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Thursday, August 13, 2015

तीर्थ

तीर्थ है, वहां जाएगा कोई, वह मुक्त होकर लौटेगा। तो स्मृति से मुक्त होगा, स्मृति ही तो बंधन है। वह स्वप्न जो आपने देखा, आपका पीछा कर रहा है। असली सवाल वही है, और निश्‍चित ही उससे छुटकारा हो सकता है, लेकिन उस छुटकारे में दो बातें जरूरी हैं। बड़ी बात तो यह जरूरी है कि आपकी ऐसी निष्ठा हो कि मुक्ति हो जाएगी। और आपकी निष्ठा कैसे होगी? आपकी निष्ठा तभी होगी जब आपको ऐसा खयाल हो कि लाखों वर्ष से ऐसा वहां होता रहा है। और कोई उपाय नहीं है।

इसलिए कुछ तीर्थ तो बिलकुल सनातन हैं-जैसे काशी, वह सनातन है। सच बात यह है, पृथ्वी पर कोई ऐसा समय नहीं रहा जब काशी तीर्थ नहीं थी। वह एक अर्थ में सनातन है, बिलकुल सनातन है। यह आदमी का पुराने से पुराना तीर्थ है। उसका मूल्य बढ़ जाता है, क्योंकि उतनी बड़ी धारा, सजेशन है। वहां कितने लोग मुक्त हुए, वहां कितने लोग शांत हुए हैं, वहां कितने लोगों ने पवित्रता को अनुभव किया है, वहां कितने लोगों के पाप झड गए-वह एक लंबी धारा है। वह सुझाव गहरा होता चला जाता है, वह सरल चित्त में जाकर निष्ठा बन जाएगी। वह निष्ठा बन जाए तो तीर्थ कारगर हो जाता है। वह निष्ठा न बन पाए तो तीर्थ बेकार हो जाता है। तीर्थ आपके बिना कुछ नहीं कर सकता, आपका कोआपरेशन चाहिए। लेकिन आप भी कोआपरेशन तभी देते हैं कि जब तीर्थ की एक धारा हो, एक इतिहास हो।

हिदू कहते हैं, काशी इस जमीन का हिस्सा नहीं है, डस पृथ्वी का हिस्सा नहीं है, वह अलग ही टुक्का है। वह शिव की नगरी अलग ही है, वह सनातन है। सब नगर बनेंगे, बिगड़ेंगे, काशी बनी रहेगी। इसलिए कई दफा हैरानी होती है, व्यक्ति तो खो जाते हैं—बुद्ध काशी आए, जैनों के तीर्थंकर काशी में पैदा हुए, खो गए। काशी ने सब देखा—शंकराचार्य आए, खो गए। कबीर बसे, खो गए। काशी ने तीर्थंकर देखे, अवतार देखे, संत देखे, सब खो गए। उनका तो कहीं कोई निशान नहीं रह जाएगा, लेकिन काशी बनी रहेगी। वह उन सब की पवित्रता को, उन सारे लोगों के पुण्य को, उन सारे लोगों की जीवन धारा को, उनकी सब सुगंध को आत्मसात कर लेती है और बनी रहती है।

यह जो स्थिति है, यह निश्‍चित ही पृथ्वी से अलग हो जाती है-मेटाफरीकली। यह इसका अपना एक शाश्वत रूप हो गया, इस नगरी का अपना व्यक्तित्व हो गया। इस नगरी पर से बुद्ध गुजरे, इसकी गलियों में बैठकर कबीर ने चर्चा की है। वह सब कहानी हो गयी, वह सब स्वप्न हो गया। पर यह नगरी उन सबको आत्मसात किए है। और अगर कभी कोई निष्ठा से इस नगरी में प्रवेश करे तो वह फिर से बुद्ध को चलता हुआ देख सकता है, वह फिर से पार्श्वनाथ को गुजरते हुए देख सकता है। वह फिर से देखेगा तुलसीदास को, वह फिर से देखेगा कबीर को।
अगर कोई निष्ठा से इस काशी के निकट जाए, तो यह काशी साधारण नगरी न रह जाएगी लंदन या बम्बई जैसी। एक असाधारण चिन्मय रूप ले लेगी, और इसकी चिन्मयता बड़ी शाश्वत है, बड़ी पुरातन है। इतिहास खो जाते हैं, सभ्यताएं बनती और बिगड़ती हैं, आती हैं और चली जाती हैं, और यह अपनी एक अंत: धारा को संजोए हुए चलती है। इसके रास्ते पर खड़ा होना, इसके घाट पर सान करना, इसमें बैठकर ध्यान करने के प्रयोजन हैं। आप भी हिस्सा हो गए हैं एक अंत: धारा के। यह भरोसा कि मैं ही सब कुछ कर लूंगा, खतरनाक है। प्रभु का सहारा लिया जा सकता है, अनेक रूपों में—उसके तीर्थ में, उसके मंदिरों में उसका सहारा लिया जा सकता है। सहारे के लिए वह सारा आयोजन है।

यह कुछ बातें जो ठीक से समझ में आ सकें, वह मैंने कहीं। बुद्धि जिनको देख पाये, समझ पाये, पर यह पर्याप्त नहीं हैं। बहुत—सी बातें हैं तीर्थ के साथ, जो समझ में नहीं आ सकेंगी, पर घटित होती हैं। जिनको बुद्धि साफ—साफ नहीं दिखा पाएगी, जिनका गणित नहीं बनाया जा सकेगा, लेकिन घटित होती हैं।
दो—तीन बातें सिर्फ उल्लेख कर दूं जो घटित होती हैं। जैसे कि आप कहीं भी जाकर एकांत में बैठकर साधना करें तो बहुत कम संभावना है कि आपको अपने आस—पास किन्हीं आत्माओं की उपस्थिति का अनुभव हो लेकिन तीर्थ में करें तो बहुत जोर से होगा। कहीं भी करें वह अनुभव नहीं होगा, लेकिन तीर्थ में आपको प्रेजेंस मालूम पड़ेगी— थोड़ी बहुत नहीं, बहुत गहन। कभी इतनी गहन हो जाती है कि आप स्वयं मालूम पड़ेंगे कि कम है, और दूसरे की प्रेजेंस ज्यादा है।

ओशो 

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