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Sunday, August 9, 2015

महावीर के पास एक बहुत बडा धनिक आया...

 …एक नगर सेठ। और उसने आ कर महावीर को कहा कि मुझे सामयिक खरीदनी है, मुझे ध्यान खरीदना है। और जो भी आप मूल्य कहें, मैं चुकाने को तैयार हूं। महावीर ने कहा, यह असंभव है, ध्यान खरीदा नहीं जा सकता। खरीदने वाली वृत्ति वाला व्यक्ति ध्यान को समझ भी नहीं सकता, पाना तो बहुत दूर है। तुम्हारा सब धन भी नहीं खरीद सकेगा। उस धनी ने कहा कि शायद तुम्हें पता नहीं कि कितना धन मेरे पास है! तुम बोलो, उससे दुगुना भी दूंगा। तुम सिर्फ बोलो भर कि इतना लगेगा।

वह आदमी एक ही भाषा जानता होगा -धन की। और उसने जीवन में सब धन से खरीदा था, तो उसकी कुछ गलती नहीं है, क्षमा योग्य है। उसने सब खरीद लिया था। सुंदर स्त्री चाहिए तो धन से मिल गई थी। बड़ा महल चाहिए तो धन से मिल गया था। बड़ा चिकित्सक चाहिए तो धन से मिल गया था। धन से क्या नहीं खरीदा जा सकता? उसने सब खरीद लिया था। तो उसने सोचा होगा कि ध्यान भी ऐसी क्या बला है जो धन से न मिल जाए! जब सब धन से मिलता है, तो यह भी मिल जाएगा।

लेकिन तकलीफ असल में ध्यान पाने की थी ही नहीं। गांव का एक गरीब आदमी ध्यानी हो गया था, उसी के गांव का! और महावीर ने कहा था कि यह उपलब्ध हो गया ध्यान को। इससे अड़चन थी। महावीर को पता चल गया था कि धनी को अड़चन क्या हो रही है। तो महावीर ने कहा कि तू ऐसा कर, कि तेरे गांव में ही एक गरीब आदमी है, उसको ध्यान उपलब्ध हो गया है, तू उसी से खरीद ले, तू उसी के पास चला जा। और वह गरीब आदमी है, शायद पैसे के लोभ में आ जाए। तू उससे खरीद ले, शायद बेच दे। तो उसने कहा कि इसमें क्या दिक्कत है, यह तो बिलकुल आसान है। अगर वह ध्यान न बेचे, तो मैं उस गरीब आदमी को पूरा का पूरा ही खरीद सकता हूं। इसमें कोई अड़चन ही नहीं।

अब उसकी भाषा बिलकुल ठीक है, क्योंकि जब हम पूरे गरीब आदमी को ही खरीद सकते हैं, तो ध्यान में क्या रखा है। मगर गरीब आदमी खरीद लिया जाए तो भी ध्यान नहीं खरीदा जा सकता। वह गरीब आदमी उठा कर, जंजीरों में डाल कर, घर में भी पटक दिया जाए, तो भी ध्यान जंजीरों में नहीं पड़ जाएगा। भाषा की मुश्किल है। वह धन की भाषा ही समझता है।
 
वह गया उस गरीब आदमी के पास। और उसने कहा, जो तुझे चाहिए तू बोल, मैं सब देने को तैयार हूं लेकिन ध्यान मुझे दे दे। और अगर तूने ध्यान न दिया, तो मैं सैनिक ले कर आया हूं तुझे उठा लेंगे। उस गरीब आदमी ने कहा कि तुम मुझे उठा लो, वही आसान है। ध्यान मैं तुम्हें कैसे दूं? ध्यान कोई वस्तु है, जो मैं तुम्हें दे दूं! ध्यान तो अनुभव है। तुम मुझे ले चलो, लेकिन मेरे अनुभव को कैसे मैं तुम्हें दे दूं? अनुभव तो तुम्हें तुम्हारा ही करना पड़ेगा। एक शक्ति है, जो दूसरे से मिल सकती है। और एक शक्ति है, जो स्वयं के अनुभव से ही मिल सकती है। जो दूसरे से मिलती है, उसके साथ अशांति रहेगी, क्योंकि उसके साथ भय रहेगा। जो दूसरे ने दी है, वह दूसरा छीन सकता है। और जो दूसरे ने दी है, वह मेरी है नहीं- चाहे मैंने चुराई हो, चाहे मैंने फुसला कर मांगी हो, चाहे दान में प्राप्त की हो, चाहे शक्ति के दवाब से ली हों-किंतु वह मेरी नहीं है, वह किसी दूसरे की है। और जो दूसरे की है, वह दूसरे की ही रहती है, इसलिए भय लगा रहता है। भय पीछे पीछे सरकता रहता है।
भय से अशांति पैदा होती है। जो छिन सकता है, उससे चिंता पैदा होती है। और फिर जितनी बाहर की शक्ति इकट्ठी होती जाती है, उतना ही उसके अनुपात में भीतर की निर्बलता दिखाई पड़ती है। इससे अशांति पैदा होती है।

इसलिए कोई गरीब आदमी इतनी गरीबी का अनुभव नहीं करता, जितना अमीर आदमी कर सकता है, अगर उसमें अक्ल हो। नालायक हो, बे अक्ल हो तो उसे पता ही नहीं चलता। थोड़ी सी भी बुद्धि हो तो अमीर आदमी को जिस तरह की गरीबी का पता चलता है, उस तरह की गरीबी का पता गरीब आदमी को कभी नहीं चल सकता। क्योंकि कंट्रास्ट नहीं है, तुलना नहीं है। अमीर आदमी के पास धन का ढेर लग जाता है और भीतर वह देखता है, हृदय भिखारी का पात्र है, वहां कुछ भी नहीं है। गरीब आदमी के हाथ में भी भिक्षा का पात्र है, भीतर भी भिक्षा का पात्र है। तुलना में विरोध नहीं है। उसे पता नहीं चलता कि वह कितना गरीब है। कितना गरीब है आदमी, यह अमीर हो कर ही पता चलता है।

इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि महावीर जब साम्राज्य को छोड़ कर गरीब होते हैं, बुद्ध जब सम्राट के सिंहासन से उतर कर रास्ते के भिखारी बनते हैं, तो उन्हें जिस गरीबी का अनुभव हुआ है, वह किसी दूसरे भिखारी को नहीं हो सकता है। उनकी गरीबी में अमीरी का बड़ा हाथ है, उनकी गरीबी शाही है, उसमें सम्राट होने का अनुभव छिपा है। और उन्होंने सम्राट हो कर जान लिया कि इससे भी भीतर की गरीबी नहीं मिटती, बल्कि प्रकट हो कर दिखाई पड़ती है।

तो जितनी बाहर की शक्ति इकट्ठी होगी, उतनी भीतर की निर्बलता प्रकट हो कर दिखाई पड़ेगी। उससे चिंता पैदा होगी। इसलिए ध्यान रहे, गरीब आदमी उतना चिंतित नहीं होता, जितना अमीर आदमी चिंतित होता है।

साधना सूत्र

ओशो 

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