मैं एक घर में मेहमान था। पिता ने अपने बेटे को बुलाया और मुझसे कहा कि
मिलिए इनसे, आप हैं मेरे सुपुत्र! सुपुत्र शब्द बहुत अच्छा है, लेकिन जिस
ढंग से उन्होंने कहा, उसका मतलब था कुपुत्र! ये खड़े हैं मेरे सुपुत्र,
उन्होंने मुझे बताया। फिर अपने सुपुत्र से बोले, क्या खड़े देख रहे हो? पैर
छुओ।
कभी कभी तो छुरी से भी ऐसे घाव नहीं किए जा सकते जैसे शब्द से किए जा सकते हैं। यह बेटा अपने बाप को कभी भी क्षमा नहीं कर पाएगा। बहुत कठिन है मां बाप को क्षमा कर देना, बहुत मुश्किल है। क्योंकि मां बाप को पता ही नहीं कि वे क्या बोल रहे हैं। और कोई डर भी नहीं है। बच्चे का डर क्या है? कुछ भी बोल रहे हैं। आपको पता नहीं है आप क्या बोल रहे हैं अपनी पत्नी से, क्या बोल रहे हैं अपने पति से, किस तरह बोल रहे हैं आप अपने नौकर से, किस भांति आप बोल रहे हैं अपने मित्र से, आप क्या कर रहे हैं अपने चारों तरफ! थोड़ा पहचानने की जरूरत है।
इस शिविर के काल में अच्छा हो चुप रहना। और जब भी शब्द बोलें, तो सोच कर बोलना कि इस शब्द से किसी को भी चोट न पहुंचे। आप पाएंगे कि आपके शब्दों का गुण धर्म बदल गया। और आप पाएंगे कि आपके भीतर की चेतना की स्थिति बदलने लगी। एक निर्णय कर लेना है कि कम से कम शब्द बालेंगे। अनिवार्य होगा तो बोलेंगे। बिलकुल अनिवार्य होगा। अगर एक वाक्य में काम चल जाएगा, तो एक ही वाक्य बोलेंगे। और अगर एक शब्द में काम चल जाएगा, तो एक ही शब्द में चला लेंगे। अगर हाथ के इशारे से चल जाएगा, तो फिर शब्द का उपयोग न करेंगे। और अगर मौन से ही चल जाएगा, तो श्रेष्ठतम है। फिर भी अगर किसी शब्द का उपयोग करना पड़े, तो उतने ही शब्दों का उपयोग करना, जिनसे किसी को चोट न पहुंच रही हो।
कोई आदमी ध्यान में खड़ा है। आप सिर्फ हंसते हुए उसके पास से निकल जाते हैं। आपके मन का भाव होता है कि क्या पागलपन कर रहे हैं! आपने हिंसा की। और हो सकता है कि आपका यह भाव, वह भी आदमी नासमझ हो और पकड़ ले। और यह भी हो सकता है कि जो घटना उसके जीवन में घटने जा रही थी, वह न घट पाए। तो आप जिम्मेवार हो गए, आपने बड़ी हिंसा की। लोग एक दूसरे से कुछ भी कह देते हैं। वे कह देते हैं कि किस पागलपन में पड़े हो! ऐसे कहीं ध्यान हुआ है? जैसे कि उन्हें ध्यान हो गया हो और जैसे कि उन्हें पता हो कि कैसे ध्यान होता है। मगर कोई भी किसी से कुछ भी कह देता है। सोच समझ कर बोलना। एक एक शब्द को खयाल में ले कर बोलना। और तब तुम देखोगे कि तुम्हारा मन किस तरह की हिंसा में लीन है। और जब तक ऐसी स्थिति न आ जाए कि तुम्हारे शब्दों से हिंसा तिरोहित हो जाए, तब तक सूत्र कहता है, गुरु के सामने मत बोलना।
‘ इसके पहले कि तुम्हारी आत्मा सदगुरुओं के समक्ष खड़ी हो सके, उसके पैरों को हृदय के रक्त से धो लेना उचित है।’
ओशो
कभी कभी तो छुरी से भी ऐसे घाव नहीं किए जा सकते जैसे शब्द से किए जा सकते हैं। यह बेटा अपने बाप को कभी भी क्षमा नहीं कर पाएगा। बहुत कठिन है मां बाप को क्षमा कर देना, बहुत मुश्किल है। क्योंकि मां बाप को पता ही नहीं कि वे क्या बोल रहे हैं। और कोई डर भी नहीं है। बच्चे का डर क्या है? कुछ भी बोल रहे हैं। आपको पता नहीं है आप क्या बोल रहे हैं अपनी पत्नी से, क्या बोल रहे हैं अपने पति से, किस तरह बोल रहे हैं आप अपने नौकर से, किस भांति आप बोल रहे हैं अपने मित्र से, आप क्या कर रहे हैं अपने चारों तरफ! थोड़ा पहचानने की जरूरत है।
इस शिविर के काल में अच्छा हो चुप रहना। और जब भी शब्द बोलें, तो सोच कर बोलना कि इस शब्द से किसी को भी चोट न पहुंचे। आप पाएंगे कि आपके शब्दों का गुण धर्म बदल गया। और आप पाएंगे कि आपके भीतर की चेतना की स्थिति बदलने लगी। एक निर्णय कर लेना है कि कम से कम शब्द बालेंगे। अनिवार्य होगा तो बोलेंगे। बिलकुल अनिवार्य होगा। अगर एक वाक्य में काम चल जाएगा, तो एक ही वाक्य बोलेंगे। और अगर एक शब्द में काम चल जाएगा, तो एक ही शब्द में चला लेंगे। अगर हाथ के इशारे से चल जाएगा, तो फिर शब्द का उपयोग न करेंगे। और अगर मौन से ही चल जाएगा, तो श्रेष्ठतम है। फिर भी अगर किसी शब्द का उपयोग करना पड़े, तो उतने ही शब्दों का उपयोग करना, जिनसे किसी को चोट न पहुंच रही हो।
कोई आदमी ध्यान में खड़ा है। आप सिर्फ हंसते हुए उसके पास से निकल जाते हैं। आपके मन का भाव होता है कि क्या पागलपन कर रहे हैं! आपने हिंसा की। और हो सकता है कि आपका यह भाव, वह भी आदमी नासमझ हो और पकड़ ले। और यह भी हो सकता है कि जो घटना उसके जीवन में घटने जा रही थी, वह न घट पाए। तो आप जिम्मेवार हो गए, आपने बड़ी हिंसा की। लोग एक दूसरे से कुछ भी कह देते हैं। वे कह देते हैं कि किस पागलपन में पड़े हो! ऐसे कहीं ध्यान हुआ है? जैसे कि उन्हें ध्यान हो गया हो और जैसे कि उन्हें पता हो कि कैसे ध्यान होता है। मगर कोई भी किसी से कुछ भी कह देता है। सोच समझ कर बोलना। एक एक शब्द को खयाल में ले कर बोलना। और तब तुम देखोगे कि तुम्हारा मन किस तरह की हिंसा में लीन है। और जब तक ऐसी स्थिति न आ जाए कि तुम्हारे शब्दों से हिंसा तिरोहित हो जाए, तब तक सूत्र कहता है, गुरु के सामने मत बोलना।
‘ इसके पहले कि तुम्हारी आत्मा सदगुरुओं के समक्ष खड़ी हो सके, उसके पैरों को हृदय के रक्त से धो लेना उचित है।’
ओशो
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