शिव
का अर्थ है-शुभ।
अच्छा। लेकिन शिव
के व्यक्तित्व
में,
जिसे हम बुरा
कहें वह सब भी मौजूद
है। जिसे हम बुरा
कहें, वह सब
मौजूद है। शिव
का अर्थ ही है शुभ,
लेकिन शिव को
हमने विध्वंस का
देवता माना
है। विनाश का।
उसी से अंत
होगा जगत का।
हैरानी की बात
मालूम पड़ती है
कि जो शुभ है, शिव है, वह
विध्वंस का देवता
होगा। लेकिन बडी
कीमती बात है।
हम
कभी यह मान ही न
पाए कि इस जगत का
अंत अशुभ से हो।
इस जगत का अंत उस
पूर्णता में हो
जहां शुभ का सारा
फूल खिल जाए।
अंत जो हो, वह
अंतहीन हो, पूर्णता भी हो।
अंत जो हो, वह
सिर्फ मृत्यु हीन
हो बल्कि महाजीवन
का अतिंम शिखर
भी हो।
और
हमारी शुभ की जो
धारणा है, वह
भी बडी अद्भुत
है। दुनिया
में जहां भी
शुभ की धारणा की
गयी है, वह
अशुभ के विपरीत
है। इसलिए
भारत को छोड़कर
सारे जगत में सभी
धर्मों ने, जो भारत के बाहर
पैदा हुए, दो
ईश्वर मानने
की मजबूरी प्रगट
की है। दो ईश्वर
से मेरा मतलब है,
एक को वे ईश्वर
कहते है, एक
को वे शैतान
कहते हैं।
बुराई का भी एक
ईश्वर है।
उसको अलग करना
पड़ा है। भलाई का
एक ईश्वर है, उसको अलग करना
पड़ा है। और जब
मैं कहता हूं कि
दो ईश्वर, तो
कई कारणों से कहता
हूं।
अंग्रेजी में
शब्द है, 'डेविल'। वह संस्कृत
के देव शब्द से
ही बना है। वह
भी देवता है।
बुराई का देवता
है। बुराई का
देवता अलग निर्मित
करना पड़ा है।
क्योंकि भारत के
बाहर कोई भी मनीषा
इतनी हिम्मत की
नही हो सकी कि बुराई
और भलाई को एक ही
व्यक्तित्व
में निहित कर दें।
यह बड़ा साहस का
काम है। सोच ही
नही पाते हैं।
हम भी नहीं सोच
पाते है। जब हम
कहते है फलां
आदमी महात्मा है,
तो फिर हम सोच
ही नहीं पाते है
कि उसमें कुछ
भी. जैसे क्रोध
महात्मा कर
सके, यह हम सोच
ही नहीं सकते।
लेकिन शिव क्रोध
कर सकते हैं।
और साधारण क्रोध
नहीं, कि
भस्म कर दें!
और हिंदू-मन कहता
है कि शिव से दयालु
कोई भी नहीं है,
बहुत भोले हैं।
जरा-भी कोई मनाले,
तो किसी भी बात
के लिए राज़ी हो
जाते है। ऐसा वरदान
भी आदमी माग सकता
है कि खुद ही झंझट
में पड़े। तोयह
आदमी अनूठा मालूम
होता है। यह प्रतीक
अनूठा मालूम होता
है।
बुराई
और भलाई को हमने
कभी भी दो विपरीत
चीजे नहीं माना
है। क्योंकि विपरीत
मानकर ही जगत दो
खंड में बंट जाता
है और द्वैत शुरू
हो जाता है।
और फिर अगर विपरीत
है भलाई और बुराई, तो
फिर भलाई की जीत
शुनिश्रत
नहीं है।
बुराई भी जीत सकती
है। अगर बुराई
और भलाई के बीच
संघर्ष है, तो फिर भलाई की
जीत
सुनिश्रित नहीं
है। फिर कौन तय
करेगा कि अंत
में ईश्वर ही जीतेगा
और शैतान नहीं
जीत जाएगा? जहां तक रोज
का सवाल है, शैतान जीतता
हुआ दिखायी पड़ता
है। क्या पका है
कि अंततः भी शैतान
नहीं जीतेगा?
अगर दो
शक्तियां हैं इस
जगत में, तो
आज तक का जो
अनंत इतिहासहै
आदमी का, उसमें
कोई भी ऐसा
क्षण नहीं मालूम
पड़ता जब बुराई
न रही हो।
बुराई और भलाई
सदा ही सघर्षरत
रही है।
तो
अंनत इतिहास कहता
है कि वे दोनो सदा
ही लड़ती रही है।
या तो ऐसा मालूम
पड़ता है कि वे समान
शक्तिशाली
हैं। इसलिए कोई
अतिंम जीत तय
नहीं हो पाती है।
कभी कोई जीतता
लगता है, कभी कोई
जीतता लगता है।
फिर भी अगर गौर
से हम देखें तो
निव्यानबे मौके
पर बुराई जीतती
लगती है। एक मौके
पर भलाई जीतती
लगती है। तो ऐसा
डर लगता है कि
कहीं बुराई
ज्यादा मजबूत
तो नहीं है।
जैसे ही हम
बुराई और भलाई
को बांट दें, खतरा शुरू
हो जाता है।
और इसमें फिर
कोई अंत नहीं
हो सकता। कोई
अंत नहीं हो
सकता कि कौन
जीतेगा? और
अगर यह
निश्रित ही न
हो कि अंततः
शुभ जीतता है,
तो शुभ की
सारी चेष्टा
व्यर्थ हो
जाती है। लेकिन
भारत और ढंग
से सोचता है।
भारत बुराई को
भलाई के
विपरीत नहीं
मानता। भारत
बुराई को भलाई
में आत्मसात
कर लेता है। इसे
हम ऐसा समझें,
भारत क्रोध
को अनिवार्य
रूप से बुरा
नहीं कहता।
भारत कहता है
किं क्रोध अगर
शुभ के लिए हो
तो शुभ हो
जाता है।
क्रोध अगर शुभ
के लिए हो तो शुभ
हो जाता है।
ओशो
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