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Thursday, August 13, 2015

छठी शुभ्र लेश्‍या

शुभ्र चित की आखरी अवस्‍था है। झीने से झीना पर्दा बचा है, वह भी खो जायेगा। तो सातवीं को महावीर ने नहीं गिनाया; क्‍योंकि सांतवीं फिर चित की अवस्‍था नही, आत्‍मा का स्‍वभाव है। वहां सफेद भी नहीं बचता। उतनी उतैजना भी नहीं रहती।

मृत्‍यु में जैसे खोते है, जैसे काल में खोते है। वैसे नहीं,मुक्‍ति में जैसे खोते है। काले में तो सारे रंग इसलिए खो जाते है कि काला सभी रंगों को हजम कर जाता है। पी जाता है, भोग लेता है। मुक्‍ति में सभी रंग इसलिए खो जाते है, कि किसी रंग पर पकड़ नहीं रह जाती। जीवन की कोई वासना, जीवन की कोई आकांशा जीवेषणा नहीं रह जाती। सभी रंग खो जाते है। इसलिए सफेद के बाद जो अंतिम छलांग है, वह भी रंग विहीन है।


और ध्‍यान रहे, मृत्‍यु और मोक्ष बड़े एक जैसे है, और बड़े विपरीत भी; दोनों में इसलिए रंग खो जाते है। एक में रंग खो जाते है कि जीवन खो जाता है। दूसरे में इसलिए रंग खो जाते है कि जीवन पूर्ण हो जाता है, और अब रंगों की कोई इच्‍छा नहीं रह जाती। मोक्ष मृत्‍यु जैसा है, इसलिए मुक्‍त होने से हम डरते है। जो जीवन को पकड़ता है, वहीं मुक्‍त हो सकता है। जो जीवन को पकड़ता है, वह बंधन में बना रहता है। जीवेषणा,जिसको बुद्ध ने कहा है,लास्‍ट फार लाइफ। वही इन रंगों को फैलाव है। और अगर जीवेषणा बहुत ज्‍यादा हो तो दूसरे की मृत्‍यु बन जाती है। वह कृष्‍ण लेश्‍या है। अगर जीवेषणा तरल होती जाये, कम होती जाये। फीकी होती जाये, तो दूसरे का जीवन बन जाती है,वह प्रेम है।

महावीर ने छह लेश्‍याएं कही है—अभी पश्‍चिम में इस पर खोज चलती है तो अनुभव में आता है कि ये छह रंग करीब-करीब वैज्ञानिक सिद्ध होंगे। और मनुष्‍य के चित को नापने की इससे कुशल कुंजी नहीं हो सकती। क्‍योंकि यह बाहर से नापा जा सकता है। भीतर जाने की कोई जरूरत नहीं। जैसे एक्‍सरे लेकर कहा जा सकता है कि भीतर कौन सी बीमारी है वैसे आपके चेहरे का ऑरा पकड़ा जाये तो उस ऑरा से पता चल सकता है। चित किस तरह से रूग्‍ण है, कहां अटका हे। और तब मार्ग खोज जा सकते है। कि क्‍या किया जा सकता है। जो इस चित की लेश्‍या से ऊपर उठा जा सके।

अंतिम घड़ी में लक्ष्‍य तो वहीं है। जहां कोई लेश्‍या न रह जाये। लेश्‍या का अर्थ: जो बाँधती है। जिससे हम बंधन में होते है। जो रस्‍सी की तरह हमें चारों तरफ से घेरे रहती है। जब सारी लेश्‍याएं गिर जाती है तो जीवन की परम ऊर्जा मुक्‍त हो जाती है। उस मुक्‍ति के क्षण को हिंदुओं ने ब्रह्मा कहा है—बुद्ध ने निर्वाण, कहा है, महावीर ने कैवल्‍य कहा है।

कृष्‍ण, नील, कापोत—ये तीन अधर्म लेश्याएं है। इन तीनों से युक्‍त जीव दुर्गीत में उत्‍पन्‍न होता है।
तेज,पद्म, और शुक्‍ल। ये तीन धर्म लेश्‍याएं है। इन तीनों से युक्‍त जीव सदगति में उत्‍पन्‍न होता है। ध्‍यान रहे,शुभ्र लेश्‍या के पैदा हो जाने पर भी जन्‍म होगा। अच्‍छी गति होगी, सदगति होगी, साधु का जीवन होगा। लेकिन जन्‍म होगा, क्‍योंकि लेश्‍या अभी भी बाकी है। थोड़ा सा बंधन शुभ्र का बाकी है। इसलिए पूरा विज्ञान विकसित हुआ था प्राचीन समय में—मरते हुए आदमी के पास ध्‍यान रखा जाता था कि उसकी कौन सी लेश्‍या मरते क्षण मैं है, क्‍योंकि जो उसकी लेश्‍या मरते क्षण में है, उससे अंदाज लगाया जो सकता है कि वह कहां जायेगा। उसकी क्‍या गति होगी।

सभी लोगों के मरने पर लोग रोते नहीं थे, लेश्‍या देखकर….अगर कृष्‍ण लेश्‍या हो तो ही रोने का अर्थ है। अगर कोई अधर्म लेश्‍या हो तो रोने का अर्थ है, क्‍योंकि वह व्‍यक्‍ति फिर दुर्गति में जा रहा है, दुःख में जा रहा है। नरक में भटकने जा रहा है। तिब्‍बत में बारदो पूरा विज्ञान है, और पूरी कोशिश की जाती है कि मरते क्षण में भी इसकी लेश्‍या बदल जायें। तो भी काम का हे। मरते क्षण में भी जिस अवस्‍था में—उसी में हम जन्‍मते है। ठीक वैसे जैसे रात आप सोते है तो जो विचार आपका अंतिम होगा; सुबह वही विचार आपका प्रथम होगा।

इसे आप प्रयोग कर के देख ले। बिलकुल आखिरी विचार रात सोते समय जो आपके चित में होगा। जिसके बार आप खो जायेंगे अंधेरे में नींद के—सुबह जैसे ही जागेंगे, वही विचार पहला होगा। क्‍योंकि रात भर सब स्‍थगित रहा, तो जो रात अंतिम था वहीं पहले सुबह प्रथम बनेगा। बीच में तो गैप है, अंधकार है, सब खाली है। इसलिए हमने मृत्‍यु को महानिद्रा कहा है। इधर मृत्‍यु के आखिरी क्षण में जा लेश्‍या होगी। जन्‍म के समय में वही पहली लेश्‍या होगी।

बुद्ध पैदा हुए….। जब भी कोई व्‍यक्‍ति श्वेत लेश्‍या के साथ मरता है, तो जो लोग भी धर्म लेश्‍याओं में जीते है, पीत या लाल में, उन लोगों को अनुभव होता है; क्‍योंकि यह घटना जागतिक है। और जब भी कोई व्‍यक्‍ति शुभ्र लेश्‍या में जन्‍म लेता है, तो जो लोग भी लाल और पीत लेश्‍या के करीब होते है, या शुभ्र लेश्‍या में होते है। उनको अनुभव होता है कौन पैदाहोना गया है। जिसे हम गुरु या भगवान कहते है उसे सब क्‍यों नहीं पहचान पाते, जितनी लेश्‍या निम्‍न होगी, वह उतना ही सत गुरु से दूर भागेगा या विरोध करेगा। आपने देखा पूरे इतिहास में जीसस, कृष्‍ण,मीरा,कबीर, नानक,मोहम्‍मद,रवि दास, बुद्ध, महावीर….किसी भी सत गुरु को ले ली जिए। सम कालीन कुछ गिने चुने लोग ही इनके आस पास आ पाते हे। इसे आप प्रकृति का शाश्वत नियम मान ले।
ओशो

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