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Thursday, October 1, 2015

13 या कल्पना करो कि मयूर की पूछ के पंचरंगे वर्तुल निस्सीम अंतरिक्ष में तुम्हारी पांच इंद्रियां हैं। अब उनके सौदर्य को भीतर ही घुलने दो। उसी प्रकार शून्य में या दीवार पर किसी बिंदु के साथ कल्पना करो जब तक कि वह बिंदु विलीन न हो जाए। तब दूसरे के लिए तुम्हारी कामना सच हो जाती है।


ये सारे सूत्र, भीतर के केंद्र को कैसे पाया जाए, इससे संबंधित हैं। उसके लिए जो बुनियादी तरकीब, जो बुनियादी विधि काम में लायी गयी है वह यह है कि तुम अगर बाहर कहीं भी, मन में, हृदय में या बाहर की किसी दीवार में एक केंद्र बना सके और उस पर समग्रता से अपने अवधान को केंद्रित कर सके और उस बीच समूचे संसार को भूल सके और एक वही बिंदु तुम्हारी चेतना में रह जाए, तो तुम अचानक अपने आंतरिक केंद्र पर फेंक दिए जाओगे। यह कैसे काम करता है, इसे समझो।

तुम्हारा मन एक भगोड़ा है, एक भागदौड़ ही है। वह कभी एक बिंदु पर नहीं टिकता है। वह निरंतर कहीं जा रहा है, गति कर रहा है, पहुंच रहा है। लेकिन वह कभी एक बिंदु पर नहीं टिकता है। वह एक विचार से दूसरे विचार की ओर, अ से ब की ओर यात्रा करता रहता है, लेकिन कभी वह अ पर नहीं टिकता है, कभी वह ब पर नहीं टिकता है। वह निरंतर गतिमान है।

यह याद रहे कि मन सदा चलायमान है। वह कहीं पहुंचने की आशा तो करता है, लेकिन कहीं पहुंचता नहीं है। वह पहुंच नहीं सकता है। मन की संरचना ही गतिमय है। मन केवल गति करता है। वह मन का अंतर्भूत स्वभाव है। गति ही उसकी प्रक्रिया है। अ से ब को, ब से स को, वह चलता ही चला जाता है।

अगर तुम अ या ब या किसी बिंदु पर ठहर गए तो मन तुमसे संघर्ष करेगा। वह कहेगा कि आगे चलो। क्योंकि अगर तुम रुक गए, तो मन तुरंत मर जाएगा। वह गति में रहकर ही जीता है। मन का अर्थ ही प्रक्रिया है। अगर तुमने गति नहीं की, तुम रुक गए, तो मन अचानक समाप्त हो जाएगा। वह नहीं बचेगा, केवल चेतना बचेगी।
चेतना तुम्हारा स्वभाव है। मन तुम्हारा कर्म है, चलने जैसा। इसे समझना कठिन है, क्योंकि हम समझते हैं कि मन कोई ठोस, वास्तविक वस्तु है। वह नहीं है। मन महज एक क्रिया है। यह कहना बेहतर होगा कि यह मन नहीं, मनन है। चलने की तरह यह एक प्रक्रिया है। चलना प्रक्रिया है, अगर तुम रुक जाओ, तो चलना समाप्त है। तुम तब नहीं कह सकते कि चलना बैठना है। तुम रुक जाओ, तो चलना समाप्त है। तुम रुक जाओ, तो चलना कहां है? चलना बद। पैर हैं, पर चलना नहीं है। पैर चल सकते है, लेकिन अगर रुक जा, चलना नहीं होगा।

चेतना पैर जैसी है, वह तुम्हारा स्वभाव है। मन चलने जैसा है, वह एक प्रक्रिया है। जब चेतना एक जगह से दूसरी जगह जाती है तब वह प्रक्रिया मन है। जब चेतना अ से ब और ब से स को जाती है तब यह गति मन है। अगर तुम गति को बंद कर दो, तो मन नहीं रहेगा। तुम चेतन हो, लेकिन मन नहीं है। जैसे पैर तो हैं, लेकिन चलना नहीं है। चलना क्रिया है, कर्म है; मन भी क्रिया है, कर्म है।

अगर तुम कहीं रुक जाओ तो मन संघर्ष करेगा, मन कहेगा, बढ़े चलो। मन हर तरह से तुम्हें आगे या पीछे या कहीं भी धकाने की चेष्टा करेगा। कहीं भी सही, लेकिन चलते रहो। अगर तुम जिद्द करो, अगर तुम मन की नहीं मानना चाहो, तो वह कठिन होगा। कठिन होगा, क्योंकि तुमने सदा मन का हुक्म माना है। तुमने कभी मन पर हुक्म नहीं किया है, तुम कभी उसके मालिक नहीं रहे। तुम हो नहीं सकते, क्योंकि तुमने कभी अपने को मन से तादात्म्यरहित नहीं किया है। तुम सोचते हो कि तुम मन ही हो। यह भूल कि तुम मन ही हो मन को पूरी स्वतंत्रता दिए देती है। क्योंकि तब उस पर मालकियत करने वाला, उसे नियंत्रण में रखने वाला कोई न रहा। तब कोई रहा ही नहीं, मन ही मालिक रह जाता है।

लेकिन मन की यह मालकियत तथाकथित है। वह स्वामित्व झूठा है। एक बार प्रयोग करो और तुम उसके स्वामित्व को नष्ट कर सकते हो। वह झूठा है। मन महज गुलाम है जो मालिक होने का दावा करता है। लेकिन उसकी यह दावेदारी इतनी पुरानी है, इतने जन्मों से उसने मालकियत का दावा किया है कि मालिक भी मानने लगा है कि गुलाम ही मालिक है। वह एक महज विश्वास है, धारणा है। तुम उसके विपरीत प्रयोग करके देखो और तुम्हें पता चलेगा कि यह धारणा सर्वथा निराधार थी।

यह पहला सूत्र कहता है : ‘या कल्पना करो कि मोर की पूंछ के पंचरंगे वर्तुल निस्सीम अंतरिक्ष में तुम्हारी पांच इंद्रियां हैं। अब उनके सौंदर्य को भीतर ही घुलने दो।’

भाव करो कि तुम्हारी पांच इंद्रियां पांच रंग हैं और वे पांच रंग समस्त अंतरिक्ष को भर रहे हैं। सिर्फ कल्पना करो कि तुम्हारी पंचेंद्रिया पांच रंग हैं, सुंदर—सुंदर रंग, सजीव रंग और वे अनंत आकाश में फैले हैं। और तब उन रंगों के बीच भ्रमण करो, उनके बीच गति करो और भाव करो कि तुम्हारे भीतर एक केंद्र है जहां ये रंग मिलते हैं। यह मात्र कल्पना है, लेकिन यह सहयोगी है। भाव करो कि ये पांचों रंग तुम्हारे भीतर प्रवेश कर रहे हैं और किसी बिंदु पर मिल रहे हैं।

ये पांचों रंग सच ही किसी बिंदु पर मिलेंगे और सारा जगत विलीन हो जाएगा। तुम्हारी कल्पना में पांच ही रंग हैं, जैसे मोर की पूंछ में पांच रंग हैं। और तुम्हारी कल्पना के रंग आकाश को भर देंगे, तुम्हारे भीतर गहरे उतर जाएंगे, किसी बिंदु पर मिल जाएंगे।

किसी भी बिंदु से काम चलेगा, लेकिन हारा बेहतर रहेगा। भाव करो कि सारा जगत रंग ही रंग हो गया है और वे रंग तुम्हारे नाभि केंद्र पर, तुम्हारे हारा के बिंदु पर मिल रहे हैं। उस बिंदु को देखो, उस बिंदु पर अवधान को एकाग्र करो और तब तक एकाग्र करो जब तक वह बिंदु विलीन न हो जाए। वह विलीन हो जाता है, क्योंकि वह भी कल्पना है। याद रहे कि केंद्रीभूत होने की जो कुछ भी हमने किया है सब कल्पना है। अगर तुम उस पर एकाग्र होओ, तो तुम अपने केंद्र पर स्‍थित हो जाओगे। तब विलीन हो जाएगा, तुम्‍हारे लिए संसार नहीं रहेगा।
इस ध्यान में केवल रंग है। तुम समूचे संसार को भूल गए हो, तुम सारे विषयों को भूल गए हो। तुमने केवल पांच रंग चुने हैं। कोई पांच रंग चुन लो। यह ध्यान खासकर उनके लिए है, जिनकी दृष्टि पैनी है, जिनकी रंग की संवेदना गहरी है। यह सबके लिए सहयोगी नहीं होगा। यदि तुम्हारे पास चित्रकार की दृष्टि नहीं है, रंगों की संवेदना नहीं है, यदि तुम रंगों की कल्पना नहीं कर सकते हो, तो यह कठिन है।

तुमने देखा होगा कि तुम्हारे सपने रंगहीन होते हैं। सौ में सिर्फ एक व्यक्ति रंगीन सपने देखता है। शेष सिर्फ स्याह और सफेद रंग देखते हैं। क्यों? क्यों सारा जगत रंगीन है और तुम्हारे सपने रंगहीन हैं? अगर तुममें से किसी को सपने रंगीन होते हों, तो यह ध्यान उसके लिए है। अगर कोई कभी कभी भी रंगीन सपने देखता है, तो यह ध्यान उसके काम का है। यह उसका ध्यान है।

और जो आदमी रंग के प्रति संवेदनहीन है उसको तुम कहो कि समूचे आकाश को रंग से भरा होने की कल्पना करो, तो वह यह कल्पना नहीं कर पाएगा। वह यदि कल्पना करने की कोशिश भी करेगा, वह लाल रंग की सोचेगा भी, तो लाल शब्द को देखेगा, लेकिन उसे कल्पना में लाल रंग दिखाई नहीं पड़ेगा। वह हरा शब्द तो कहेगा, शब्द भी वहां होगा, लेकिन हरियाली वहा नहीं होगी।

तो तुम अगर रंग के प्रति संवेदनशील हो, तो इस विधि का प्रयोग करो। पांच रंग हैं। समूचा जगत पांच रंग है, और वे रंग तुममें मिल रहे हैं। तुम्हारे भीतर कहीं गहरे में वे पांचों रंग मिल रहे हैं। उस बिंदु पर चित्त को एकाग्र करो और एकाग्र करो। उससे हटो नहीं, उस पर डटे रहो। मन को मत आने दो। रंगों के संबंध में, हरे, लाल और पीले रंगों के बारे में विचार मत करो। सोचो ही मत। बस, उन्हें अपने भीतर मिलते हुए देखो, उनके बारे में विचार मत करो। अगर तुमने विचार किया, तो मन प्रवेश कर गया। सिर्फ रंगों से भर जाओ, उन रंगों को अपने भीतर मिलने दो और तब उस मिलनबिंदु पर अवधान को केंद्रित करो। सोचो मत। एकाग्रता सोचना नहीं है, विचारणा नहीं है, मनन नहीं है।

तुम अगर सचमुच रंगों से भर जाओ और तुम एक इंद्रधनुष, एक मोर ही बन जाओ और तुम्हारा आकाश रंगमय हो जाए, तो उससे तुम्हें एक सौंदर्यबोध होगा, गहरा, गहरा सौंदर्यबोध। लेकिन उसके संबंध में विचार मत करो, यह मत कहो कि यह सुंदर है। विचारणा में मत चले जाओ। उस बिंदु पर एकाग्र होओ जहां ये रंग मिल रहे हैं और एकाग्रता को बढ़ाते जाओ, गहराते जाओ। वह विलीन हो जाएगा, क्योंकि वह मात्र कल्पना है। अगर तुम वहां एकाग्रता को गहराते हो, तो कल्पना नहीं टिक सकती; वह विलीन हो जाएगी।

संसार पहले ही विलीन हो चुका है, सिर्फ रंग रह गए थे। वे रंग तुम्हारी कल्पना थे और वे काल्पनिक रंग एक बिंदु पर मिल रहे थे। वह बिंदु भी काल्पनिक था। अब गहरी एकाग्रता से वह बिंदु भी विलीन हो जाएगा। अब तुम कहां रहोगे? अब तुम कहां हो? तुम अपने केंद्र में स्थित हो जाओगे। विषय कल्पना के द्वारा विलीन हुए हैं। और अब कल्पना एकाग्रता के द्वारा विलीन होगी। और विषयी की तरह केवल तुम बचोगे। विषयगत जगत भी विलीन हो चुका; तब तुम शुद्ध चेतना की भांति वहां रहोगे।

इसलिए सूत्र कहता है : ‘शून्य में या दीवार में किसी बिंदु पर……।’

यह सहयोगी होगा। अगर तुम रंगों की कल्पना नहीं कर सकते, तो दीवार पर किसी बिंदु से काम चलेगा। कोई भी चीज एकाग्रता के विषय के रूप में ले लो। अगर वह आंतरिक हो, अंतस का हो तो बेहतर। लेकिन फिर दो तरह के व्यक्तित्व होते हैं। जो लोग अंतर्मुखी हैं उनके लिए उनके भीतर ही सब रंगों के मिलने की धारणा आसान है। लेकिन जो बहिर्मुखी लोग हैं वे भीतर की धारणा नहीं बना सकते। वे बाहर की ही कल्पना कर सकते हैं, उनका चित्त बाहर ही यात्रा करता है। वे भीतर नहीं गति कर सकते, उनके भीतर कोई आंतरिकता नहीं है।

अंग्रेज दार्शनिक डेविड झूम ने कहा है, जब भी मैं भीतर जाता हूं वहां मुझे कोई आत्मा नहीं मिलती। जो भी मिलता है वे बाहर के प्रतिबिंब हैं कोई विचार, कोई भाव। कभी किसी आंतरिकता का दर्शन नहीं होता, सदा बाहरी जगत ही वहा प्रतिबिंबित मिलता है। यह श्रेष्ठतम बहिर्मुखी चित्त है। और डेविड ह्यूम सर्वाधिक बहिर्मुखी चित्त वालों में एक है।

इसलिए अगर तुम्हें भीतर कुछ धारणा के लिए न मिले और तुम्हारा मन पूछे कि यह आंतरिकता क्या है, तो अच्छा है कि दीवार पर किसी बिंदु का प्रयोग करो। 

लोग मेरे पास आते हैं और पूछते हैं कि भीतर कैसे जाया जाए? उनके लिए यह समस्या है। क्योंकि अगर तुम बहिर्गामिता ही जानते हो, तुम्हें अगर बाहर बाहर गति करना ही आता है, तो तुम्हारे लिए भीतर जाना कठिन होगा। और अगर तुम बहिर्मुखी हो, तो भीतर इस बिंदु का प्रयोग मत करो, उसे बाहर करो। नतीजा वही होगा। दीवार पर एक बिंदु बनाओ और उस पर चित्त को एकाग्र करो। लेकिन तब खुली आख से एकाग्रता साधनी होगी। अगर तुम भीतर केंद्र बनाते हो, तो बंद आंखों से एकाग्रता साधनी है।

दीवार पर बिंदु बनाओ और उस पर एकाग्र होओ। असली बात एकाग्रता के कारण घटती है, बिंदु के कारण नहीं। बाहर है या भीतर, यह प्रासंगिक नहीं है। यह तुम पर निर्भर है। अगर दीवार पर देख रहे हो, एकाग्र हो रहे हो, तो तब तक एकाग्रता साधो, जब तक वह बिंदु विलीन न हो जाए।

इस बात को खयाल में रख लो : ‘जब तक बिंदु विलीन न हो जाए।’

पलकों को बंद मत करो, क्योंकि उससे मन को फिर गति करने के लिए जगह मिल जाती है। इसलिए अपलक देखते रहो, क्योंकि पलक के गिरने से मन विचार में संलग्न हो जाता है। पलक के गिराने से अंतराल पैदा होता है और एकाग्रता नष्ट हो जाती है। इसलिए पलक झपकना नहीं है।

तुमने बोधिधर्म के विषय में सुना होगा। मनुष्य के पूरे इतिहास में जो बड़े ध्यानी हुए हैं वह उनमें से एक था। उसके संबंध में एक प्रीतिकर कथा कही जाती है। वह बाहर की किसी वस्तु पर ध्यान कर रहा था। उसकी आंखें झपक जाती थीं और ध्यान टूट टूट जाता था। तो उसने अपनी पलकों को उखाड़कर फेंक दिया। बहुत सुंदर कथा है कि उसने अपनी पलकों को उखाड़कर फेंक दिया और फिर ध्यान करना शुरू किया। कुछ हफ्तों के बाद उसने देखा कि केंद्रीभूत होने की जहां उसकी पलकें गिरी थीं उस स्थान पर कोई पौधे उग आए है।

यह घटना चीन के पहाड़ पर घटित हुई थी। उस पहाड़ नाम था टा था। इसलिए जो पौधे वहां उग आए थे उनका नाम टी पड़ा। और यही कारण है कि चाय जागरण में सहयोगी होती है। इसलिए जब तुम्हारी पलकें झपकने लगें और तुम नींद में उतरने लगो, तो एक प्याली चाय पी लो। वे बोधिधर्म की पलकें हैं। इसी वजह से झेन संत चाय को पवित्र मानते हैं। चाय कोई मामूली चीज नहीं है। वह पवित्र है, बोधिधर्म की आख की पलक है।

जापान में तो वे चायोत्सव करते हैं। प्रत्येक परिवार में एक चायघर होता है जहां धार्मिक अनुष्ठान के साथ चाय पी जाती है। वह पवित्र है। और बहुत ही ध्यानपूर्ण मुद्रा में चाय पी जाती है। जापान ने चाय के इर्द—गिर्द बड़े सुंदर अनुष्ठान निर्मित किए हैं। वे चायघर में ऐसे प्रवेश करते हैं जैसे वे किसी मंदिर में प्रवेश करते हों। तब चाय तैयार की जाएगी और हरेक व्यक्ति मौन होकर बैठेगा और समोवार के उबलते स्वर को सुनेगा। उबलती चाय का, उसके वाष्प का गीत सब सुनेंगे। वह कोई अदना वस्तु नहीं है, बोधिधर्म की आख की पलक है। और चूंकि बोधिधर्म खुली आंखों से जागने की कोशिश में लगा था, इसलिए चाय सहयोगी है। और चूंकि यह कथा टा पर्वत पर घटित हुई इसलिए वह टी कहलायी।

सच हो या न हो, यह कहानी सुंदर है। अगर तुम बाहर एकाग्रता साध रहे हो, तो अपलक देखना जरूरी है। समझो कि तुम्हारे पलकें नहीं हैं। पलकों को उखाड़ फेंकने का यही अर्थ है। तुम्हें आंखें तो हैं, लेकिन उनके ऊपर झपने को पलकें नहीं हैं। और तब तक एकाग्रता साधो जब तक बिंदु विलीन नहीं हो जाता।

बिंदु विलीन हो जाता है। अगर तुम लगे रहे, अगर तुमने संकल्प के साथ मन को चलायमान नहीं होने दिया, तो बिंदु विलीन हो जाता है। अगर तुम उस बिंदु पर एकाग्र थे और तुम्हारे लिए संसार में इस बिंदु के अलावा कुछ भी नहीं था, अगर सारा संसार पहले ही विलीन हो चुका था और यही बिंदु बचा था और यह बिंदु भी विदा हो गया, तो अब चेतना कहीं और गति नहीं कर सकती, उसके लिए जाने को कहीं न रहा; सारे आयाम बंद हो गए। अब चित्त अपने ऊपर फेंक दिया जाता है, अब चेतना अपने आप में लौट आती है। और तब तुम केंद्र में प्रविष्ट हो गए।

तो चाहे भीतर हो या बाहर, तब तक एकाग्रता साधो जब तक बिंदु विसर्जित नहीं होता। यह बिंदु दो कारणों से विसर्जित होगा। अगर वह भीतर है, तो काल्पनिक है और इसलिए विलीन हो जाएगा। और अगर यह बाहर है, तो वह काल्पनिक नहीं असली है, तुमने दीवार पर बिंदु बनाया है और उस पर अवधान को एकाग्र किया है, तो यह बिंदु क्यों विलीन होगा? भीतर के बिंदु का विलीन होना तो समझा जा सकता है, क्योंकि वह वहा था नहीं, तुमने उसे कल्पित कर लिया था। लेकिन दीवार पर तो वह है, वह क्यों विलीन होगा?

वह एक विशेष कारण से विलीन होता है। अगर तुम किसी बिंदु पर चित्त को एकाग्र करते हो, तो यथार्थ में वह बिंदु विसर्जित नहीं होता, तुम्हारा मन ही विसर्जित होता है। अगर तुम किसी बाह्य बिंदु पर एकाग्र हो रहे हो, तो मन की गति बंद हो जाती है। और मन गति के बिना नहीं जी सकता है। वह रुक जाता है, वह मर जाता है। और जब मन रुक जाता है, तो तुम बाहर की किसी भी चीज के साथ संबंधित नहीं हो सकते हो। तब अचानक सभी सेतु टूट जाते हैं, क्योंकि मन ही तो सेतु है।

जब तुम दीवार पर, किसी बिंदु पर मन को एकाग्र कर रहे हो, तो तुम्हारा मन क्या करता है? वह निरंतर तुमसे बिंदु तक और बिंदु से तुम तक उछलकूद करता रहता है। एक सतत उछलकूद की प्रक्रिया चलती है। जब मन विचलित होता है, तो तुम बिंदु को नहीं देख सकते। क्योंकि तुम यथार्थ आख में से नहीं, मन से और आख से बिंदु को देखते हो। अगर मन वहां न रहे, तो आंखें काम नहीं कर सकतीं। तुम दीवार को घूरते रह सकते हो, लेकिन बिंदु नहीं दिखाई पड़ेगा। क्योंकि मन न रहा, सेतु टूट गया। बिंदु तो सच है, वह है। इसलिए जब मन लौट आएगा, तो फिर उसे देख सकोगे। लेकिन अभी नहीं देख सकते, अभी तुम बाहर गति नहीं कर सकते। अचानक तुम अपने केंद्र पर हो।

यह केंद्रस्थता तुम्हें तुम्हारे अस्तित्वगत आधार के प्रति जागरूक बना देगी, तब तुम जानोगे कि कहां से तुम अस्तित्व के साथ संयुक्त हो, जुड़े हो। तुम्हारे भीतर ही वह बिंदु है जो समस्त अस्तित्व के साथ जुड़ा हुआ है, जो उसके साथ एक है। और जब एक बार इस केंद्र को जान गए, तो तुम घर आ गए। तब यह संसार परदेश नहीं रहा और तुम परदेशी नहीं रहे। तब यह जगत तुम्हारा घर है, तब तुम संसार के हो गए। तब किसी संघर्ष की, किसी लड़ाई की जरूरत न रही। तब तुम्हारे और अस्तित्व के बीच शत्रुता न रही, अस्तित्व तुम्हारी मां हो गई। यह अस्तित्व ही है जो तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हुआ और बोधपूर्ण हुआ है। यह अस्तित्व ही है जो तुम्हारे भीतर प्रस्फुटित हुआ है। यह अनुभूति, यह प्रतीति, यह घटना, और फिर दुख नहीं रहेगा। तब आनंद कोई घटना नहीं है ऐसी घटना, जो आती है और चली जाती है तब आनंद तुम्हारा स्वभाव है। जब कोई अपने केंद्र में स्थित होता है, तो आनंद स्वाभाविक है। तब कोई आनंदपूर्ण हो जाता है।

फिर धीरे धीरे उसे यह बोध भी जाता रहता है कि वह आनंदपूर्ण है। क्योंकि बोध के लिए विपरीत का होना जरूरी है। अगर तुम दुखी हो, तो आनंदित होने पर तुम्हें आनंद की अनुभुति होगी। लेकिन जब दुख नहीं है, तो धीरे धीरे तुम दुख को पूरी तरह भूल जाते हो। और तब तुम अपने आनंद को भी भूल जाते हो। और जब तुम अपने आनंद को भी भूलते हो तभी तुम सच में आनंदित हो। तब वह स्वाभाविक है। जैसे तारे चमकते हैं, नदियां बहती हैं, वैसे ही तुम आनंदपूर्ण हो। तुम्हारा होना ही आनंदमय है। तब यह कोई घटना नहीं है, तब तुम ही आनंद हो।


तंत्र सूत्र 

ओशो 

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