पहला सूत्र है, जो गुरु कहेगा। अगर इतने चरण पूरे हुए तो संसार के सारे
गुरुओं ने जो कहा है, वह पहला सूत्र है,
‘महत्वाकांक्षा को दूर करो।’
क्या है महत्वाकांक्षा? कुछ होने की वासना। कुछ होने की वासना कि राष्ट्रपति हो जाऊं, कि प्रधानमंत्री हो जाऊं, कि राकफेलर हो जाऊं, कि आइंस्टीन हो जाऊं, या कि बुद्ध या महावीर हो जाऊं। कुछ होने की वासना, कुछ होने का पागलपन।
पहला सूत्र है, ‘महत्वाकांक्षा को दूर करो।’
क्यों? क्योंकि जब तक तुम कुछ होना चाहते हो, तब तक तुम वह न हो पाओगे, जो तुम होने को पैदा हुए हो। जब तक तुम कुछ होना चाहते हो, तब तक तुम अपने स्वरूप को न पा सकोगे। क्योंकि तुम्हारा जो स्वरूप है, वह तो तुम हो ही, वह तुम्हें होना नहीं है। और जो भी तुम होना चाहते हो-वह वंचना होगी, वह अपने से भागना होगा, वह अपने से बचना होगा। ऐसा समझो कि एक गुलाब का फूल, कमल का फूल होना चाहता है। वह हो नहीं सकता। लेकिन भ्रम में जी सकता है और नष्ट हो सकता है। और नष्ट होने में यह होगा कि वह गुलाब का फूल भी न हो पाएगा, कमल का फूल तो हो नहीं सकता।
तुम जो हो, परमात्मा तुम्हें वैसा ही स्वीकार करता है, अन्यथा तुम होते ही नहीं। तुम जैसे हो, परमात्मा तुम्हें वैसा ही स्वीकार करता है, अन्यथा वह तुम्हें बनाता ही नहीं। वह दोहराता नहीं, पुनरुक्ति नहीं करता। बुद्ध कितने ही प्यारे हों, फिर भी दुबारा नहीं बनाता। दुबारा तो बनाते ही वे कारीगर हैं, जिनकी प्रतिभा इतनी कम है कि नए को नहीं खोज पाते। परमात्मा प्रत्येक को अनूठा और नया बनाता है। एक एक को अद्वितीय बनाता है। राम कितने ही प्यारे हों, लेकिन दुबारा? और सोचो, अगर बहुत राम पैदा होने लगें तो बहुत बेमानी हो जायेंगे, उबाने वाले भी हो जाएंगे। और अभी राम के दर्शन की इच्छा होती है, फिर उनसे भागने की इच्छा होगी। बस राम एक काफी हैं। एक से ज्यादा में बात बासी हो जाती है। परमात्मा बासापन पसंद नहीं करता।
तो तुम्हें इसलिए पैदा नहीं किया है कि तुम राम बन जाओ, कि कृष्ण बन जाओ, कि बुद्ध बन जाओ।
तुम्हें पैदा किया है, कुछ जो तुम्हीं बन सकते हो और कोई भी नहीं बन सकता है। न पहले कोई बन सकता था, न बाद में बन सकेगा। अगर तुम चूक जाते हो, तो अस्तित्व से वह घड़ी चूक जाएगी। वह तुम्हीं बन सकते थे, तुम्हारे अतिरिक्त कोई और उस नियति को नहीं पा सकता था।
ओशो
‘महत्वाकांक्षा को दूर करो।’
क्या है महत्वाकांक्षा? कुछ होने की वासना। कुछ होने की वासना कि राष्ट्रपति हो जाऊं, कि प्रधानमंत्री हो जाऊं, कि राकफेलर हो जाऊं, कि आइंस्टीन हो जाऊं, या कि बुद्ध या महावीर हो जाऊं। कुछ होने की वासना, कुछ होने का पागलपन।
पहला सूत्र है, ‘महत्वाकांक्षा को दूर करो।’
क्यों? क्योंकि जब तक तुम कुछ होना चाहते हो, तब तक तुम वह न हो पाओगे, जो तुम होने को पैदा हुए हो। जब तक तुम कुछ होना चाहते हो, तब तक तुम अपने स्वरूप को न पा सकोगे। क्योंकि तुम्हारा जो स्वरूप है, वह तो तुम हो ही, वह तुम्हें होना नहीं है। और जो भी तुम होना चाहते हो-वह वंचना होगी, वह अपने से भागना होगा, वह अपने से बचना होगा। ऐसा समझो कि एक गुलाब का फूल, कमल का फूल होना चाहता है। वह हो नहीं सकता। लेकिन भ्रम में जी सकता है और नष्ट हो सकता है। और नष्ट होने में यह होगा कि वह गुलाब का फूल भी न हो पाएगा, कमल का फूल तो हो नहीं सकता।
तुम जो हो, परमात्मा तुम्हें वैसा ही स्वीकार करता है, अन्यथा तुम होते ही नहीं। तुम जैसे हो, परमात्मा तुम्हें वैसा ही स्वीकार करता है, अन्यथा वह तुम्हें बनाता ही नहीं। वह दोहराता नहीं, पुनरुक्ति नहीं करता। बुद्ध कितने ही प्यारे हों, फिर भी दुबारा नहीं बनाता। दुबारा तो बनाते ही वे कारीगर हैं, जिनकी प्रतिभा इतनी कम है कि नए को नहीं खोज पाते। परमात्मा प्रत्येक को अनूठा और नया बनाता है। एक एक को अद्वितीय बनाता है। राम कितने ही प्यारे हों, लेकिन दुबारा? और सोचो, अगर बहुत राम पैदा होने लगें तो बहुत बेमानी हो जायेंगे, उबाने वाले भी हो जाएंगे। और अभी राम के दर्शन की इच्छा होती है, फिर उनसे भागने की इच्छा होगी। बस राम एक काफी हैं। एक से ज्यादा में बात बासी हो जाती है। परमात्मा बासापन पसंद नहीं करता।
तो तुम्हें इसलिए पैदा नहीं किया है कि तुम राम बन जाओ, कि कृष्ण बन जाओ, कि बुद्ध बन जाओ।
तुम्हें पैदा किया है, कुछ जो तुम्हीं बन सकते हो और कोई भी नहीं बन सकता है। न पहले कोई बन सकता था, न बाद में बन सकेगा। अगर तुम चूक जाते हो, तो अस्तित्व से वह घड़ी चूक जाएगी। वह तुम्हीं बन सकते थे, तुम्हारे अतिरिक्त कोई और उस नियति को नहीं पा सकता था।
ओशो
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