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Thursday, August 13, 2015

ज्ञान के भिखमँगे

ध्‍यान रहे, धन के संबंध में भिखमंगा होना, इतना बुरा नहीं। क्‍योंकि भिखमंगा आखिर तुम्‍हारे द्वार पर हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता है तो ज्‍यादा से ज्‍यादा अपना पेट ही भरता है। दो रोटी ले लेता है। लेकिन ज्ञान के संबंध में जो भिखमँगे है, वे अपनी आत्‍मा को भी भर लेते है।

हम सड़क पर भीख मांगते आदमी को तो कहते है, बुरा है। तेरे पास हाथ-पैर मजबूत है, क्‍यों भीख मांगता है? लेकिन कभी हम अपने संबंध में नहीं सोचते कि मेरी चेतना पूरी ठीक हे मैं क्‍यों भीख मांग रहा हूं? क्‍यों कृष्‍णा के ,राम के, बुद्ध के, मोहम्‍मद के, लाओत्से से दरवाजे खड़ा हूं?


और ध्‍यान रहे, पेट भर लेना इतना बुरा भी नहीं है। क्‍योंकि पेट यहीं छूट जायेगा। आत्‍मा भर लेना बहुत बुरा है, क्‍योंकि वह आगे भी साथ आने वाली है। मैंने भीख मांग कर शरीर में खून बनाया था, कि कमा कर खून बनाया था, मरघट पर दोनों शरीर एक से जल जायेंगे। लेकिन जो आत्‍मा ,मैंने भीख मांग कर भली है। वह तो मेरे साथ होगी। लेकिन सरल दिखता है वह उपाय।

ज्ञान मार्ग बहुत सरल दिखता है। दिखता यह है कि ज्ञान इक्कठा कर लो। दूसरों ने जान लिया है। तो हमें जानने की जरूरत नहीं है। हम उनको याद कर लें, कंठस्‍थ कर लें, और मान लें कि हमने भी जान लिया है। उस ज्ञान में जो दब जायेगा उसकी जानने की,नो इंग की क्षमता धीरे-धीरे नष्‍ट हो जाती है।

जो आदमी दूसरों में पैरों से चलेगा, वह अपने पैरों से अगर चलना भूल जाये तो आश्‍चर्य तो नहीं। और जो आदमी दूसरों की आँखो से देखे गा, अगर उसकी अपनी आंखे देखन बंद कर दें तो उसमें कोई हैरानी की बात नहीं। अगर अपनी आंखों से देखना है तो अपनी ही आंखों से देखना पड़ेगा। और अगर अपने पैरों में चलने की ताकत बनाये रखनी है तो अपने ही पैरों से चलना पड़ेगा। और अगर अपनी चेतना को यात्रा पर ले जाना है तो अपनी ही चेतना को ले जाना पड़ेगा।


ओशो
नेति-नेति, 7 मार्च1970,

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