींद में उतरने के पहले विश्राम पूर्ण होओ और आंखे बंद कर लो। कमरे में अँधेरा कर लो। आंखे बंद कर लो। और बस प्रतीक्षा करो। नींद आ रही है। बस प्रतीक्ष करो। कुछ मत करो, बस प्रतीक्षा करो। तुम्‍हारा शरीर शिथिल हो रहा है। तुम्‍हारा शरीर भारी हो रहा है। बस शिथिलता को, भारीपन को महसूस करो। नींद की अपनी ही व्‍यवस्‍था है, वह काम करने लगती है। तुम्‍हारी जाग्रत चेतना विलीन हो रही है। इसे स्‍मरण रखो, क्‍योंकि वह क्षण बहुत सूक्ष्‍म है। वह क्षण परमाणु सा छोटा होता है। इस चूक गये तो चूक गये। वह कोई बड़ा अंतराल नहीं है। बहुत छोटा है। यह क्षण भर का अंतराल है, जिसमें तुम जागरण से नींद में प्रवेश कर जाते हो। तो बस पूरी सजगता से प्रतीक्षा करो। प्रतीक्षा किए जाओ।

इसमे थोड़ा समय लगेगा। कम से कम तीन महीने लगते है। तब एक दिन तुम्‍हें उस क्षण की झलक मिलेगी। जो ठीक बीच में है। तो जल्‍दी मत करो। यह अभी ही नहीं होगा, यह आज रात ही नहीं होगा। लेकिन तुम्‍हें शुरू करना है और महीनों प्रतीक्षा करनी है। साधारण: तीन महीने में किसी दिन यह घटित होगा। यह रोज ही घटित हो रहा है। लेकिन तुम्‍हारी सजगता और अंतराल का मिलन आयोजित नहीं किसा जा सकता। वह घटित हो ही रहा है। तुम प्रतीक्षा किए जाओ और किसी दिन वह घटित होगा। किसी दिन तुम्‍हें अचानक यह बोध होगा कि मैं न जागा हूं और न सोया हूं।

यह एक बहुत विचित्र अनुभव है, तुम उससे भयभीत भी हो सकते हो। अब तक तुमने दो ही अवस्‍थाएं जानी है। तुम्‍हें जागने का पता है, तुम्‍हें अपनी नींद का पता है। लेकिन तुम्हें यह नी पता है कि तुम्‍हारे भीतर एक तीसरा बिंदू भी है। जब तुम न जागे हो और सोये हो। इस बिंदू के प्रथम दर्शन पर तुम भयभीत भी हो सकते हो। आंतरिक भी हो सकते हो। भयभीत मत होओ। आतंरिक मत होओ। जो भी चीज इतनी नयी होगी। अनजानी होगी। वह जरूर भयभीत करेगी। क्‍योंकि यह क्षण जब तुम्‍हें इसका बार-बार अनुभव होगा। तुम्‍हें एक और एहसास देगा कि तुम न जीवित हो और नक मृत, कि तुम न यह हो और न वह। यह अतल खाई जैसा है।

 नींद और जागरण की व्‍यवस्‍थाएं दो पहाड़ियों की भांति है, तुम एक से दूसरे पर छलांग लगाते हो। लेकिन यदि तुम उसके मध्‍य में ठहर जाओ तो तुम अतल खाई में गिर जाओगे। और इस खाई का कहीं अंत नहीं है। तुम गिरते जाओगे। गिरते ही जाओगे।

विज्ञान भैरव तंत्र

ओशो

अपनी नींद में ध्‍यान कैसे करें

धीरे-धीरे ध्‍यान तुम्‍हारे संपूर्ण जीवन में व्‍याप्‍त हो जाना चाहिए। यहां तक की सोने के लिए जाते समय भी। बिस्‍तर पर लेटने पर कुछ ही मिनटों में तुम नींद की गोद में चले जाओगे।

इन कुछ मिनटों में मौन, अँधेरा और विश्रांत शरीर इनके संबंध में सजग रहो। जब तक पूरी तरह से नींद न आ जाए तब तक ऊँघते समय सजग रहो और तुमको आश्‍चर्य होगा। जब तक पूरी तरह नींद आती है तब तक के अंतिम क्षण तक यदि तुम ऐसा अभ्‍यास जारी रखते हो तो फिर सुबह में भी पहला विचार सजगता के संबंध में ही होगा। सोते समय जो तुम्‍हारा अंतिम विचार होगा वही सुबह में जागने पर पहला विचार होगा क्‍योंकि तुम्‍हारी नींद के दौरान यह अंतर-प्रवह के रूप में जारी रहता है।

ध्‍यान के लिए किसी के पास समय नहीं है-दिन में बहुत व्‍यस्‍तता रहती है। लेकिन रात के छह आठ घंटों को ध्‍यान में बदला जा सकता है। तुम पानी से नहाते हो। ऐसा तुम सजगता के साथ क्‍यों नहीं करते हो? रोबट की तरह यांत्रिक रूप से क्‍यों? तुम ऐसा हर रोज करते हो। इसलिए तुम करते जाते हो। और यह यंत्रवत हो जाता है। हर काम जीवंत होकर करो। धीरे-धीरे तुम्‍हारा संपूर्ण दिन, चौबीसों घंटे ध्‍यान से भर जाएगा। तभी तुम सही मार्ग पर हो। तब तुम्‍हें सफलता मिलने की पूरी गारंटी है।

रात को बत्‍ती बुझा दो, बिस्‍तर पर बैठ जाओ। और ‘ओ’ ध्‍वनि करते हुए मुंह से गहरी श्‍वास छोड़ो। पूरी तरह से श्‍वास छोड़ने के बार एक मिनट के रूक जाओ। न तो श्‍वास लो और न ही छोड़ो केवल रूक जाओ। इस ठहराव में तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो। श्‍वास भी नहीं ले रहे हो।

केवल एक क्षण के लिए उस ठहराव में रहो। और साक्षी बनो। देखो कि क्‍या हो रहा है। सजग रहो कि तुम कहां हो। उस ठहराव के एक क्षण में संपूर्ण परिस्‍थिति का साक्षी बनो। वहां समय नहीं रहता। क्‍योंकि समय श्‍वास के साथ चला जाता है। तुम श्‍वास लेते हो इसलिए तुम महसूस करते हो कि समय बीत रहा है। समय रूक गया है तो सब कुछ रूक गया है…उस ठहराव में तुम अपने अंतस और ऊर्जा के गहनत्म स्‍त्रोत के प्रति सजग हो सकते हो।

तब नाक से श्‍वास लो, श्‍वास लेने के लिए अतिरिक्‍त प्रयास मत करो। श्‍वास छोड़ने के लिए ही पूरा प्रयास करो। तुमने श्‍वास छोड़ दिया, फिर एक क्षण के लिए रूक जाओ, तब शरीर को श्‍वास लेने दो। तुम केवल शरीर पर ध्‍यान दो। और जब शरीर श्‍वास लेगा तब तुम अपने चारों और एक गहन मौन महसूस करोगे। क्‍योंकि तब तुम जानोंगे कि जीवन के लिए प्रयास करने की आवश्‍यकता नहीं है। जीवन स्‍वयं श्‍वास लेता है। जीवन स्‍वयं अपने तरीके से चलता है। यह एक नदी है। तुम इसमें अनावश्यक ही वेग उत्‍पन करने का प्रयास करते हो।


तुम देखोगें कि शरीर श्‍वास लेता है। इसमें तुम्‍हारे प्रयास की आवश्‍यकता नहीं है। इसमें तुम्‍हारे अहं की आवश्‍यकता नही, तुम्‍हारी आवश्‍यकता नहीं। तुम केवल एक साक्षी हो जाते हो। तुम केवल शरीर को श्‍वास लेते देखते हो। गहन मौन की अनुभूति होगी। शरीर में पूरी तरह श्‍वास भर जाने पर एक क्षण के लिए फिर से रूक जाओ। फिर गौर करो।

ये दोनों क्षण एक दूसरे से बिलकुल भिन्‍न है। जिन्‍होंने जीवन की आंतरिक प्रक्रिया को देखा है वे गहराई के साथ कहते है कि प्रत्‍येक बार श्‍वास लेने के साथ तुम जन्‍मते हो और प्रत्‍येक श्‍वास छोड़ने के साथ तुम मरते हो। प्रत्‍येक क्षण जन्‍म लेते हो। एक बार तुम जान लेते हो कि यह जीवन है और यह मृत्‍यु है। तब तुम इन दोनों से पार हो जाते हो। साक्षी होना न तो जीवन है और न ही मृत्‍यु। साक्षी न तो कभी जन्‍म लेता है और न ही कभी मरता है। केवल शरीर मरता है। केवल कायित संरचना समाप्‍त होती है।

इसी रात बीस मिनट तक इस ध्‍यान को करो और फिर सो जाओ। सुबह जब तुम महसूस करो कि नींद तुम्हें छोड़ कर चली गई है तब तुरंत अपनी आंखें मत खोलों। जब नींद तुम्‍हें छोड़ देती है और जीवन ऊर्जा तुम्‍हारे अंदर जगने लगती है तब तुम उसे देख सकते हो। ध्‍यान की गहराई में जाने के लिए यह देखना सहायक होगा।
रात भर के विश्राम के बाद मन ताजा है, शरीर ताजा है; सब कुछ तरोताजा है। भारहीन है। कोई धूल नहीं, थकान नहीं—तुम गहराई से गौर से देखते हो। तुम्‍हारी आंखें स्‍वच्‍छ है। सब कुछ जीवंत है। इस क्षण को मत गंवाओ। नींद से जागरण में बदलने वाली ऊर्जा को महसूस करो। ध्‍यान से देखो।


तीन मिनट तक अपने शरीर को बिल्‍ली की तरह खींचो-लेकिन आंखें बंद करके। अंतस से शरीर को देखो। खींचो, आगे बढ़ो और ऊर्जा को प्रवाहित होने दो। तथा इसे महसूस करो। जब यह तरोताजा रहता है। तब इसे महसूस करना अच्‍छा है। यह अनुभूति पूरे दिन तुम्‍हारे साथ रहेगी। इसे दो तीन मिनट तक करो। यदि तुम्‍हें आनंद आ रहा है तो पाँच मिनट तक। और तब दो-तीन मिनट तक पागल की तरह जोर से हंसों, लेकिन आंखे मूंदकर। ऊर्जाऐं प्रवाहित हो रही है। शरीर सजग, सचेत और जीवंत है। नींद जा चुकी है। तुम नई ऊर्जा से भर जाते हो।
पहला काम हंसना है क्‍योंकि यह दिन भर की गतिविधि तय करता है। यदि तुम ऐसा करते हो तो तुम महसूस करोगे कि तुम खुशमिजाज रहते हो। तुम्‍हारा पूरा दिन आनंदमय रहता है। दूसरे क्‍या कहेंगे उसकी परवाह मत करो। हंसों ओर उन्‍हें हंसने में मदद करो।

याद रखो कि दिन के पहले काम से दिन की दूसरी गतिविधि तय होती है। और रात का अंतिम काम भी रात की रूप रेखा तय करता है। इसलिए सोते समय विश्रांत रहो और जब जागों तो हंसते हुए जागों। हंसना दिन की पहली प्रार्थना बने। हंसी महन स्‍वीकृति दिखाता है। हंसी उत्‍सव दिखाता है। हंसी दिखाता है कि जीवन अच्‍छा है। सुबह का पहला काम यह है कि शरीर की बिल्‍ली की तरह खींचो और फिर हंसों, और इसके बाद ही बिस्‍तर छोड़ो। पूरा दिन अलग तरह से गुजरेगा।



वेदांता: सेवन स्‍टेप्‍स टु समाधि
 
ओशो

‘प्रयोग करो कि एक आग तुम्‍हारे पाँव के अंगूठे से शुरू होकर पूरे शरीर में ऊपर उठ रही है……।’


बस लेट जाओ। पहले भाव करो कि तुम मर गए हो। शरीर एक शव मात्र है। लेटे रहो और अपने ध्‍यान को पैर के अंगूठे पर ले जाओ। आंखें बंद करके भीतर गति करो। अपने ध्‍यान को अँगूठों पर ले जाओं और भाव करो कि वहां से आग ऊपर बढ़ रही है। और सब कुछ जल रहा है,जैसे-जैसे आग बढ़ती है वैसे-वैसे तुम्‍हारा शरीर विलीन हो रहा है। अंगूठे से शुरू करो और ऊपर बढ़ो।

अंगूठे से क्‍यों शुरू करो। यह आसान होगा। क्‍योंकि अंगूठा तुम्‍हारे ‘मैं’ से, तुम्‍हारे अहंकार से बहुत दूर है। तुम्‍हारा अहंकार सिर में केंद्रित है; वहां से शुरू करना कठिन होगा। तो बिंदु से शुरू करो; भाव करो कि अंगूठे जल रहे है। और वहां अब राख ही बची है।

और फिर धीरे-धीरे ऊपर बढ़ो और जो भी आग की राह में पड़े उसे जलाते जाओ। सारे अंग—पैर,जांघ—विलीन हो जाएंगे। और देखते जाओ कि अंग-अंग राख हो रहे है; जिन अंगों से होकर आग गुजरी है वे अब नहीं है। वे राख हो गए है। ऊपर बढ़ते जाओ; और अंत में सिर भी विलीन हो जाता है। प्रत्‍येक चीज राख हो गई है; धूल-धूल में मिल रही है। और तुम देख रहे हो।


‘और अंतत: शरीर जलकर राख हो जाता है। लेकिन तुम नहीं।’


तुम शिखर पर खड़े द्रष्‍टा रह जाओगे, साक्षी रह जाओगे। शरीर वहां पडा होगा, मृत जला हुआ, राख-और तुम द्रष्‍टा होगे, साक्षी होगे। इस साक्षी का कोई अहंकार नहीं है।

यह विधि निरहंकार अवस्‍था की उपलब्‍धि के लिए बहुत उपयोगी है। क्‍यो? क्‍योंकि इसमें बहुत सी बातें घटती है। यह विधि सरल मालूम पड़ती है। लेकिन यह उतनी सरल है नहीं। इसकी आंतरिक संरचना बहुत जटिल है।
पहली बात यह है कि तुम्‍हारी स्‍मृतियां शरीर का हिस्‍सा है। स्‍मृति पदार्थ है; यही कारण है कि उसे संग्रहीत किया जा सकता है। स्‍मृति मस्‍तिष्‍क के कोष्‍ठों में संग्रहीत है। स्‍मृतियां भौतिक है, शरीर का हिस्‍सा है। तुम्‍हारे मस्‍तिष्‍क का आपरेशन करके अगर कुछ कोशिकाओं को निकाल दिया जाए तो उनके साथ कुछ स्‍मृतियां भी विदा हो जायेगी। स्‍मृतियां मस्‍तिष्‍क में संग्रहीत रहती है। स्‍मृति पदार्थ है; उसे नष्‍ट किया जा सकता है।
और अब तो वैज्ञानिक कहते है कि स्‍मृति प्रत्‍यारोपित कि जा सकती है। देर-अबेर हम उपाय खोज लेंगे कि जब आइंस्‍टीन जैसा व्‍यक्‍ति मरे तो हम उसके मस्‍तिष्‍क की कोशिकाओं को बचा लें। और उन्‍हें किसी बच्‍चे में प्रत्‍यारोपित कर दें। और उस बच्‍चे को आइंस्टीन के अनुभवों से गूजरें बिना ही आइंस्टीन की स्‍मृतियां प्राप्‍त हो जाएगी।

तो स्‍मृति शरीर का हिस्‍सा है। और अगर सारा शरीर जल जाए, राख हो जाए,तो कोई स्‍मृति नहीं बचेगी। याद रहे,यह बात समझने जैसी है। अगर स्‍मृति रह जाती है तो शरीर अभी बाकी है। और तुम धोखे में हो। अगर तुम सचमुच गहराई से इस भाव में उतरोगे कि शरीर नहीं है। जल गया है, आग ने उसे पूरी तरह राख कर दिया है। तो उसे क्षण तुम्‍हें कोई स्‍मृति नहीं रहेगी। साक्षित्‍व के उस क्षण में कोई मन नहीं रहेगा। सब कुछ ठहर जाएगा। विचारों की गति रूक जाएगी। केवल दर्शन,मात्र देखना रह जाएगा कि क्‍या हुआ है।

और एक बार तुमने यह जान लिया तो तुम इस अवस्‍था में निरंतर रह सकते हो। एक बार सिर्फ यह जानना है कि तुम अपने को अपने शरीर से अलग कर सकते हो। यह विधि तुम्‍हें अपने शरीर से अलग जानने का, तुम्‍हारे और तुम्‍हारे शरीर के बीच एक अंतराल पैदा करने का, कुछ क्षणों के लिए शरीर से बाहर होने का एक उपाय है। अगर तुम इसे साध सको तो तुम शरीर में होते हुए भी शरीर में नहीं होगे। तुम पहले की तरह ही जीए जा सकते हो; लेकिन अब तुम फिर कभी वही नहीं हो सकते हो।

इस विधि में कम से कम तीन महीने लगेंगे। इसे करते रहो; यह एक दिन में नहीं होगी। लेकिन यदि तुम प्रतिदिन इसे एक घंटा देते हो तो तीन महीने के भीतर किसी दिन अचानक तुम्‍हारी कल्‍पना सफल होगी। और एक अंतराल निर्मित हो जाएगा। और तुम सचमुच देखोगें कि तुम्‍हारा शरीर राख हो रहा है। तब तुम उसका निरीक्षण कर सकते हो। और उस निरीक्षण में एक गहन तथ्‍य को बोध होगा। कि अहंकार असत्‍य है, झूठ है; उसकी कोई सत्‍ता नहीं है। अहंकार था; क्‍योंकि तुम शरीर से विचारों से मन से तादात्‍म्‍य किए बैठे थे। तुम उनमें से कुछ भी नहीं हो न मन, न विचार, न शरीर। तुम उस सब से भिन्‍न हो जो तुम्‍हें घेर हुए है। तुम अपनी परिधि से सर्वथा भिन्‍न हो।

तो उपर से यह विधि सरल मालूम पड़ती है। लेकिन यह तुम्‍हारे भीतर गहन रूपांतरण ला सकती है। लेकिन पहले मरघट में जाकर ध्‍यान करो, जो लोगों को जलाया जाता है। देखो कि कैसे शरीर जलता है। कैसे शरीर फिर मिट्टी हो जाता है। ताकि तुम फिर आसानी से कल्‍पना कर सको। और जब अँगूठों से आरंभ करो और बहुत धीरे-धीरे उपर बढ़ो।

और इस विधि में उतरने के पहले श्‍वास छोड़ने पर ज्‍यादा ध्‍यान दो। इस विधि को करने के ठीक पहले पंद्रह मिनट तक श्‍वास छोड़ो और आंखे बंद कर लो, फिर शरीर को श्‍वास लेने दो और आंखें खोल दो। पंद्रह मिनट तक गहन विश्राम में रहो। और फिर विधि में प्रवेश करो।

विज्ञान भैरव तंत्र

ओशो

द्रष्टा

तुम हिमालय चले जा सकते हो, तुम संसार छोड़ सकते हो, लेकिन अगर तुम सोचते हो कि विचार मेरे है तो तुम कहीं नहीं गए। तुम वहीं हो। हिमालय में बैठे हुए तुम संसार में उतने ही होगे जितने यहां रह कर हो। क्‍योंकि विचार संसार है। तुम हिमालय में भी अपने विचार साथ लिए जाते है। तुम घर छोड़ देते हो, लेकिन असली घर अंदर है। असली घर विचार की ईटों से बना है। बाहर का घर असली घर नहीं है।

यह अजीब बात है, लेकिन यह रोज ही घटती है। मैं एक व्‍यक्‍ति को देखता हूं कि उसने संसार छोड़ दिया और फिर भी वह हिंदू ही है। वह संन्‍यासी हो जाता है। और फिर भी हिन्‍दू जैन बना रहा था। इसका क्‍या मतलब है। यह संसार का त्‍याग कर देता है। लेकिन विचारों का त्‍याग नहीं करता। वह अभी भी जैन है। वह अभी भी हिंदू है। उसका विचारों का संसार अभी भी कायम है। और विचारों का संसार ही असली संसार है।

अगर तुम देख सको कि कोई विचार मेरा नहीं है-ओर तुम देख सकोगे। क्‍योंकि तुम द्रष्‍टा होगे, और विचार विषय बन जाएंगे। जब तुम शांत होकर विचारों का निरीक्षण करोगे तो विचार विषय होंगे और तुम देखने वाले होगे। तुम द्रष्‍टा होंगे। तुम साक्षी होगे और विचार तुम्‍हारे सामने तैरते रहेंगे।

और अगर तुम गहरे देख सके, गहरे अनुभव कर सके। तो तुम देखोगें कि विचारों की कोई जड़ें नहीं है। तुम देखोगें कि विचार आकाश में बादलों की भांति तैर रहे है और तुम्‍हारे भीतर उसकी कोई जड़ें नहीं है। वे आते है और चले जाते है। तुम नाहक उनके शिकार हो गये हो। नाहक तुम्‍हारा उनके साथ तादात्म्य हो गया है। विचार का जो भी बादल तुम्‍हारे घर से गुजरता है, तुम कहते हो कि यह मेरा बादल है।

विचार बादलों जैसे है। तुम्‍हारी चेतना के आकाश से वे गुजरते रहते है और तुम उनसे लगाव निर्मित करते रहते हो। तुम कहते हो कि यह बादल मेरा है। और सिर्फ एक आवारा बादल है, जो गुजर रहा है। और यह गुजर जाएगा।

विज्ञान भैरव तंत्र

ओशो 

यह सूत्र कहता है कि सब कुछ कर लेने के बाद भी, डचोढ़ी पर पहुंचा हुआ आदमी, परमात्मा के दरवाजे पर पहुंचा हुआ आदमी भी, वापस गिर सकता है।


 
थोड़ी सी भूल, और दरवाजा जो सामने था, युगों के लिए खो सकता है। और जितने हम करीब पहुंचते हैं, उतनी ही भूल खतरनाक होने लगती है। क्योंकि जब आप मंजिल से बहुत दूर हैं, तो भटकाव का ज्यादा डर नहीं रहता। क्योंकि आप इतने दूर हैं कि भटकेंगे भी तो क्या होगा? दूर ज्यादा और क्या होंगे इससे, जितने दूर हैं? जितने करीब पहुंचते हैं मंजिल के, उतना एक एक कदम मुश्किल का हो जाता है। क्योंकि अब एक कदम भी भटके, तो मंजिल चूक सकती है। महंगा सौदा हो गया। दायित्व बढ़ जाता है। बोध ज्यादा चाहिए। जितने निकट पहुंचते हैं, उतनी ज्यादा कठिनाई हो जाती है। लेकिन लोग बिना चले ही पहुंच जाते हैं! कोई उनको वहम दिला दे, बस वे राजी हो जाते हैं!
 
अमरीका में एक सज्जन हैं। उनके शिष्य का एक पत्र मेरे पास आया कि अनेक लोगों ने उनको कह दिया कि वे सिद्ध हो गए हैं, और हिंदुस्तान से भी दो तीन ज्ञानियों ने उनको लिख कर सर्टिफिकेट भेज दिया है कि वे सिद्ध  अवस्था को प्राप्त हो गए हैं, बस आपके सर्टिफिकेट की और जरूरत है। क्या पागलपन है! और जिन्होंने लिख कर भेजा है, उन तक ने सिद्ध कर दिया है कि वे भी अभी सिद्ध नहीं हैं। कोई सर्टिफिकेट का मामला है? किसी से पूछने की जरूरत है? कोई निर्णय देगा कि तुम पहुंच गए हो? और पहुंच कर भी तुम दूसरे के निर्णय की प्रतीक्षा करोगे?

लेकिन आदमी बिना कुछ किए कुछ हो जाना चाहता है! और धर्म में जितनी आसानी है बिना कुछ किए हो जाने की, उतनी और कहीं भी नहीं है। क्योंकि कहीं भी कुछ करना ही पड़ेगा, तभी कुछ हो पाएंगे। धर्म में तो ऐसा है कि आप हो ही सकते हैं, कोई अड़चन नहीं है, कोई कसौटी नहीं है, कोई बाधा नहीं डाल सकता।

ध्यान रखना इसका, कि जैसेजैसे ध्यान गहरा होगा, समाधि करीब आएगी, वैसेवैसे उत्तरदायित्व बढ़ रहा है। खतरा भी बढ़ रहा है। क्योंकि पहले तो कुछ भी भूल होती, तो कुछ खास फर्क न पड़ता था। भटके इतने थे कि अब और क्या भटकना था? दूर इतने थे कि और दूरी क्या होगी? लेकिन अब तो इंच भर की भूल, और हजारों कोस का फासला हो सकता है। अब तो जरा सा दिशा का परिवर्तन और भटकाव हो सकता है। निकट पहुंच कर बहुत लोग भटकते हैं और गिर जाते हैं। और निकट पहुंच कर अगर अहंकार की जरा सी भी रेखा रह गई, तो वह अहंकार भटका देता है। वह समाधि के पहले ही घोषणा कर देता है कि समाधि हो गई, ध्यान के पहले ही घोषणा कर देता है कि ध्यान हो गया। और जब हो ही गया तो यात्रा उसी क्षण रुक जाती है।

‘जो ज्ञान अब तुम्हें प्राप्त हुआ है, वह इसी कारण तुम्हें मिला है कि तुम्हारी आत्मा सभी शुद्ध आत्माओं से एक हो गई है और उस परमतत्व से एक हो गई है। यह ज्ञान तुम्हारे पास उस सर्वोच्च (परमात्मा) की धरोहर है। इसमें यदि तुम विश्वासघात करो, उस ज्ञान का दुरुपयोग करो, या उसकी अवहेलना करो, तो अब भी संभव है कि तुम जिस उच्च पद पर पहुंच चुके हो, उससे नीचे गिर पड़ो।’

यह मैं रोज देखता हूं कि जैसेजैसे लोग करीब पहुंचते हैं, वैसेवैसे अहंकार आखिरी बल मारता है। कल धन का अहंकार था, पद का अहंकार था, फिर वह ध्यान का अहंकार हो जाता है। कि मैं ध्यानी हो गया! जैसे ही यह अहंकार बल मारता है, वैसे ही तुम विश्वासघात कर रहे हो, वैसे ही तुम दुरुपयोग कर रहे हो, वैसे ही तुम अवहेलना कर रहे हो। और यह संभव है कि तुम वापस फेंक दिए जाओ।

‘बडे पहुंचे हुए लोग भी अपने दायित्व का भार न सम्हाल सकने के कारण और आगे न बढ़ सकने के कारण डचोढ़ी से गिर पड़ते हैं और पिछड़ जाते हैं। इसलिए इस क्षण के प्रति श्रद्धा और भय के साथ सजग रहो और युद्ध के लिए तैयार रहो।’

श्रद्धा और भय के साथ सजग इसको थोड़ा समझ लेना चाहिए। क्या अर्थ हुआ? श्रद्धा और भय को एक साथ क्यों रखा? श्रद्धा और भय तो बड़े विपरीत मालूम पड़ते हैं। क्योंकि श्रद्धावान को कैसा भय? और भयभीत को कैसी श्रद्धा? लेकिन प्रयोजन इनका महत्वपूर्ण है। और दोनों का तालमेल बिठाने की बात नहीं है, दो अलग आयाम में दोनों की उपस्थिति है।

श्रद्धा भविष्य के प्रति और भय पीछे गिर जाने के प्रति। श्रद्धा आगे बढ़ने के लिए और भय कि कहीं पीछे न गिर जाऊं। दोनों का आयाम अलग है, दोनों साथसाथ नहीं हैं। भय इस बात का सदा रखना कि मैं पीछे अभी भी गिर सकता हूं। भय रहेगा तो तुम सजग रहोगे। अभी भी गिर सकता हूं। अहंकार का स्वर जहां भी सुनाई पड़े, भयभीत हो जाना। अभी तुम पीछे खींचे जा सकते हो, अभी सेतु बिलकुल नहीं मिट गया, अभी रास्ता बना हुआ है पीछे जाने का। अभी तुम रास्ते को पकड़ सकते हो।

और श्रद्धा भविष्य के प्रति। भविष्य के प्रति पूरा भरोसा। और अतीत के प्रति भय, जरा भी भरोसा नहीं। अगर ये दो बातें तुम्हारे खयाल में रहें कि अभी और बहुत कुछ होने को है, सब नहीं हो गया है, भविष्य के प्रति यह बोध। और अतीत मिट गया है, लेकिन बिलकुल नहीं मिट गया है, अभी लौटना संभव हो सकता है। रास्ते कायम हैं। और जरा सी भूल और तुम बहुत पीछे लौट जा सकते हो।

चढ़ना बहुत कठिन है, उतरना कठिन नहीं है। एक क्षण में तुम न मालूम कितना उतर जा सकते हो, गिर जा सकते हो। उठने में युगों लग जाते हैं। यह भय है। और भविष्य के प्रति परिपूर्ण आस्था, आशा। ये दो बातें खयाल में रहें।

साधनसूत्र

ओशो 

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