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Monday, August 10, 2015

उपद्रव का कारण

मैं संसार के छोड़ने के पक्ष में नहीं हूं। मन को: ही रूपांतरित करना है। और तुम्हारे सूत्र साफ कह रहे हैं कि मन कारण है। काश, हमने यह समझा होता और मन को ही कारण समझकर रूपांतरित किया होता, तो आज इस देश की ऐसी दुर्गति न होती। यह इतना पाखंडी न होता जितना यह पाखंडी है। शायद पृथ्वी पर कोई ऐसा पाखंड नहीं है जैसा हमारे देश में है। धन का विरोध करेगे-और सारे शास्त्र समझा रहे हैं कि धन का दान करो; दान ही पुण्य है, दान ही धर्म है। और धन है पाप! पाप से कैसे पुण्य हो जाता है, यह भी बडे आश्चर्य की बात है!

फिर हिन्दू कहते हैं कि दान देना तो ब्राह्मण को। क्या ब्राह्मण से पाप करवाना है? और जैन कहते हैं कि दान देना तो जैन ऋषि मुनियों को। और बौद्ध कहते हैं, दान देना तो बौद्ध भिक्षुओं को। और धन को तीनों कहते हैं पाप। और पाप के लिए ही दान मांग रहे हैं। और इसकी भी वर्जना करते हैं कि दूसरों को दान मत देना, क्योंकि वह दान व्यर्थ जाएगा। धन है पाप तो एक बात तो यह है कि अगर धन पाप है तो ब्राह्मण को पाप करने का उपाय मत देना भूलकर मत देना। भ्रष्ट करना है ब्राह्मणों को! मगर हम भी अंधे हैं। धन को पाप भी मानते हैं और धन को दान भी करते हैं-और दान को पुण्य मानते हैं। अब पाप से पुण्य को निकाल रहे हैं। जालसाजी कर रहे हो। षड्यंत्र रच रहे हो। इसलिए इस देश में… सबसे ज्यादा धनलोलुप हम हैं, सबसे ज्यादा कामलोलुप हम हैं। खजुराहो और कोणार्क जैसे मंदिर हमने बनाये, दुनिया में किसी जाति ने नहीं बनाये। और हमारे शास्त्रों में पंडितों ने इस तरह की अश्लील कहानियां लिखी हैं कि कोई फिल्म इतनी अश्लील न बनी है, न बन सकती है। मगर धर्म के नाम पर चलती हो बात तो अंगीकार है, तो स्वीकार है।

हमने धर्म के नाम पर वेश्यावृत्ति चलायी, देवदासिया बनायीं। देवदासी हो गयी करेगी वेश्यागिरी, लेकिन मंदिर में करेगी अब। मंदिर को भी वेश्यालय बना दिया। और अब यह काम पुण्य का हो गया। अब इसमें कुछ पाप न रहा। हम पापों को पुण्यों में बदलने में बड़े होशियार हैं।

मगर इस सबके पीछे जाल का, इस सारे उपद्रव का कारण क्या है? कारण यह है कि हम ठीक-ठीक समझ नहीं पाये। जिन्होंने जाना उन्होंने कुछ और कहा और जिन्होंने हमें समझाया उन्होंने कुछ और कहा। इस सूत्र के अनुवाद में भी, चिदानंद, तुम खयाल करो तो तुम्हें पता चल जाएगा कि कहां से भ्रांतिया घुस जाती हैं। सूत्र का अनुवाद है : ‘मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है। जो मन विषयों में आसक्त होगा, वह बंधन का और जो विषयों से पराङ्मुख होगा, वह मोक्ष का कारण होगा।’ यह पराङ्मुख कहां से आ गया? मूल सूत्र में कहीं भी नहीं है। मूल सूत्र है.

मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयो::।
संस्कृत जानना भी जरूरी नहीं… मैं तो संस्कृत जानता नहीं.. ‘मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण मन है।’
बन्धाय विषयासक्तं…….
‘विषय में आसक्त रहना बंधन है।’

मुक्ले निर्विषय स्मृतम्।
‘और जब तुम्हारी स्मृति विषय से मुक्त हो जाए, शून्य हो जाए, तो मोक्ष।’

ओशो 

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