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Thursday, October 1, 2015

14 अपने पूरे अवधान को अपने मेरुदंड के मध्य में कमल तंतु सी कोमल स्नायु में स्थित करो। और इसमें रूपांतरित हो जाओ।


स सूत्र के लिए, ध्यान की इस विधि के लिए तुम्हें अपनी आंखें बंद कर लेनी चाहिए। और अपने मेरुदंड को, अपनी रीढ़ की हड्डी को देखना चाहिए, देखने का भाव करना चाहिए। अच्छा हो कि किसी शरीर—शास्त्र की पुस्तक में या किसी चिकित्सालय या मेडिकल कालेज में जाकर शरीर की संरचना को देख समझ लो, तब आँख  बंद करो और मेरुदंड पर अवधान लगाओ। उसे भीतर की आंखों से देखो और ठीक उसके मध्य से जाते हुए कमल तंतु केंद्रीभूत होने की जैसे कोमल स्नायु का भाव करो।

‘और इसमें रूपांतरित हो जाओ।’

और अगर संभव हो तो इस मेरुदंड पर अवधान को एकाग्र करो और तब भीतर से, मध्य से जाते हुए कमलतंतु जैसे स्नायु पर एकाग्र होओ। और यही एकाग्रता तुम्हें तुम्हारे केंद्र पर आरूढ़ कर देगी। क्यों? मेरुदंड तुम्हारी समूची शरीर संरचना का आधार है। सब कुछ उससे संयुक्त है, जुड़ा हुआ है। सच तो यह है कि तुम्हारा मस्तिष्क इसी मेरुदंड का एक छोर है। शरीरशास्त्री कहते हैं कि मस्तिष्क मेरुदंड का ही विस्तार है। तुम्हारा मस्तिष्क मेरुदंड का विकास है। और तुम्हारी रीढ़ तुम्हारे सारे शरीर से संबंधित है, सब कुछ उससे संबंधित है। यही कारण है कि उसे रीढ़ कहते हैं, आधार कहते हैं।

इस रीढ़ के अंदर एक तंतु जैसी चीज है, लेकिन शरीरशास्त्री इसके संबंध में कुछ नहीं कह सकते। यह इसलिए कि यह पौदगलिक नहीं है। इस मेरुदंड में, इसके ठीक मध्य में एक रजतरब्यू है, एक बहुत कोमल नाजुक स्नायु है। शारीरिक अर्थ में वह स्नायु भी नहीं है। तुम उसे काटपीट कर नहीं निकाल सकते, वह वहां नहीं मिलेगा। लेकिन गहरे ध्यान में वह देखा जाता है। वह है, लेकिन वह अपदार्थ है, अवस्तु है। वह पदार्थ नहीं, ऊर्जा है। और यथार्थत: तुम्हारे मेरुदंड की वही ऊर्जारन्न तुम्हारा जीवन है। उसके द्वारा ही तुम अदृश्य अस्तित्व के साथ संबंधित हो। वही दृश्य और अदृश्य के बीच सेतु है। उस तंतु के द्वारा ही तुम अपने शरीर से संबंधित हो, और उस तंतु के द्वारा ही तुम आत्मा से संबंधित हो।

तो पहले तो मेरुदंड की कल्पना करो, उसे मन की आंखों से देखो। और तुम्हें अदभुत अनुभव होगा। अगर तुम मेरुदंड का मनोदर्शन करने की कोशिश करोगे, तो यह दर्शन बिलकुल संभव है। और अगर तुम निरंतर चेष्टा में लगे रहे, तो कल्पना में ही नहीं, यथार्थ में भी तुम अपने मेरुदंड को देख सकते हो।

मैं एक साधक को इस विधि का प्रयोग करवा रहा था। मैंने उसे शरीर संस्थान का एक चित्र देखने को दिया, ताकि वह उसके जरिए अपने भीतर के मेरुदंड को मन की आंखों से देखने में समर्थ हो सके। उसने प्रयोग शुरू किया और सप्ताह भर के अंदर आकर उसने मुझसे कहा, आश्चर्य की बात है कि मैंने आपके दिए चित्र को देखने की कोशिश की, लेकिन अनेक बार वह चित्र मेरी आंखों के समाने से गायब हो गया और एक दूसरा मेरुदंड मुझे दिखाई दिया। यह मेरुदंड चित्र वाले मेरुदंड जैसा नहीं था। तो मैंने उस साधक से कहा कि अब तुम सही रास्ते पर हो। अब चित्र को बिलकुल भूल जाओ और उस मेरुदंड को देखा करो जो तुम्हारे लिए दृश्य हुआ है।

मनुष्य भीतर से अपने शरीरसंस्थान को देख सकता है। हम इसको देखने की कोशिश नहीं करते, क्योंकि वह दृश्य डरावना है, वीभत्स है। जब तुम्हें तुम्हारे रक्तमांस और अस्थिपंजर दिखाई पड़ेंगे, तो तुम भयभीत हो जाओगे। इसलिए हमने अपने मन को भीतर देखने से बिलकुल रोक रखा है। हम भी अपने शरीर को उसी तरह बाहर से देखते हैं जिस तरह दूसरे लोग उसे देखते हैं।

यह वैसा ही है जैसे तुम इस कमरे को इसके बाहर जाकर देखो, तुम सिर्फ इसकी बाहरी दीवारों को देखोगे। फिर तुम भीतर आ जाओ और देखो, तब तुम्हें भीतरी दीवारें दिखाई देंगी। तुम तो सिर्फ बाहर से अपने शरीर को इस तरह देखते हो जिस तरह कोई दूसरा आदमी उसे देखता हो। भीतर से तुमने अपने शरीर को नहीं देखा है। हम देख सकते हैं, लेकिन इस भय के कारण वह हमारे लिए आश्चर्य की चीज बना है।

भारतीय योग की पुस्तकें शरीर के संबंध में ऐसी बातें बताती हैं जो नए वैशानिक शोध से हूबहू सही साबित हुई हैं। लेकिन विज्ञान यह समझने में असमर्थ है कि योग को इनका पता कैसे चला? वह इन्हें कैसे जान सका? शल्यचिकित्सा और मानवशरीर का जान बहुत हाल की घटनाएं हैं। इस हालत में योग इन सारी स्नायुओं को, सभी केंद्रों को, शरीर के पूरे आंतरिक संस्थान को कैसे जान गया? जो अत्यंत हाल की खोजें हैं, आश्चर्य कि वे उन्हें भी जानते थे। उन्होंने उनकी चर्चा की है, उन पर काम किया है। योग को शरीर की बुनियादी और महत्वपूर्ण चीजों के विषय में सब कुछ मालूम रहा है। लेकिन योग चीरफाड़ नहीं करता था, फिर उसे उसकी इतनी सारी बातें कैसे पता चलीं?

सच तो यह है कि शरीर को देखने जानने का एक दूसरा ही रास्ता है, वह उसे अंदर से देखना है। अगर तुम भीतर एकाग्र हो सको, तो तुम अचानक अंदरूनी शरीर को, उसके भीतरी रेखाचित्र को देखने लगोगे।

यह विधि उन लोगों के लिए उपयोगी है जो शरीर से जुड़े हैं। अगर तुम भौतिकवादी हो, अगर तुम सोचते हो कि तुम शरीर के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो, तो यह विधि तुम्हारे बहुत काम की होगी। अगर तुम चार्वाक या मार्क्स के मानने वाले हो, अगर तुम मानते हो कि मनुष्य शरीर के अलावा कुछ नहीं है, तो तुम्हें यह विधि बहुत सहयोगी होगी। तो तुम जाओ और मनुष्य के अस्थि संस्थान को देखो।

तंत्र या योग की पुरानी परंपराओं में वे अनेक तरह की हड्डियों का उपयोग करते थे। अभी भी तांत्रिक अपने पास कोई न कोई हड्डी या खोपड़ी रखता है। दरअसल वह भीतर से एकाग्रता साधने का उपाय है। पहले वह उस खोपड़ी पर एकाग्रता साधता है, फिर आंखें बंद करता है और अपनी खोपड़ी का ध्यान करता है। वह बाहर की खोपड़ी की कल्पना भीतर करता जाता है और इस तरह धीरे धीरे अपनी खोपड़ी की प्रतीति उसे होने लगती है। उसकी चेतना केंद्रित होने लगती है।

वह बाहरी खोपड़ी, उसका मनोदर्शन, उस पर ध्यान, सब उपाय हैं। और अगर तुम एक बार अपने भीतर केंद्रीभूत हो गए, तो तुम अपने अंगूठे से सिर तक यात्रा कर सकते हो। तुम भीतर चलो, वहा एक बड़ा ब्रह्मांड है। तुम्हारा छोटा शरीर एक बड़ा ब्रह्मांड है।

यह सूत्र मेरुदंड का उपयोग करता है, क्योंकि मेरुदंड के भीतर ही जीवन रज्‍जु छिपा है। यही कारण है कि सीधी रीढ़ पर इतना जोर दिया जाता है, क्योंकि अगर रीढ़ सीधी न रही तो तुम भीतरी रज्‍जु को नहीं देख पाओगे। वह बहुत ही नाजुक है, बहुत सूक्ष्म है। वह ऊर्जा का प्रवाह है। इसलिए अगर तुम्हारी रीढ़ सीधी है, बिलकुल सीधी, तभी तुम्हें उस जीवन रज्‍जु की झलक मिल सकेगी।

लेकिन हमारे मेरुदंड सीधे नहीं हैं। हिंदू बचपन से ही मेरुदंड को सीधा रखने का उपाय करते हैं। उनके बैठने, उठने, चलने और सोने तक के ढंग सीधी रीढ़ पर आधारित थे। और अगर रीढ़ सीधी नहीं है तो उसके भीतरी तत्वों को देखना बहुत कठिन होगा। वह नाजुक है, सूक्ष्‍म है और वास्‍तव में पौदागलिक नहीं है। वह अपौदगलिक है, वह शक्‍ति है। इसलिए जब मेरुदंड बिलकुल सीधा होता है तो वह रज्जुवत शक्ति देखने में आती है।

‘और इसमें रूपांतरित हो जाओ।’

और अगर तुम इस रज्जु पर एकाग्र हुए, तुमने उसकी अनुभूति और उपलब्धि की, तब तुम एक नए प्रकाश से भर जाओगे। वह प्रकाश तुम्हारे मेरुदंड से आता होगा। वह तुम्हारे पूरे शरीर पर फैल जाएगा, वह तुम्हारे शरीर के पास भी चला जाएगा।

और जब प्रकाश शरीर के पार जाता है तब प्रभामंडल दिखाई देते हैं। हरेक आदमी का प्रभामंडल है। लेकिन साधारणत: तुम्हारे प्रभामंडल छाया की तरह हैं जिनमें प्रकाश नहीं होता। वे तुम्हारे चारों ओर काली छाया की तरफ फैले होते हैं। और वे प्रभामंडल तुम्हारे प्रत्येक मनोभाव को अभिव्यक्त करते हैं। जब तुम क्रोध में होते हो तो तुम्हारा प्रभामंडल रक्तरंजित जैसा हो जाता है, उसमें क्रोध लाल रंग में अभिव्यक्त होता है। जब तुम उदास, बुझे बुझे, हतप्रभ होते हो तो तुम्हारा प्रभामंडल काले तंतुओं से भरा होता है, मानो तुम मृत्यु के निकट हो सब मृत और बोझिल। और जब यह मेरुदंड के भीतर का तंतु उपलब्ध होता है तब तुम्हारा प्रभामंडल सचमुच में प्रभामंडित होता है।

इसलिए बुद्ध, महावीर, कृष्ण या क्राइस्ट महज सजावट के लिए प्रभामंडल से नहीं चित्रित किए जाते हैं; वे प्रभामंडल सच में होते हैं। तुम्हारा मेरुदंड प्रकाश विकीरित करने लगता है। भीतर तुम बुद्धत्व को प्राप्त होते हो, बाहर तुम्हारा सारा शरीर प्रकाश शरीर हो उठता है, और तब उसकी प्रभा बाहर भी फैलने लगती है। इसलिए किसी बुद्धपुरुष के लिए किसी से यह पूछना जरूरी नहीं है कि तुम क्या हो। तुम्हारा प्रभामंडल सब बता देगा। और जब कोई शिष्य बुद्धत्व प्राप्त करता है तो गुरु को पता हो जाता है, क्योंकि प्रभामंडल सब प्रकट कर देता है।

मैं तुम्हें एक कहानी बताऊं। एक चीनी संत, हुई को, जब पहले पहले अपने गुरु के पास पहुंचा तो गुरु ने कहा कि तुम किसलिए आए हो? तुम्हें मेरे पास आने की जरूरत नहीं थी। हुई शो की समझ में कुछ नहीं आया, उसने सोचा कि अभी गुरु द्वारा स्वीकृत होने की उसकी पात्रता नहीं है। लेकिन गुरु कुछ और ही चीज देख रहा था, वह उसके फैलते हुए प्रभामंडल को देख रहा था। गुरु कह रहा था कि अगर तुम मेरे पास नहीं भी आओ तो भी देर अबेर यह घटना घटने ही वाली है। तुम उसमें ही हो, इसलिए मेरे पास आने की जरूरत न थी।

लेकिन हुई को ने प्रार्थना की कि मुझे अस्वीकार न करें। तो गुरु ने उसे प्रवेश दिया और कहा कि आश्रम के पिछवाड़े में जो रसोईघर है उसमें जाकर काम करो। और फिर दूसरी बार मेरे पास मत आना। जब जरूरत होगी, मैं ही तुम्हारे पास आ जाऊंगा। 

हुई नेंग को कोई ध्यान करने को नहीं बताया गया, न कोई शास्त्र पढ़ने को कहा गया। उसे कुछ भी नहीं सिखाया गया। उसे बस रसोईघर में रख दिया गया। वह एक बहुत बड़ा आश्रम था, जिसमें कोई पांच सौ भिक्षु रहते थे। उनमें पंडित, विद्वान, ध्यानी, योगी, सब थे। और सब साधना में लगे थे। लेकिन हुई नेंग केवल चावल साफ करता था और रसोई के भीतर काम करता था। और इस. तरह बारह वर्ष बीत गए। हुई को इस बीच गुरु के पास दुबारा नहीं गया, कयोंकि इजाजत नहीं थी। वह प्रतिक्षा करता रहा, प्रतीक्षा करता रहा। वह सिर्फ प्रतीक्षा ही करता रहा और लोग उसे महज नौकर समझते थे। कोई उस पर ध्यान भी नहीं देता था। उस आश्रम में पंडितों और ध्यानियों की कमी नहीं थी। उनके बीच एक चावल कूटने वाले की क्या बिसात होती!

और फिर एक दिन गुरु ने घोषणा की कि मेरी मृत्यु निकट है और मैं अब चाहता हूं कि किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाऊं। इसलिए जो समझते हों कि वे बुद्धत्व को प्राप्त हैं, वे चार पंक्तियों की एक कविता रचे जिसमें वे वह सब व्यक्त कर दें जो उन्होंने सीखा है। गुरु ने यह भी कहा कि जिसकी कविता में सच में बुद्धत्व व्यक्त होगा, उसे मैं अपना उत्तराधिकारी चुनूंगा।

उस आश्रम में एक महापंडित था। इसलिए उस प्रतियोगिता में किसी ने भाग नहीं लिया। सब यही सोचते थे कि महापंडित जीतेगा। वह शास्त्रों का बड़ा ज्ञाता था, सो उसने चार पंक्तियां लिखीं। उन चार पंक्तियों में उसने लिखा. ‘मन एक दर्पण की तरह ड़ै, जिस पर धूल जम जाती है। धूल को साफ कर दो और सत्य अनुभव में आ जाता है, बुद्धत्व प्राप्त हो जाता है।’

लेकिन यह महापंडित भी डरता था, क्योंकि गुरु को पता था कि कौन ज्ञानोपलब्ध है, कौन नहीं। यद्यपि महापंडित ने जो लिखा था वह सुंदर था, सब शास्त्रों का सार निचोड़ था।’मन दर्पण की तरह है, जिस पर धूल जम जाती है। धूल को पोंछ दो और तुम ज्ञानोपलब्ध हो।’ यही तो सब वेदों का सार था। लेकिन पंडित डरता था कि यह उसने शास्त्रों से लिया था, इसमें उसका अपना कुछ नहीं था। इसलिए वह सीधे गुरु के पास नहीं गया। वह रात के अंधेरे में गुरु के झोपड़े पर गया और उसकी दीवार पर वे चार पंक्तियां लिख दीं। उसने नीचे हस्ताक्षर भी नहीं किया। उसने सोचा कि अगर गुरु ने उन्हें स्वीकृति दी तो मैं कहूंगा कि मैंने लिखा है और अगर गुरु ने उन्हें ठीक नहीं कहा तो चुप रह जाऊंगा।

लेकिन गुरु ने स्वीकृति दे दी। सुबह उन्होंने हंसते हुए कहा कि ठीक है, जिस आदमी ने यह कविता लिखी है वह ज्ञानी है। समूचे आश्रम में उसकी चर्चा होने लगी। सब तो जानते ही थे कि किसने लिखा है। वे चर्चा करने लगे, प्रशंसा करने लगे। वे पंक्तियां तो सुंदर थीं। सचमुच सुंदर थीं।
इसी चर्चा में लगे कुछ भिक्षु रसोईघर में पहुंचे। वे चाय पीते थे और चर्चा करते थे। हुई नेंग उन्हें चाय पिला रहा था। उसने सब बात सुनी। जब वे चार पंक्तियां उसने सुनी तब वह हंसा। इस पर किसी ने उससे पूछा कि तुम क्यों हंस रहे हो? तुम तो कुछ जानते नहीं, बारह वर्षों से तुम चौके में काम कर रहे हो, तुम क्यों हंस रहे हो?
किसी ने इसके पहले इस भिक्षु को हंसते भी नहीं देखा था। वह तो महामूढ़ समझा जाता था, जिसे बात करनी भी नहीं आती थी। उसने कहा कि मैं लिखना नहीं जानता हूं और मैं ज्ञानी भी नहीं हूं लेकिन वे चार पंक्तियां गलत हैं। अगर कोई व्यक्ति मेरे साथ आए तो मैं चार पंक्तियां बना दूंगा और वह उन्हें दीवार पर लिख दे। मैं लिखना नहीं जानता हूं।

एक भिक्षु मजाक में उसके साथ हो लिया। उनके पीछे एक भीड़ भी वहा आ गई। हुई नेंग ने लिखाया. ‘कैसा दर्पण, कैसी धूल? न कोई मन है, न कोई दर्पण है। धूल जमेगी कहां? और जो यह जान लेता है वह धर्म को उपलब्ध हो जाता है।’ लेकिन जब गुरु आया तो उसने कहा कि यह गलत है। हुई नेंग ने उसके पैर छुए और वह रसोई घर को लौट गया।

रात में जब सब सोए थे। गुरु हुई नेंग के पास आया और कहा, तुम सही हो, लेकिन मैं यह बात उन मूर्खों के सामने नहीं कह सकता था। वे विद्वान मूर्ख हैं। और अगर मैं कहता कि तुम मेरे उत्तराधिकारी हुए तो वे तुम्हें मार डालते। तुम मेरे उत्तराधिकारी हो। लेकिन यह बात दूसरों से मत कहो। तुम यहां से भाग जाओ। जिस दिन तुम यहां आए थे उसी दिन मैं जान गया था कि तुम उत्तराधिकारी हो। तुम्हारा प्रभामंडल बढ़ रहा था। इसीलिए तुम्हें कोई ध्यान नहीं दिया गया, उसकी जरूरत न थी। तुम ध्यान में ही थे। और बारह वर्षों के मौन ने, जिसमें तुमने कुछ नहीं किया, ध्यान भी नहीं, तुम्हें तुम्हारे चित्त से सर्वथा मुक्त, कर दिया है और तुम्हारा प्रभामंडल पूर्ण हो चला है। तुम पूर्णचंद्र हो गए हो। लेकिन यहां से निकल जाओ, अन्यथा वे लोग तुम्हें मार डालेंगे। तुम यहां बारह वर्षों से हो और निरंतर तुमसे प्रकाश विकीरित हो रहा है। लेकिन कोई उसे नहीं देख सका, यद्यपि हर कोई दिन में तीन चार दफे रसोईघर में आता रहा है। यही वजह है कि मैंने तुम्हें यहां रखा था। कोई तुम्हारे प्रभामंडल को नहीं देख सका। तुम भाग ही जाओ।

जब मेरुदंड का यह तंतु देख लिया जाता है, उपलब्ध होता है, तब तुम्हारे चारों ओर एक प्रभामंडल बढ़ने लगता है।’इसमें रूपांतरित हो जाओ।’ उस प्रकाश से भर जाओ और रूपांतरित हो जाओ। यह भी केंद्रित होना है, मेरुदंड में केंद्रित होना।

अगर तुम शरीरवादी हो तो यह विधि तुम्हारे काम आएगी। अगर नहीं तो यह कठिन है। तब भीतर से शरीर को देखना कठिन होगा। यह विधि पुरुषों की बजाय स्त्रियों के लिए ज्यादा कारगर होगी। स्त्रियां ज्यादा शरीरवादी हैं। वे शरीर में अधिक रहती हैं और कल्पनाशील भी होती हैं। शरीर का मनोदर्शन उनके लिए आसान हो सकता है। स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा शरीर केंद्रित हैं। लेकिन जो कोई भी शरीर को महसूस कर सकता है, जो कोई भी आख बंद कर भीतर से शरीर को देख सकता है, उसके लिए यह विधि बहुत सहयोगी होगी।
 
पहले अपने मेरुदंड को देखो, फिर उसके बीच से जाती हुई रजत रज्जु को। पहले तो वह कल्पना ही होगी, लेकिन धीरे धीरे तुम पाओगे कि कल्पना विलीन हो गई है और तुम्हारा चित्त मेरुदंड पर एकाग्र हो गया है। और तब तुम अपने ही मेरुदंड को देखोगे। और जिस क्षण तुम आंतरिक तत्व को देखोगे, अचानक तुम्हें तुम्हारे भीतर प्रकाश का विस्फोट अनुभव होगा।

कभी कभी यह घटना प्रयास के बिना भी घटती है। यह होता है। फिर तुम्हें कहूं किसी गहरे संभोग के क्षण में यह होता है। तंत्र जानता है कि गहरे काम—कृत्य में तुम्हारी सारी ऊर्जा रीढ़ के पास इकट्ठी हो जाती है। असल में गहरे काम कृत्य में रीढ़ बिजली छोड़ने लगती है। कभी कभी तो ऐसा होगा कि रीढ़ को छूने से तुम्हें धक्का लगेगा। और अगर संभोग गहरा हो, प्रेमपूर्ण हो, लंबा हो, अगर दो प्रेमी प्रगाढ़ प्रेमालिंगन में हों, शात और निश्चल, एक दूसरे को भरते हुए, तो घटना घटती है। कई बार ऐसा हुआ है कि अंधेरा कमरा अचानक रोशनी से भर जाता है और दोनों शरीरों को एक नीला प्रभामंडल घेर लेता है।

ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं। तुम्हारे अनुभव में भी ऐसा हुआ होगा कि अंधेरे कमरे में गहरे प्रेम में उतरने पर तुम्हारे दो शरीरों के चारों ओर एक रोशनी सी हो गई है और फैलकर पूरे कमरे में भर गई है। कई बार ऐसा हुआ है कि किसी दृश्य कारण के बिना ही कमरे की मेज पर से अचानक उछलकर गिर गई है। और अब मनस्विद बताते है कि गहरे काम—कृत्य में बिजली की तरंगें छूटती हैं और उसके कई प्रभाव और परिणाम हो सकते हैं। चीजें अचानक गिर सकती हैं, हिल सकती हैं, टूट सकती हैं। ऐसे प्रकाश के फोटो भी लिए गए हैं। लेकिन यह प्रकाश सदा मेरुदंड के इर्द गिर्द इकट्ठा होता है।

तो कभी कभी काम कृत्य के दौरान भी तुम जाग सकते हो, अगर तुम अपने मेरुदंड के बीच से जाती हुई रजत रज्जु को देख सको। तंत्र को यह बात भलीभांति पता है और उसने इस पर काम भी किया है। तंत्र ने इस उपलब्धि के लिए संभोग का भी उपयोग किया है। लेकिन उसके लिए काम कृत्य को सर्वथा भिन्न ढंग का होना पड़ेगा, उसका गुण धर्म भिन्न होगा। उस हालत में काम कृत्य किसी तरह निबट लेने की, महज स्खलन के द्वारा छुट्टी पा लेने की, झट पट उससे गुजर जाने की बात नहीं रहेगी, तब वह एक शारीरिक कर्म नहीं रहेगा। तब वह एक गहरा आध्यात्मिक मिलन होगा, योग होगा। तब यथार्थ में वह दो देहों के द्वारा दो आंतरिकताओ का, दो आत्माओं का एक दूसरे में प्रवेश होगा।

इसलिए मेरा सुझाव है कि जब तुम गहरे कामकृत्य में होओ तो इस विधि को प्रयोग में लाओ। वह आसान हो जाएगी। यौन को भूल जाओ। जब गहरे आलिंगन में उतरो, बस भीतर रहो और दूसरे व्यक्ति को भी भूल जाओ। भीतर जाओ और अपने मेरुदंड को देखो। उस समय मेरुदंड के पास अधिक ऊर्जा प्रवाहित होती है, इसलिए यह देखना आसान होगा। और उस समय रजतरज्जु भी ज्यादा दृश्य होती है, क्योंकि तुम शात होते हो और तुम्हारा शरीर विश्राम में होता है। प्रेम गहरे से गहरा विश्राम है, लेकिन हमने उसे भी तनाव बना लिया है। हमने उसे एक चिंता, एक बोझ में बदल लिया है।

प्रेम की ऊष्मा में, जब तुम भरे भरे और शिथिल हो, आंखें बंद कर लो। सामान्यत: पुरुष आंखें बंद नहीं करते, स्त्रियां करती हैं। इसलिए मैंने कहा कि पुरुषों की बजाय स्त्रियां अधिक शरीरवादी हैं। काम—कृत्य के गहरे आलिंगन में उतरने पर स्त्रियां आंखें बंद कर लेती हैं। दरअसल वे खुली आंखों से प्रेम नहीं कर सकती हैं। आंखों के बंद रहने पर वे भीतर से शरीर को अधिक महसूस कर पाती हैं।

तो आंखें बंद कर लो और शरीर को महसूस करो। विश्राम में उतर जाओ और मेरुदंड पर चित एकाग्र करो। और यह सूत्र बहुत सरल ढंग से कहता है : ‘इसमें रूपांतरित हो जाओ।’ तुम इसके द्वारा रूपांतरित हो जाओगे।

तंत्र सूत्र 

ओशो 

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