बोधगया नहीं है मूल्यवान, मूल्यवान वह बोधिवृक्ष है। उस बोधिवृक्ष के
नीचे बरसों तक बुद्ध संक्रमण करते रहे। उनके पैर के पूरे निशान बनाकर रखे
हैं। जब वह ध्यान करते करते थक जाते तो उस वृक्ष के पास घूमने लगते, वह
घंटों उस वृक्ष के पास घूमते रहते। बुद्ध किसी के साथ इतने ज्यादा नहीं रहे
जितने उस वृक्ष के साथ रहे, उस वृक्ष से ज्यादा बुद्ध के साथ कोई नहीं
रहा। और इतनी सरलता से कोई आदमी रह भी नहीं सकता जितनी सरलता से वह वृक्ष
रहा। बुद्ध उसके नीचे सोये भी हैं, बुद्ध उसके नीचे उठे भी हैं, बैठे भी
हैं, बुद्ध इसके आस पास चले भी हैं। बुद्ध ने उससे बातें की होंगी, बुद्ध
उससे बोले भी होंगे। उस वृक्ष की पूरी जीवन ऊर्जा बुद्ध से आविष्ठ है।
जब अशोक ने भेजा अपने बेटे महेन्द्र को लंका, तो उसके बेटे ने कहा, मैं भेंट क्या ले जाऊं? उन्होंने कहा, और तो कोई भेंट हो भी नहीं सकती इस जगत में, एक ही भेंट हमारे पास में है कि तुम इस बोधि वृक्ष की एक शाखा ले जाओ। तो उस शाखा को लगाया, आरोपित किया और उस शाखा को भेज दिया। दुनिया में कभी किसी सम्राट ने किसी वृक्ष की शाखा किसी को भेंट नहीं दी होगी। यह कोई भेंट है? लेकिन सारा लंका आंदोलित हुआ उस शाखा की वजह से। और लोग समझते हैं, महेंद्र ने लंका को बौद्ध बनाया, वह गलत समझते हैं। उस शाखा ने बनाया, महेंद्र की कोई हैसियत न थी! महेन्द्र साधारण हैसियत का आदमी था।
अशोक की लड़की भी साथ में थी संघमित्रा, उन दोनों की उतनी बड़ी हैसियत न थी। लंका का कन्वर्शन इस बोधि वृक्ष की शाखा के द्वारा किया गया कन्वर्शन है। ये बुद्ध के ही सीक्रेट संदेश थे कि लंका में इस वृक्ष की शाखा पहुंचा दी जाए। ठीक समय की प्रतीक्षा की जाए और ठीक व्यक्ति की। और जब ठीक व्यक्ति आ जाए तो इसको पहुंचा दिया गया। क्योंकि इसी से वापस किसी दिन हिंदुस्तान में फिर इस वृक्ष को लाना पड़ेगा। ये सारी की सारी अंतर्कथाएं हैं, जिसको कहना चाहिए गुप्त इतिहास है, जो इतिहास के पीछे चलता है। इनके लिए ठीक व्यक्तियों का उपयोग करना पड़ता है।
संघमित्रा और महेन्द्र दोनों बौद्ध भिक्षु थे, बुद्ध के जीवन में थे। हर किसी के साथ नहीं भेजी जा सकती थी वह शाखा। जो बुद्ध के पास जिया हो, जिसने जाना हो, और जो इस शाखा को वृक्ष की शाखा मानकर न ले जाए, जीवंत बुद्ध मानकर ले जाए, उसके ही हाथ में दी जा सकती थी। फिर लौटने की भी प्रतीक्षा करनी जरूरी है। उस वृक्ष को ठीक लोगों के हाथ से वापस आना चाहिए। ठीक लोगों के द्वारा वापस आना चाहिए।
इस इतिहास के पीछे जो इतिहास है वह बात करने जैसा है। असली इतिहास वही है, जहां घटनाओं के मूल स्रोत घटित होते हैं, जहां जड़ें होती हैं, फिर तो घटनाओं का एक जाल है, जो ऊपर चलता है। वह असली इतिहास नहीं है। जो अखबार में छपता है और किताब में लिखा जाता है, वह असली इतिहास नहीं है। कभी असली इतिहास पर हमारी दृष्टि हो जाए तो फिर इन सारी चीजों का राज समझ में आता है।
ओशो
जब अशोक ने भेजा अपने बेटे महेन्द्र को लंका, तो उसके बेटे ने कहा, मैं भेंट क्या ले जाऊं? उन्होंने कहा, और तो कोई भेंट हो भी नहीं सकती इस जगत में, एक ही भेंट हमारे पास में है कि तुम इस बोधि वृक्ष की एक शाखा ले जाओ। तो उस शाखा को लगाया, आरोपित किया और उस शाखा को भेज दिया। दुनिया में कभी किसी सम्राट ने किसी वृक्ष की शाखा किसी को भेंट नहीं दी होगी। यह कोई भेंट है? लेकिन सारा लंका आंदोलित हुआ उस शाखा की वजह से। और लोग समझते हैं, महेंद्र ने लंका को बौद्ध बनाया, वह गलत समझते हैं। उस शाखा ने बनाया, महेंद्र की कोई हैसियत न थी! महेन्द्र साधारण हैसियत का आदमी था।
अशोक की लड़की भी साथ में थी संघमित्रा, उन दोनों की उतनी बड़ी हैसियत न थी। लंका का कन्वर्शन इस बोधि वृक्ष की शाखा के द्वारा किया गया कन्वर्शन है। ये बुद्ध के ही सीक्रेट संदेश थे कि लंका में इस वृक्ष की शाखा पहुंचा दी जाए। ठीक समय की प्रतीक्षा की जाए और ठीक व्यक्ति की। और जब ठीक व्यक्ति आ जाए तो इसको पहुंचा दिया गया। क्योंकि इसी से वापस किसी दिन हिंदुस्तान में फिर इस वृक्ष को लाना पड़ेगा। ये सारी की सारी अंतर्कथाएं हैं, जिसको कहना चाहिए गुप्त इतिहास है, जो इतिहास के पीछे चलता है। इनके लिए ठीक व्यक्तियों का उपयोग करना पड़ता है।
संघमित्रा और महेन्द्र दोनों बौद्ध भिक्षु थे, बुद्ध के जीवन में थे। हर किसी के साथ नहीं भेजी जा सकती थी वह शाखा। जो बुद्ध के पास जिया हो, जिसने जाना हो, और जो इस शाखा को वृक्ष की शाखा मानकर न ले जाए, जीवंत बुद्ध मानकर ले जाए, उसके ही हाथ में दी जा सकती थी। फिर लौटने की भी प्रतीक्षा करनी जरूरी है। उस वृक्ष को ठीक लोगों के हाथ से वापस आना चाहिए। ठीक लोगों के द्वारा वापस आना चाहिए।
इस इतिहास के पीछे जो इतिहास है वह बात करने जैसा है। असली इतिहास वही है, जहां घटनाओं के मूल स्रोत घटित होते हैं, जहां जड़ें होती हैं, फिर तो घटनाओं का एक जाल है, जो ऊपर चलता है। वह असली इतिहास नहीं है। जो अखबार में छपता है और किताब में लिखा जाता है, वह असली इतिहास नहीं है। कभी असली इतिहास पर हमारी दृष्टि हो जाए तो फिर इन सारी चीजों का राज समझ में आता है।
ओशो
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