बुद्ध है वह चैतन्य, जो फूल ही हो गया, इतनी भी दूरी न रही कि फूल को देखा हो-फूल ही हो गया। फूल होकर ही पूरी तरह जाना जा सकता है, क्या है।
उपनिषद के ऋषि की बात है। गीत है किसी फूल के संबंध में। उसे गुनगुनाना। मिठास है बड़ी उसमें, स्वाद है उसमें बहुत। लेकिन वह फूल नहीं है, गीत ही है। अगर प्रयास करेंगे तो कभी कभी झलक भी मिलेगी। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ध्यान में बड़ी झलक मिली, लेकिन फिर खो गई। अनंत प्रकाश हो गया था, फिर खो गया। आनंद ही आनंद हो गया था, लेकिन अब कहां है? अब खोजते हैं और नहीं मिलता।
झलक का मतलब है, पास पहुंच गए थे। झलक तो खो ही जाएगी। इसलिए ध्यान ज्यादा से ज्यादा झलक ही दे सकता है। उस पर भी मत रुक जाना, कि उसी झलक को पकड़ कर बार बार खोजते रहना है। ध्यान का तो मूल्य ही इतना है कि झलक मिल जाए। फिर आगे जाना है समाधि में, ताकि आप फूल ही हो जाएं। ध्यान में है झलक, समाधि में है हो जाना। झलकों पर मत रुकना। झलकें बडी प्रीतिकर हैं। सारा जगत बासा मालूम पड़ने लगता है एक झलक ध्यान में मिल जाए उस जीवंत की, फूल की, उस खिलावट की जो भीतर है, तो सारा जगत फीका और व्यर्थ हो जाता है।
लेकिन फिर कुछ लोग झलकों को पकड़ लेते हैं और उन्हीं को दोहराने लगते हैं और सोचते हैं सब हो गया। नहीं, जब तक आप ही न हो जाएं, ईश्वर ही जब तक आप न हो जाएं, तब तक भरोसा मत करना कि ईश्वर है। हो सकते हैं, क्योंकि हैं ही। खोलना है जरा, उघाड़ना है जरा; छिपे हैं, मौजूद हैं अभी और यहीं, थोड़े से वस्त्र हैं, और बड़े झीने वस्त्र हैं कि चाहें तो अभी उतार कर फेंक दें और नग्न हो जाएं, और ईश्वर हो जाएं। लेकिन बडी पकड़ है, झीने तो हैं, लेकिन पकड़ गहरी है।
क्यों है यह पकड़ इतनी? यह पकड़ है, क्योंकि हम सोचते हैं, ये वस्त्र ही हमारा होना है, यही हम हैं, इसके अलावा हमें कुछ और किसी अस्तित्व का पता नहीं। इस उपनिषद में इशारे होंगे उस अस्तित्व के, जो वस्त्रों के पार है। और इस उपनिषद के साथ साथ हम करेंगे ध्यान, ताकि मिले झलक। और आशा बांधेंगे समाधि की, ताकि हम भी हो जाएं वही, जिसे हुए बिना न कोई संतोष है, न कोई शाति है, न कोई सत्य है।
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