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Thursday, October 1, 2015

भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर विचार को मन के सामने करो। फिर सहस्रार तक रूप को श्वास तत्व से प्राण से भरने दो वहां वह प्रकाश की तरह बरसेगा।

पांचवीं श्वास विधि:
भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर विचार को मन के सामने करो। फिर सहस्रार तक रूप को श्वास— तत्व से प्राण से भरने दो वहां वह प्रकाश की तरह बरसेगा।

ही विधि थी जो पाइथागोरस को दी गई थी। पाइथागोरस इसे लेकर यूनान वापस गए, और वे पश्चिम के समस्त रहस्यवाद के आधार बन गए। पश्चिम में अध्यात्मवाद के वे पिता हैं। यह विधि बहुत गहरी विधियों में से एक है। इसे समझने की कोशिश करो।

‘भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर……।’

आधुनिक शरीरशास्त्र कहता है, वैज्ञानिक शोध कहती है कि दो भृकुटियों के बीच जो ग्रंथि है वह शरीर का सबसे रहस्यपूर्ण भाग है। जिसका नाम पाइनिअल ग्रंथि है। यही तिब्बतियों की तीसरी आंख है और यही शिवनेत्र है तंत्र के शिव का त्रिनेत्र। दो आंखों के बीच एक तीसरी आंख भी है, लेकिन यह सक्रिय नहीं है। यह है, और यह किसी भी समय सक्रिय हो सकती है। निसर्गत यह सक्रिय नहीं है। इसको सक्रिय करने के लिए इसके संबंध में तुम को कुछ करना पड़ेगा। यह अंधी नहीं है, सिर्फ बंद है। यह विधि तीसरी आंख को खोलने की विधि है।

‘भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर…।’

आंखें बंद कर लो और फिर दोनों आंखों को बंद रखते हुए भौंहों के बीच में दृष्टि को स्थिर करो—मानो कि दोनों आंखों से तुम देख रहे हो। और समग्र अवधान को वहीं लगा दो। यह विधि एकाग्र होने की सबसे सरल विधियों में से है। शरीर के किसी दूसरे भाग में इतनी आसानी से तुम अवधान को नहीं उपलब्ध हो सकते। यह ग्रंथि अवधान को अपने में समाहित करने में कुशल है। यदि तुम इस पर अवधान दोगे तो तुम्हारी दोनों आंखें तीसरी आंख से सम्मोहित हो जाएंगी। वे थिर हो जाएंगी, वे वहां से नहीं हिल सकेंगी। यदि तुम शरीर के किसी दूसरे हिस्से पर अवधान दो तो वहां कठिनाई होगी। तीसरी आंख अवधान को पकड़ लेती है, अवधान को खींच लेती है। अवधान के लिए यह चुंबक का काम करती है।

इसलिए दुनिया भर की सभी विधियों में इसका समावेश किया गया है। अवधान को प्रशिक्षित करने में यह सरलतम है, क्योंकि इसमें तुम ही चेष्टा नहीं करते, यह ग्रंथि भी तुम्हारी मदद करती है। यह चुंबकीय है। तुम्हारे अवधान को यह बलपूर्वक खींच लेती है।

तंत्र के पुराने ग्रंथों में कहां गया है कि अवधान तीसरी आंख का भोजन है। यह भूखी है, जन्मों—जन्मों से भूखी रही है। जब तुम इसे अवधान देते हो यह जीवित हो उठती है। इसे भोजन मिल गया है। और जब तुम जान लोगे कि अवधान इसका भोजन है, जान लोगे कि तुम्हारे अवधान को यह चुंबक की तरह खींच लेती है, तब अवधान कठिन नहीं रह जाएगा। सिर्फ सही बिंदु को जानना है।

इसलिए आंख बंद कर लो और अवधान को दोनों आंखों के बीच में घूमने दो और उस बिंदु को अनुभव करो। जब तुम उस बिंदु के करीब होगे, अचानक तुम्हारी आंखें थिर हो जाएंगी। और जब उन्हें हिलाना कठिन हो जाए तब जानो कि सही बिंदु मिल गया।

‘भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर विचार को मन के सामने करो।’

अगर यह अवधान प्राप्त हो जाए तो पहली बार एक अदभुत बात तुम्हारे अनुभव में आएगी। पहली बार तुम देखोगे कि तुम्हारे विचार तुम्हारे सामने चल रहे हैं, तुम साक्षी हो जाओगे। जैसे कि सिनेमा के पर्दे पर दृश्य देखते हो, वैसे ही तुम देखोगे कि विचार आ रहे हैं। और तुम साक्षी हो। एक बार तुम्हारा अवधान त्रिनेत्र केंद्र पर स्थिर हो जाए, तुम तुरंत विचारों के साक्षी हो जाओगे।

आमतौर से तुम साक्षी नहीं होते, तुम विचारों के साथ तादात्म्य कर लेते हो। यदि क्रोध है तो तुम क्रोध हो जाते हो। यदि एक विचार चलता है तो उसके साक्षी होने की बजाय तुम विचार के साथ एक हो जाते हो, उससे तादात्म्य करके साथ—साथ चलने लगते हो। तुम विचार ही बन जाते हो, विचार का रूप ले लेते हो। जब कामवासना होती है तब तुम कामवासना बन जाते हो, जब क्रोध उठता है तब क्रोध बन जाते हो, और जब लोभ उठता है तब लोभ ही बन जाते हो। कोई भी विचार तुम्हारे साथ एकात्म हो जाता है और उसके और तुम्हारे बीच दूरी नहीं रहती।

लेकिन तीसरी आंख पर स्थिर होते ही तुम एकाएक साक्षी हो जाते हो। तीसरी आंख के जरिए तुम साक्षी बनते हो। इस शिवनेत्र के द्वारा तुम विचारों को वैसे ही चलते देख सकते हो जैसे आसमान पर तैरते बादलों को, या राह पर चलते लोगों को देखते हो।

जब तुम अपनी खिड़की से आकाश को या राह चलते लोगों को देखते हो तब तुम उनसे तादात्म्य नहीं करते। तब तुम अलग होते हो, मात्र दर्शक रहते हो—बिलकुल अलग। वैसे ही अब जब क्रोध आता है तब तुम उसे एक विषय की तरह देखते हो। अब तुम यह नहीं सोचते कि मुझे क्रोध हुआ, तुम यही अनुभव करते हो कि तुम क्रोध से घिरे हो, क्रोध की एक बदली तुम्हारे चारों ओर घिर गई। और जब तुम खुद क्रोध नहीं रहे तब क्रोध नपुंसक हो जाता है। तब वह तुमको नहीं प्रभावित कर सकता, तब तुम अस्पर्शित रह जाते हो। क्रोध आता है और चला जाता है, और तुम अपने में केंद्रित रहते हो। 

यह पांचवीं विधि साक्षीत्व को प्राप्त करने की विधि है।
 
‘भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर विचार को मन के सामने करो।’

अब अपने विचारों को देखो, विचारों का साक्षात्कार करो।

‘फिर सहस्रार तक रूप को श्वासतत्व से, प्राण से भरने दो। वहा वह प्रकाश की तरह बरसेगा।’

जब अवधान भृकुटियों के बीच शिवनेत्र के केंद्र पर स्थिर होता है, तब दो चीजें घटित होती हैं। एक कि तुम एकाएक साक्षी बन जाते हो।

और यही चीज दो ढंगों से हो सकती है। एक, तुम साक्षी हो जाओ तो तुम तीसरी आंख पर थिर हो जाते हो। साक्षी हो जाओ, जो भी हो रहा हो उसके साक्षी रहो। तुम बीमार हो, शरीर में पीड़ा है, तुम को दुख और संताप है, जो भी हो, तुम उसके साक्षी रहो, जो भी हो, उससे तादात्म्य न करो। बस साक्षी रहो दर्शक भर। और यदि साक्षीत्व संभव हो जाए तो तुम तीसरे नेत्र पर स्थिर हो जाओगे।

इससे उलटा भी हो सकता है। यदि तुम तीसरी आंख पर स्थिर हो जाओ, तो साक्षी हो जाओगे। ये दोनों एक ही बात हैं।

इसलिए पहली बात तीसरी आंख पर केंद्रित होते ही साक्षी आत्मा का उदय होगा।

अब तुम अपने विचारों का सामना कर सकते हो। और दूसरी बात और अब तुम श्वास प्रश्वास की सूक्ष्म और कोमल तरंगों को भी अनुभव कर सकते हो। अब तुम श्वसन के रूप को ही नहीं, उसके तत्व को, सार को, प्राण को भी समझ सकते हो।

पहले तो यह समझने की कोशिश करें कि ‘रूप’ और ‘श्वासतत्व’ का क्या अर्थ है। जब तुम श्वास लेते हो, तब सिर्फ वायु की ही श्वास नहीं लेते। वैज्ञानिक तो यही कहते हैं कि तुम वायु की ही श्वास लेते हो, जिसमें आक्सीजन, हाइड्रोजन तथा अन्य तत्व रहते हैं। वे कहते हैं कि तुम वायु की श्वास लेते हो।

लेकिन तंत्र कहता है कि हवा तो मात्र वाहन है, असली चीज नहीं। असल में तुम प्राण की श्वास लेते हो। हवा तो माध्यम भर है, प्राण उसका सत्य है, सार है। तुम न सिर्फ हवा की, बल्कि प्राण की श्वास लेते हो।

आधुनिक विज्ञान अभी नहीं जान सका है कि प्राण जैसी कोई वस्तु भी है। लेकिन कुछ शोधकर्ताओं ने कुछ रहस्यमयी चीज का अनुभव तो किया है। श्वास में सिर्फ हवा ही हम नहीं लेते, यह बहुत से आधुनिक शोधकर्ताओं ने अनुभव किया है। विशेषकर एक नाम उल्लेखनीय है, वह है जर्मन मनोवैज्ञानिक विलहेम रेख का, जिसने इसे आरगेन एनर्जी या जैविक ऊर्जा का नाम दिया। वह प्राण ही है। वह कहता है कि जब आप श्वास लेते हैं, तब हवा तो मात्र आधार है, पात्र है, जिसके भीतर एक रहस्यपूर्ण तत्व है, जिसे आरगेन या प्राण या एलेन वाइटल कह सकते हैं। लेकिन वह बहुत सूक्ष्म है। वास्तव में वह भौतिक नहीं है, पदार्थगत नहीं है। हवा भौतिक है, पात्र भौतिक है, लेकिन उसके भीतर से कुछ सूक्ष्म, अलौकिक तत्व चल रहा है।

इसका प्रभाव अनुभव किया जा सकता है। जब तुम किसी प्राणवान व्यक्ति के पास होते हो, तो तुम अपने भीतर किसी शक्ति को उगते देखते हो। और जब किसी बीमार के पास होते हो, तो तुमको लगता है कि तुम चूसे जा रहे हो, तुम्हारे भीतर से कुछ निकाला जा रहा है। जब तुम अस्पताल जाते हो, तब थके— थके क्यों अनुभव करते हो? वहां चारों ओर से तुम चूसे जाते हो। अस्पताल का पूरा माहौल बीमार होता है और वहां सब किसी को अधिक प्राण की, अधिक एलेन वाइटल की जरूरत है। इसलिए वहा जाकर अचानक तुम्हारा प्राण तुमसे बहने लगता है। जब तुम भीड़ में होते हो, तो तुम घुटन महसूस क्यों करते हो? इसलिए कि वहां तुम्हारा प्राण चूसा जाने लगता है। और जब तुम प्रातःकाल अकेले आकाश के नीचे या वृक्षों के बीच होते हो, तब फिर अचानक तुम अपने में किसी शक्ति का, प्राण का उदय अनुभव करते हो। प्रत्येक को एक खास स्पेस की जरूरत है। और जब वह स्पेस नहीं मिलता है, तो तुमको घुटन महसूस होती है।

विलहेम रेख ने कई प्रयोग किए। लेकिन उसे पागल समझा गया। विज्ञान के भी अपने अंधविश्वास हैं। और विज्ञान बहुत रूढ़िवादी होता है। विज्ञान अभी भी नहीं समझता है कि हवा से बढ़कर कुछ है; वह प्राण है। लेकिन भारत सदियों से उस पर प्रयोग कर रहा है।

तुमने सुना होगा शायद देखा भी हो कि कोई व्यक्ति कई दिनों के लिए भूमिगत समाधि में प्रवेश कर गया, जहां हवा का कोई प्रवेश नहीं था। 1880 में मिस्र में एक आदमी चालीस वर्षों के लिए समाधि में चला गया था। जिन्होंने उसे गाड़ा था वे सभी मर गए, क्योंकि वह 1920 में समाधि से बाहर आने वाला था।


1920 में किसी को भरोसा नहीं था कि वह जीवित मिलेगा। लेकिन वह जीवित था और उसके बाद भी वह दस वर्षों तक जीवित रहा। वह बिलकुल पीला पड़ गया था, परंतु जीवित था। और उसको वहां हवा मिलने की कोई संभावना नहीं थी।

डाक्टरों ने तथा दूसरों ने उससे पूछा कि इसका रहस्य क्या है? उसने कहां, हम नहीं जानते; हम इतना ही जानते हैं कि प्राण कहीं भी प्रवेश कर सकता है, और वह है। हवा वहा नहीं प्रवेश कर सकती, लेकिन प्राण कर सकता है।

एक बार तुम जान जाओ कि श्वास के बिना भी कैसे तुम प्राण को सीधे ग्रहण कर सकते हो, तो तुम सदियों तक के लिए भी समाधि में जा सकते हो।

तीसरी आंख पर केंद्रित होकर तुम श्वास के सार तत्व को, श्वास को नहीं, श्वास के सार तत्व प्राण को देख सकते हो। और अगर तुम प्राण को देख सके, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए जहां से छलांग लग सकती है, क्रांति घटित हो सकती है।

सूत्र कहता है. ‘सहस्रार तक रूप को प्राण से भरने दो।’

और जब तुम को प्राण का एहसास हो, तब कल्पना करो कि तुम्हारा सिर प्राण से भर गया है। सिर्फ कल्पना करो, किसी प्रयत्न की जरूरत नहीं है। और मैं बताऊंगा कि कल्पना कैसे काम करती है। जब तुम त्रिनेत्रबिंदु पर स्थिर हो जाओ तब कल्पना करो, और चीजें आप ही और तुरंत घटित होने लगती हैं।

अभी तुम्हारी कल्पना भी नपुंसक है। तुम कल्पना किए जाते हो और कुछ भी नहीं होता। लेकिन कभी—कभी अनजाने साधारण जिंदगी में भी चीजें घटित होती हैं। तुम अपने मित्र की सोच रहे हो और अचानक दरवाजे पर दस्तक होती है। तुम कहते हो कि सांयोगिक था कि मित्र आ गया। कभी तुम्हारी कल्पना संयोग की तरह भी काम करती है।

लेकिन जब भी ऐसा हो, तो याद रखने की चेष्टा करो और पूरी चीज का विश्लेषण करो। जब भी लगे कि तुम्हारी कल्पना सच हुई है, तुम भीतर जाओ और देखो। कहीं न कहीं तुम्हारा अवधान तीसरे नेत्र के पास रहा होगा। दरअसल यह संयोग नहीं है। यह वैसा दिखता है, क्योंकि गुह्य विज्ञान का तुमको पता नहीं है। अनजाने ही तुम्हारा मन त्रिनेत्रकेंद्र के पास चला गया होगा। और अवधान यदि तीसरी आंख पर है तो किसी घटना के सृजन के लिए उसकी कल्पना काफी है।

यह सूत्र कहता है कि जब तुम भृकुटियों के बीच स्थिर हो और प्राण को अनुभव करते हो, तब रूप को भरने दो। अब कल्पना करो कि प्राण तुम्हारे पूरे मस्तिष्क को भर रहा है विशेषकर सहस्रार को जो सर्वोच्च मनस केंद्र है। उस क्षण तुम कल्पना करो और वह भर जाएगा। कल्पना करो कि वह प्राण तुम्हारे सहस्रार से प्रकाश की तरह बरसेगा, और वह बरसने लगेगा। और उस प्रकाश की वर्षा में तुम ताजा हो जाओगे, तुम्हारा पुनर्जन्म हो जाएगा, तुम बिलकुल नए हो जाओगे। आंतरिक जन्म का यही अर्थ है।

यहां दो बातें हैं। एक, तीसरी आंख पर केंद्रित होकर तुम्हारी कल्पना पुंसत्व को, शुद्धि को उपलब्ध हो जाती है। यही कारण है कि शुद्धता पर, पवित्रता पर इतना बल दिया गया है। इस साधना में उतरने के पहले शुद्ध बनें।
तंत्र के लिए शुद्धि कोई नैतिक धारणा नहीं है। शुद्धि इसलिए अर्थपूर्ण है कि यदि तुम तीसरी आंख पर स्‍थिर हुए तुम्हारा मन अशुद्ध रहा, तो तुम्हारी कल्पना खतरनाक सिद्ध हो सकती है तुम्हारे लिए भी और दूसरों के लिए भी। यदि तुम किसी की हत्या करने की सोच रहे हो, उसका महज विचार भी मन में है, तो सिर्फ कल्पना से उस आदमी की मृत्यु घटित हो जाएगी। यही कारण है कि शुद्धता पर इतना जोर दिया जाता है।

पाइथागोरस को विशेष उपवास और प्राणायाम से गुजरने को कहां गया, क्योंकि यहां बहुत खतरनाक भूमि से यात्री गुजरता है। जहां भी शक्ति है, वहां खतरा है। यदि मन अशुद्ध है तो शक्ति मिलने पर आपके अशुद्ध विचार शक्ति पर हावी हो जाएंगे।

कई बार तुमने हत्या करने की सोची है; लेकिन भाग्य से वहां कल्पना ने काम नहीं किया। यदि वह काम करे, यदि वह तुरंत वास्तविक हो जाए तो वह दूसरों के लिए ही नहीं तुम्हारे लिए भी खतरनाक सिद्ध होगी। क्योंकि कितनी ही बार तुमने आत्महत्या की भी सोची है। अगर मन तीसरी आंख पर केंद्रित है तो आत्महत्या का विचार भी आत्महत्या बन जाएगा। तुमको विचार बदलने का समय भी नहीं मिलेगा। वह तुरंत घटित हो जाएगी।

तुमने किसी को सम्मोहित होते देखा होगा। जब कोई सम्मोहित किया जाता है, तब सम्मोहनविद जो भी कहता है, सम्मोहित व्यक्ति तुरंत उसका पालन करता है। आदेश कितना ही बेहूदा हो, तर्कहीन हो, असंभव ही क्यों न हो, सम्मोहित व्यक्ति उसका पालन करता है। क्या होता है?

यह पांचवीं विधि सब सम्मोहन की जड़ में है। जब कोई सम्मोहित किया जाता है, तब उसे एक विशेष बिंदु पर, किसी प्रकाश पर या दीवार पर लगे किसी चिह्न पर या किसी भी चीज पर या सम्मोहक की आंख पर ही अपनी दृष्टि केंद्रित करने को कहां जाता है। और जब तुम किसी खास बिंदु पर दृष्टि केंद्रित करते हो, उसके तीन मिनट के अंदर तुम्हारा आंतरिक अवधान तीसरी आंख की ओर बहने लगता है, तुम्हारे चेहरे की मुद्रा बदलने लगती है। और सम्मोहनविद जानता है कि कब तुम्हारा चेहरा बदलने लगा। एकाएक चेहरे से सारी शक्ति गायब हो जाती है। वह मृतवत हो जाता है, मानो गहरी तंद्रा में पड़ा हो। जब ऐसा होता है, सम्मोहक को उसका पता हो जाता है। उसका अर्थ हुआ कि तीसरी आंख अवधान को पी रही है। आपका चेहरा पीला पड़ गया है, पूरी ऊर्जा त्रिनेत्र केंद्र की ओर बह रही है।

अब सम्मोहित करने वाला तुरंत जान जाता है कि जो भी कहां जाएगा, वह घटित होगा। वह कहता है कि अब तुम गहरी नींद में जा रहे हो, और तुम तुरंत सो जाते हो। वह कहता है कि अब तुम बेहोश हो रहे हो, और तुम बेहोश हो जाते हो। अब कुछ भी किया जा सकता है। अब अगर वह कहे कि तुम नेपोलियन या हिटलर हो गए हो तो तुम हो जाओगे। तुम्हारी मुद्रा बदल जाएगी। आदेश पाकर तुम्हारा अचेतन उसको वास्तविक बना देता है। अगर तुम किसी रोग से पीड़ित हो तो रोग को हटने का आदेश दिया जा सकता है, और रोग दूर हो जाएगा। या कोई नया रोग भी पैदा किया जा सकता है।

यही नहीं, सड़क पर से एक कंकड़ उठाकर अगर सम्मोहनविद तुम्हारी हथेली पर रख दे और कहे कि यह अंगारा तो तुम तेज गर्मी महसूस करोगे और तुम्हारी हथेली जल जाएगी मानसिक तल पर नहीं, वास्तव में ही। वास्तव में तुम्हारी चमड़ी जल जाएगी और तुमको जलन महसूस होगी। क्या होता है? अंगारा नहीं, बस एक मामूली कंकड़ है, वह भी ठंडा, फिर यह जलना कैसे संभव होता है?

तुम तीसरी आंख पर केंद्रित हो और सम्मोहनविद तुमको सुझाव देता है और वह सुझाव वास्तविक हो जाता है। यदि सम्मोहनविद कहे कि अब तुम मर गए, तो तुम तुरंत मर जाओगे। तुम्हारी हृदय—गति रुक जाएगी, रुक ही जाएगी।

यह होता है त्रिनेत्र के चलते। त्रिनेत्र के लिए कल्पना और वास्तविकता दो चीजें नहीं हैं। कल्पना ही तथ्य है। कल्पना करें और वैसा हो जाएगा। स्वप्न और यथार्थ में फासला नहीं है। स्वप्न देखो और वह सच हो जाएगा।
यही कारण है कि शंकर ने कहां कि यह संसार परमात्मा के स्वप्न के सिवाय और कुछ नहीं है यह परमात्मा की माया है। यह इसलिए कि परमात्मा तीसरी आंख में बसता है सदा, सनातन से। इसलिए परमात्मा जो स्वप्न देखता है, वह सच हो जाता है। और यदि तुम भी तीसरी आंख में थिर हो जाओ तो तुम्हारे स्वप्न भी सच होने लगेंगे।

सारिपुत्र बुद्ध के पास आया। उसने गहरा ध्यान किया। तब बहुत चीजें घटित होने लगीं, बहुत तरह के दृश्य उसे दिखाई देने लगे। जो भी ध्यान की गहराई में जाता है उसे यह सब दिखाई देने लगता है। स्वर्ग और नरक, देवता और दानव, सब उसे दिखाई देने लगे। और वे ऐसे वास्तविक थे कि सारिपुत्र बुद्ध के पास दौडा गया और बोला कि ऐसे ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं। बुद्ध ने कहां, वे कुछ नहीं हैं, मात्र स्वप्‍न हैं।

लेकिन सारिपुत्र ने कहां कि वे इतने वास्तविक हैं कि मैं कैसे उन्हें स्वप्न कहूं? जब एक फूल दिखाई पड़ता है, वह फूल किसी भी फूल से अधिक वास्तविक मालूम पड़ता है। उसमें सुगंध है। उसे मैं छू सकता हूं। अभी जो मैं आपको देखता हूं वह उतना वास्तविक नहीं है, आप जितना वास्तविक मेरे सामने हैं, वह फूल उससे अधिक वास्तविक है। इसलिए कैसे मैं भेद करूं कि कौन सच है और कौन स्वप्न?

बुद्ध ने कहां, अब चूंकि तुम तीसरी आंख में केंद्रित हो, इसलिए स्वप्न और यथार्थ एक हो गए हैं। जो भी स्वप्न तुम देखोगे सच हो जाएगा।

और इससे ठीक उलटा भी घटित हो सकता है। जो त्रिनेत्र पर थिर हो गया, उसके लिए स्‍वप्‍न यथार्थ हो जाएगा और यथार्थ स्‍वप्‍न हो जाएगा। क्योंकि जब तुम्हारा स्‍वप्‍न सच हो जाता है तब तुम जानते हो कि स्वप्‍न और यथार्थ में बुनियादी भेद नहीं है।

इसलिए जब शंकर कहते हैं कि सब संसार माया है, परमात्मा का स्‍वप्‍न है, तब यह कोई सैद्धांतिक प्रस्तावना या कोई मीमांसक वक्तव्य नहीं है। यह उस व्यक्ति का आंतरिक अनुभव है जो शिवनेत्र में थिर हो गया है।

अत: जब तुम तीसरे नेत्र पर केंद्रित हो जाओ तब कल्पना करो कि सहस्रार से प्राण बरस रहा है, जैसे कि तुम किसी वृक्ष के नीचे बैठे हो और फूल बरस रहे हैं, या तुम आकाश के नीचे हो और कोई बदली बरसने लगी, या सुबह तुम बैठे हो और सूरज उग रहा है और उसकी किरणें बरसने लगी हैं। कल्पना करो और तुरंत तुम्हारे सहस्रार से प्रकाश की वर्षा होने लगेगी। यह वर्षा मनुष्य को पुनर्निर्मित करती है, उसको नया जन्म दे जाती है। तब उसका पुनर्जन्म हो जाता है।

 तंत्र सूत्र 

ओशो

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