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Saturday, October 3, 2015

कुण्डलिनी में तीव्र श्वाँस का प्रयोजन

तुम्हारे भीतर आक्सीजन को बढाने का प्रयोजन है। उससे तुम्हारे भीतर का संतुलन बदलता है: तुम सोने की तरफ उन्मुख न रहकर जागने की तरफ उन्मुख होते हो। और अगर यह मात्रा तेजी से और एकदम बढ़ाई जा सके, तो तुम्हारे भीतर संतुलन में एकदम से इतना फर्क होता है जैसे तराजू का एक पल्ला जो नीचे लगा था, एकदम ऊपर चला गया; ऊपर का तराजू का पल्ला बिलकुल नीचे आ गया। अगर झटके के साथ तुम्हारे भीतर का संतुलन बदला जा सके, तो उसका तुम्हें अनुभव भी जल्दी होगा। अगर पल्ला बहुत धीरे  धीरे  धीरे  धीरे आए, तुम्हें पता नहीं चलेगा कि कब बदलाहट हो गई। इसलिए मैं तीव्र श्वास के प्रयोग के लिए कह रहा हूं—कि इतने जोर से परिवर्तन करो कि दस मिनट में तुम एक स्थिति से ठीक दूसरी स्थिति में प्रवेश कर जाओ, और तुम साफ देख सको। क्योंकि जितने जल्दी चीज बदलती है, तभी देखी जा सकती है। 
जैसे कि हम सब जवान से के होते हैं, बच्चे से जवान होते हैं, लेकिन हम कभी पता नहीं लगा पाते कि कब हम बच्चे थे और कब जवान हो गए; और कब हम जवान थे और कब हम बूढ़े हो गए। अगर कोई तारीख हमसे पूछे कि किस तारीख को आप जवानी से के हुए हैं, तो हम तारीख न बता सकेंगे। बल्कि बड़ी भ्रांति चलती रहती है : का मन में समझ ही नहीं पाता कि बूढ़ा हो गया; क्योंकि उसकी जवानी और उसके बुढ़ापे के बीच कोई गैप नहीं है, कोई तीव्रता नहीं है।

बच्चा कभी नहीं समझ पाता कि अब वह जवान हो गया, वह अपने बचपन के ही ढंग अख्तियार किए चला जाता है। दूसरों को वह जवान दिखने लगता है, उसको पता नहीं चला कि वह जवान हो गया है। मां—बाप समझते हैं जिम्मेवार होना चाहिए, यह होना चाहिए, वह होना चाहिए। वह अपने को बच्चा समझे जा रहा है! क्योंकि कभी ऐसी तीव्रता से कोई घटना नहीं घटी जिसमें उसको पता चले कि अब वह बच्चा नहीं रहा, अब जवान हो गया है।

का आदमी जवान की तरह व्यवहार किए चला जाता है। उसे पता नहीं चल पा रहा है कि वह का हो गया। पता कैसे चले? क्योंकि पता चलने के लिए तीव्र संक्रमण चाहिए। अगर ऐसा हो कि एक आदमी फलां तारीख को घंटे भर में जवान से बूढ़ा हो जाए, तो किसी को कहने की जरूरत न होगी कि तुम बूढ़े हो गए हो। एक बच्चा एक घंटे में फलां तारीख को बीस साल का पूरा हो और एकदम जवान हो जाए, तो किसी को, बाप को कहना न पड़ेगा कि अब तुम्हारी उम्र बड़ी हो गई है, अब जरा यह बचपना छोड़ो। यह किसी को कहने की जरूरत नहीं, वह खुद ही जान लेगा कि बात घट गई है; अब मैं दूसरा आदमी हूं।

तो मैं इतना ही तीव्र संक्रमण चाहता हूं कि तुम पहचान सको इन दो स्थितियों का फर्क कि तुम्हारा सोया हुआ चित्त, तुम्हारा सोया हुआ व्यक्तित्व, वह तुम्हारी स्लीपिंग कांशसनेस; और यह तुम्हारी अवेकंड, जागी हुई, प्रबुद्ध चेतना। यह इतनी तीव्रता से, झटके से होना चाहिए जंप की तरह, छलांग की तरह कि तुम पहचान पाओ कि फर्क हो गया। यह पहचान काम पड़ेगी। यह पहचान बहुत कीमत की है।

इसलिए मैं ऐसे प्रयोगों का पक्षपाती हूं जो तुम्हें तीव्रता से रूपांतरित करते हों। अगर बहुत वक्त ले लें, तो तुम कभी समझ न पाओगे कि क्या हो रहा है। और खतरा क्या है कि अगर तुम समझ न पाओ, तो हो सकता है थोड़ा बहुत रूपांतरण भी हो जाए, लेकिन उससे तुम्हारी समझ गहरी न हो पाए। कई बार ऐसा हो जाता है; कई मौकों पर ऐसा होता है कि एक आदमी बहुत बार ऐसा होता है कि आत्मिक अनुभव के बहुत निकट पहुंच जाता है अनायास, चलते चलते कहीं से, लेकिन झटके से नहीं, तीव्रता से नहीं, तो वह पकड़ नहीं पाता कि क्या हुआ। और उसकी वह जो व्याख्या करता है वह कभी भी ठीक नहीं होती; क्योंकि उसकी व्याख्या के लिए उतना फासला नहीं होता। बहुत मौकों पर ऐसी घटना घटती है जब कि तुम करीब होते हो एक नये अनुभव के, लेकिन तुम उसको टाल जाओगे; तुम उसकी व्याख्या अपने पुराने हिसाब में ही कर लोगे, क्योंकि वह इतने धीरे धीरे हुआ है कि उसका कभी पता नहीं चलेगा।

एक आदमी को मैं जानता हूं कि वह भैंस को उठा लेता है। उसके घर भैंसें हैं। और वह बचपन से, जब भैंस उसके घर में पैदा हुई होगी तब से उसे उठाता रहा है रोज; उसे उठाकर घूमता रहा है। भैंस रोज धीरे धीरे बड़ी होती गई है और रोज उसका भी उठाने का बल थोड़ा  थोड़ा बढ़ता चला गया। अब वह पूरी भैंस को उठा लेता है। अब वह चमत्कार मालूम होता है। हालांकि उसको भी नहीं लगता कि यह कोई चमत्कार है। दूसरों को लगता है कि बड़ा मुश्किल का मामला है, भैंस को उठा ले एक आदमी! मगर वह इतना क्रमिक हुआ है कि उसे भी पता नहीं है। और हमें यह चमत्कार दिखता है, क्योंकि हमारे लिए बड़ा फासला मालूम हो रहा है दोनों में, उसमें कहीं तालमेल नहीं दिखता है हम उठा नहीं सकते, वह उठा रहा है!

जिन खोजा तिन पाईया 

ओशो 

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