पहली बात, अपने संबंध में ठीक समझ लें। क्योंकि तुम्हारे से ही निकलेगा रास्ता और अंत में तुमसे ही पैदा होगी मंजिल।
तुम्हीं सब कुछ हो। बीज भी तुम्हीं हो, वृक्ष भी तुम्हीं बनोगे। और जब फूल खिलेंगे और सुगंध निकलेगी, तब उन फूलों में, उस सुगंध में भी तुम ही रहोगे। अपने संबंध में गलत समझ हो, तो सारा श्रम व्यर्थ हो जाता है।
पहली बात—पहली बात तो यह ठीक से समझ लो कि तुम्हें कुछ भी पता नहीं। काश, तुम्हें पता ही होता तो फिर मेरे पास आने की कोई भी जरूरत न थी। सूरज की एक किरण भी तुम्हें मिल जाए, तो सूरज तक पहुंचने का मार्ग खुल गया। क्योंकि उसी किरण को पकड़ कर तुम सूरज के मूल स्रोत तक पहुंच जाओगे। और सागर की एक बूंद भी तुम चख लो, तो तुमने सारा सागर चख लिया।
अगर तुम्हें थोड़ा भी पता हो जीवन का, तो फिर किसी से पूछने की कोई भी जरूरत नहीं है। वह जो थोड़ा सा पता है, उसके सहारे चलो। तो जैसे कोई आदमी एक छोटा सा दीया ले कर अंधेरे में चले, तो दो ही कदम पर प्रकाश पड़ता है; लेकिन जब वह दो कदम चल लेता है, तो दो कदम और आगे प्रकाश पड़ता है। फिर वह और दो कदम चल लेता है, तो दो कदम और आगे प्रकाश पड़ता है। दो कदम प्रकाश पड़ता हो जिस दीए से, उससे भी हजारों मील की यात्रा तय की जा सकती है। कोई हजारों मील के रास्ते को प्रकाशित करने की जरूरत नहीं है। हाथ में दीया हो छोटा, तो भी बड़े से बड़े अंधकारपूर्ण रास्ते को पार किया जा सकता है। दो कदम ही काफी हैं।
अगर तुम्हें थोड़ा भी पता हो अपने संबंध में तो मेरे पास आने की कोई भी जरूरत नहीं है। किसी के भी पास जाने की कोई जरूरत नहीं।
तो पहली बात तो यह ठीक से समझ लेना कि तुम्हें अपने संबंध में कुछ भी पता नहीं है अभी। और तुम जो भी जानते हो, वे सब शब्द हैं। शब्दों में न तो कोई प्राण होते हैं, न कोई अर्थ होता है। शब्द से ज्यादा असत्य इस जगत में और कुछ भी नहीं है।
अनुभव अनुभव में अर्थ है। मैं कितना ही कहूं जो मैं जानता हूं उसे मैं शब्दों में न डाल पाऊंगा। कभी भी कोई नहीं डाल पाया। और कभी कोई डाल भी नहीं पाएगा। क्योंकि जो मैं जानता हूं वह मेरा अनुभव है। और जब मैं उसे शब्द बनाता हूं तो तुम्हारे कानों में जो सुनाई पड़ता है, वह अनुभव नहीं है, वह कोरा शब्द है।
मैं कहता हूं परमात्मा। तुम सुन लेते हो। और मैं कहता हूं आत्मा। और वह भी सुन लिया जाता है। लेकिन न तो आत्मा से कुछ अर्थ प्रकट होता है और न परमात्मा से। शब्द सुनाई पड़ते हैं और बहुत बार सुन लेने पर ऐसा भ्रम भी पैदा हो जाता है कि हम समझ गए। शब्दों की समझदारी नासमझी का दूसरा नाम है।
तुम्हें कुछ भी पता नहीं, यह बात खयाल में ले लें। यह आधारभूत है। क्योंकि जो व्यक्ति यह समझ ले बिना कुछ जाने कि मैं जानता हूं उसके जानने का द्वार बंद हो जाता है। बीमार समझ ले कि स्वस्थ है, तो चिकित्सा की तलाश बंद हो जाती है। अज्ञानी को खयाल हो जाए ज्ञान का, तो अज्ञान जितना नहीं भटकाता था, उतना ज्ञान भटका देगा।
इस बात का खयाल आ जाए कि मुझे कुछ भी पता नहीं, तो यह शान की पहली किरण है। अब तुम ईमानदार हुए। अब तुमने कम से कम एक सच्ची बात स्वीकार की कि मुझे कुछ पता नहीं। तुमने अपने शास्त्र हटा कर रख दिए और तुमने अपने शब्दों को छोड़ दिया। और तुम ईमानदार हुए, प्रामाणिक हुए अपने प्रति कि न मुझे आत्मा का पता है, न मुझे मोक्ष का। मुझे पता ही नहीं कि जीवन क्या है?
यह अज्ञान की स्वीकृति शान का पहला चरण है।
ओशो
तुम्हीं सब कुछ हो। बीज भी तुम्हीं हो, वृक्ष भी तुम्हीं बनोगे। और जब फूल खिलेंगे और सुगंध निकलेगी, तब उन फूलों में, उस सुगंध में भी तुम ही रहोगे। अपने संबंध में गलत समझ हो, तो सारा श्रम व्यर्थ हो जाता है।
पहली बात—पहली बात तो यह ठीक से समझ लो कि तुम्हें कुछ भी पता नहीं। काश, तुम्हें पता ही होता तो फिर मेरे पास आने की कोई भी जरूरत न थी। सूरज की एक किरण भी तुम्हें मिल जाए, तो सूरज तक पहुंचने का मार्ग खुल गया। क्योंकि उसी किरण को पकड़ कर तुम सूरज के मूल स्रोत तक पहुंच जाओगे। और सागर की एक बूंद भी तुम चख लो, तो तुमने सारा सागर चख लिया।
अगर तुम्हें थोड़ा भी पता हो जीवन का, तो फिर किसी से पूछने की कोई भी जरूरत नहीं है। वह जो थोड़ा सा पता है, उसके सहारे चलो। तो जैसे कोई आदमी एक छोटा सा दीया ले कर अंधेरे में चले, तो दो ही कदम पर प्रकाश पड़ता है; लेकिन जब वह दो कदम चल लेता है, तो दो कदम और आगे प्रकाश पड़ता है। फिर वह और दो कदम चल लेता है, तो दो कदम और आगे प्रकाश पड़ता है। दो कदम प्रकाश पड़ता हो जिस दीए से, उससे भी हजारों मील की यात्रा तय की जा सकती है। कोई हजारों मील के रास्ते को प्रकाशित करने की जरूरत नहीं है। हाथ में दीया हो छोटा, तो भी बड़े से बड़े अंधकारपूर्ण रास्ते को पार किया जा सकता है। दो कदम ही काफी हैं।
अगर तुम्हें थोड़ा भी पता हो अपने संबंध में तो मेरे पास आने की कोई भी जरूरत नहीं है। किसी के भी पास जाने की कोई जरूरत नहीं।
तो पहली बात तो यह ठीक से समझ लेना कि तुम्हें अपने संबंध में कुछ भी पता नहीं है अभी। और तुम जो भी जानते हो, वे सब शब्द हैं। शब्दों में न तो कोई प्राण होते हैं, न कोई अर्थ होता है। शब्द से ज्यादा असत्य इस जगत में और कुछ भी नहीं है।
अनुभव अनुभव में अर्थ है। मैं कितना ही कहूं जो मैं जानता हूं उसे मैं शब्दों में न डाल पाऊंगा। कभी भी कोई नहीं डाल पाया। और कभी कोई डाल भी नहीं पाएगा। क्योंकि जो मैं जानता हूं वह मेरा अनुभव है। और जब मैं उसे शब्द बनाता हूं तो तुम्हारे कानों में जो सुनाई पड़ता है, वह अनुभव नहीं है, वह कोरा शब्द है।
मैं कहता हूं परमात्मा। तुम सुन लेते हो। और मैं कहता हूं आत्मा। और वह भी सुन लिया जाता है। लेकिन न तो आत्मा से कुछ अर्थ प्रकट होता है और न परमात्मा से। शब्द सुनाई पड़ते हैं और बहुत बार सुन लेने पर ऐसा भ्रम भी पैदा हो जाता है कि हम समझ गए। शब्दों की समझदारी नासमझी का दूसरा नाम है।
तुम्हें कुछ भी पता नहीं, यह बात खयाल में ले लें। यह आधारभूत है। क्योंकि जो व्यक्ति यह समझ ले बिना कुछ जाने कि मैं जानता हूं उसके जानने का द्वार बंद हो जाता है। बीमार समझ ले कि स्वस्थ है, तो चिकित्सा की तलाश बंद हो जाती है। अज्ञानी को खयाल हो जाए ज्ञान का, तो अज्ञान जितना नहीं भटकाता था, उतना ज्ञान भटका देगा।
इस बात का खयाल आ जाए कि मुझे कुछ भी पता नहीं, तो यह शान की पहली किरण है। अब तुम ईमानदार हुए। अब तुमने कम से कम एक सच्ची बात स्वीकार की कि मुझे कुछ पता नहीं। तुमने अपने शास्त्र हटा कर रख दिए और तुमने अपने शब्दों को छोड़ दिया। और तुम ईमानदार हुए, प्रामाणिक हुए अपने प्रति कि न मुझे आत्मा का पता है, न मुझे मोक्ष का। मुझे पता ही नहीं कि जीवन क्या है?
यह अज्ञान की स्वीकृति शान का पहला चरण है।
ओशो
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