बुद्ध ने कहा, जितने तुम यहां लोग हो, उतनी ही बातें सुन रहे हो। दूसरे
दिन सुबह आनंद ने पूछा कि यह बात मेरी कुछ समझ में आयी नहीं। जब आप
कहनेवाले एक हैं और शब्द आपके हम सुन रहे हैं, तो वही शब्द तो सुनेंगे न जो
आपने कहे हैं। बुद्ध ने कहा, पागल, तू यूं समझ! कल रात—तू जा पता लगा
ले—कल रात की सभा में जब मैंने यह कहा तो मेरे जो भिक्षु थे उन्होंने एक
बात समझी, एक चोर भी आया था, उसने दूसरी बात समझी; एक वेश्या भी आयी थी,
उसने तीसरी बात समझी।
बुद्ध का नियम था कि रोज रात को प्रवचन के अंत में वे कहते थे, अब जाओ, दिन का अंतिम कार्य पूरा करो। भिक्षुओं ने समझा कि अब जाएं और ध्यान करें; क्योंकि वह दिन का अंतिम कार्य था। समाधिस्थ हों और फिर उसी समाधि में डूबते डूबते निद्रा में डूब जाएं। ध्यान करते करते नींद में उतर जाना सारी नींद को समाधि बना देता है। तो छह घंटे सोओ, आठ घंटे सीओ, वे आठ घंटे परम समाधि में गये। तुमने उनका उपयोग कर लिया। तुमने नींद को भी व्यर्थ न जाने दिया। लोग, तो यहां जागरण को भी व्यर्थ जाने दे रहे हैं, तुमने नींद का भी उपयोग कर लिया। तुमने नींद के समय में भी अमृत ढाल लिया। तो मेरे भिक्षुओं ने, बुद्ध ने कहा, समझा कि अब हम उठें, वे उठे कि अब जाएं ध्यान करें, सोने का समय हो गया। चोर एकदम से चौंका, उसने कहा कि मैं भी कहां की बातों में पड़ा हूं, अरे, जाऊं अपने काम में लग! और वेश्या ने कहा कि अदभुत हैं ये बुद्ध भी! इन्हें कैसे पता चल गया कि मैं भी आयी हुई हूं? क्या कहते हैं कि जाओ, अपने काम में लगो! अब अपना आखिरी काम करो! वेश्या अपने धंधे पर गयी, चोर अपने धंधे पर गया, भिक्षु अपने धंधे पर चले गये।
बुद्ध ने आनंद से कहा, तू न माने तो जाकर पूछ ले। आनंद बड़ा जिज्ञासु था! वह अंत तक विद्यार्थी बना रहा। बहुत साथ रहा बुद्ध के, लेकिन शिष्यत्व सधा उसका बुद्ध की मृत्यु के बाद। कभी कभी निकटता भी बाधा हो जाती है। आदमी बड़ा अजीब है! कभी कभी दूरी सहयोगी हो जाती है, निकटता बाधा हो जाती है। वह चचेरा भाई था बुद्ध का। यही खतरा हो गया। चचेरा भाई ही नहीं था, बड़ा भाई भी था। तो वह अकड़ उसमें बनी ही रही कि अरे, है तो मेरा ही भाई! और फिर मैं बड़ा भाई! दोनों साथ पढ़े, दोनों साथ बढ़े; शिकार खेला, लड़े झगड़े; कभी उसने बुद्ध को चारों खाने चित्त भी कर दिया होगा। भाई ही थे! एक ही महल में बड़े हुए थे। फिर बुद्ध जब ज्ञान को उपलब्ध हुए, तब भी उसने अपनी अकड़ न छोड़ी। आया, तो झुका तो, लेकिन झुकने के पहले उसने कहा कि तू सुन; सिद्धार्थ, तू सुन जब तक मैं तेरा भिक्षु नहीं हुआ हूं तब तक मैं तेरा बड़ा भाई हूं तू मेरा छोटा भाई है; तब तक मैं जो कहूं उसको सुन और मैं जो कहूं उसको मान। फिर तो मैं भिक्षु हो जाऊंगा, तेरा शिष्य हो जाऊंगा, फिर पुराना नाता तो समाप्त हो जाएगा, फिर मैं तेरी सुनूंगा और तेरी मानूंगा। इसके पहले कुछ बातें तय हो जानी चाहिए। देख, ये मेरी कुछ शर्तें हैं;
पहली शर्त तो यह कि भिक्षु हो जाने के बाद मुझे कभी तू अपने से दूर न भेज सकेगा। यह मेरी आज्ञा है। तू मेरा छोटा भाई है, तुझे माननी ही होगी। तू मुझे कभी भेज न सकेगा दूर। तू यह न कह सकेगा कि आनंद, अब तू जा और कहीं प्रचार कर, प्रसार कर। मैं तो साथ ही रहूंगा। दूसरी बात, मैं तो उसी कमरे में सोऊंगा जिसमें तू सोएगा। मैं रत्ती पल को भी दूर नहीं सोना चाहता। तीसरी बात, मैं जो भी पूछूंगा, उसका तुझे उत्तर देना होगा। जैसा तू औरों से कहता है कि सालभर बाद पूछना, कि दो साल चुप रहो, फिर पूछना, यह मेरे साथ न चलेगा। आखिर मैं तेरा भाई! आखिर तेरा बड़ा भाई! और चौथी बात कि अगर आधी रात को भी मैं किसी को ले आऊं, तो तुझे मिलना पड़ेगा। क्योंकि मैं तेरे साथ रहूं लोग मुझसे प्रार्थना करेंगे कि मिलवा दो; अगर मुझे लगा कि किसी को मिलवाना जरूरी है, तो तू मुझे रोक न सकेगा। आधी रात जगाकर भी, तो भी तू यह न कह सकेगा कि यह क्या करते हो? यह चार तू वचन दे दे; फिर मैं दीक्षा ले लेता हूं फिर मैं समर्पण कर देता हूं।
तो बुद्ध ने ये चार वचन दिये। उनकी करुणा, इसलिए चार वचन दिये कि चल, इस बहाने ही सही, मगर तू दीक्षित तो हो, फिर पीछे निपट लेंगे। मगर वह अकड़ जो बनी रही, बनी रही। बुद्ध के जीते जी न मिटी। वह जिज्ञासु ही रहा, विद्यार्थी ही रहा; ज्यादा से ज्यादा नाता उसका उतना ही बना। उसने पूछा जाकर आम्रपाली नाम की वेश्या के पास गया जो रात आयी थी और उसने पूछा कि क्या तेरे मन में ऐसा हुआ था? आम्रपाली ने कहा, यह तो हद हो गयी। एक तो उन्हें कैसे पता चला कि मैं आयी हूं! और यह कैसे पता चला कि मेरे मन में भी यह विचार उठे! सच कहते हैं वे! यही विचार उठे। जैसे ही उन्होंने कहा कि जाओ, अब रात्रि का अंतिम कार्य करो, मैं एकदम कपड़े झाड्कर खड़ी हो गयी, मैंने कहा, मैं भी कहा रात गंवाए दे रही हूं प्यारी रात है, ग्राहक आ गये होंगे। आम्रपाली बड़ी सुंदरी थी, नगरवधू थी। दूर दूर से राजा और सम्राट उसके द्वार पर आते थे। वह अपने रथ पर बैठी और वापिस गयी। और सच में वहां मेहमान खडे थे आकर। गुहार मची थी कि आम्रपाली कहां है? आज कहां गयी आम्रपाली?
आनंद ने जब उससे जाकर यह पूछा कि क्या तेरे मन में ऐसा हुआ था? और उसने कहा, ‘हां हुआ था’, तो आनंद के साथ साथ वह खुद आयी बुद्ध के चरणों में, उसने दीक्षा ले ली। उसने कहा कि आपने रात भी मुझे पहचान लिया और पकड़ लिया। और इतना ही नहीं कि बाहर से पहचाना और पकड़ा, भीतर से भी पहचाना और पकड़ा। अब इन चरणों के सिवाय मेरे लिए कहीं और कोई शरण नहीं है। अब कहीं नहीं जाना है। अब सब धंधा समाप्त; अब सब काम समाप्त। मुझ अपात्र को स्वीकार कर लें।
आनंद तो उस चोर के पास भी गया। और वह चोर भी दीक्षित हो गया। और आनंद ने बुद्ध से कहा कि आपने भी हद कर दी! कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझे यह जो जिज्ञासा हुई कि मैं जा जाकर पूछूं इस चोर से, इस वेश्या से वह भी आपकी ही तरकीब रही हो। क्योंकि ये दोनों आ गये और डूब गये! और मैं तो अभी भी किनारे पर खड़ा हूं सो किनारे पर खडा हूं! भौंचक्का, कि यह क्या हुआ, कैसे हुआ?
वह आखिर तक भौंचक्का रहा।
प्रत्यक्ष तो सिर्फ आत्मा ही हो सकती है। शेष सब में तो मन आ जाएगा। इसलिए यह सूत्र प्यारा है : मैं सदैव परम, प्रत्यक्ष, लब्ध! क्या अदभुत बात है। लब्ध अर्थात सदा उपलब्ध। ऐसा एक क्षण भी न था जब तुम परमात्मा न थे। ऐसा एक भी क्षण कभी नहीं होगा जब तुम परमात्मा न होओगे। अभी भी तुम परमात्मा हो जानो, न जानो! पहचानो, न पहचानो! भूलो, भटकी, मगर बदल नहीं सकते। लाख उपाय करो, तुम जो हो सो हो।
ओशो
‘लगन महूरत झूठ सब’ प्रवचन माला से
बुद्ध का नियम था कि रोज रात को प्रवचन के अंत में वे कहते थे, अब जाओ, दिन का अंतिम कार्य पूरा करो। भिक्षुओं ने समझा कि अब जाएं और ध्यान करें; क्योंकि वह दिन का अंतिम कार्य था। समाधिस्थ हों और फिर उसी समाधि में डूबते डूबते निद्रा में डूब जाएं। ध्यान करते करते नींद में उतर जाना सारी नींद को समाधि बना देता है। तो छह घंटे सोओ, आठ घंटे सीओ, वे आठ घंटे परम समाधि में गये। तुमने उनका उपयोग कर लिया। तुमने नींद को भी व्यर्थ न जाने दिया। लोग, तो यहां जागरण को भी व्यर्थ जाने दे रहे हैं, तुमने नींद का भी उपयोग कर लिया। तुमने नींद के समय में भी अमृत ढाल लिया। तो मेरे भिक्षुओं ने, बुद्ध ने कहा, समझा कि अब हम उठें, वे उठे कि अब जाएं ध्यान करें, सोने का समय हो गया। चोर एकदम से चौंका, उसने कहा कि मैं भी कहां की बातों में पड़ा हूं, अरे, जाऊं अपने काम में लग! और वेश्या ने कहा कि अदभुत हैं ये बुद्ध भी! इन्हें कैसे पता चल गया कि मैं भी आयी हुई हूं? क्या कहते हैं कि जाओ, अपने काम में लगो! अब अपना आखिरी काम करो! वेश्या अपने धंधे पर गयी, चोर अपने धंधे पर गया, भिक्षु अपने धंधे पर चले गये।
बुद्ध ने आनंद से कहा, तू न माने तो जाकर पूछ ले। आनंद बड़ा जिज्ञासु था! वह अंत तक विद्यार्थी बना रहा। बहुत साथ रहा बुद्ध के, लेकिन शिष्यत्व सधा उसका बुद्ध की मृत्यु के बाद। कभी कभी निकटता भी बाधा हो जाती है। आदमी बड़ा अजीब है! कभी कभी दूरी सहयोगी हो जाती है, निकटता बाधा हो जाती है। वह चचेरा भाई था बुद्ध का। यही खतरा हो गया। चचेरा भाई ही नहीं था, बड़ा भाई भी था। तो वह अकड़ उसमें बनी ही रही कि अरे, है तो मेरा ही भाई! और फिर मैं बड़ा भाई! दोनों साथ पढ़े, दोनों साथ बढ़े; शिकार खेला, लड़े झगड़े; कभी उसने बुद्ध को चारों खाने चित्त भी कर दिया होगा। भाई ही थे! एक ही महल में बड़े हुए थे। फिर बुद्ध जब ज्ञान को उपलब्ध हुए, तब भी उसने अपनी अकड़ न छोड़ी। आया, तो झुका तो, लेकिन झुकने के पहले उसने कहा कि तू सुन; सिद्धार्थ, तू सुन जब तक मैं तेरा भिक्षु नहीं हुआ हूं तब तक मैं तेरा बड़ा भाई हूं तू मेरा छोटा भाई है; तब तक मैं जो कहूं उसको सुन और मैं जो कहूं उसको मान। फिर तो मैं भिक्षु हो जाऊंगा, तेरा शिष्य हो जाऊंगा, फिर पुराना नाता तो समाप्त हो जाएगा, फिर मैं तेरी सुनूंगा और तेरी मानूंगा। इसके पहले कुछ बातें तय हो जानी चाहिए। देख, ये मेरी कुछ शर्तें हैं;
पहली शर्त तो यह कि भिक्षु हो जाने के बाद मुझे कभी तू अपने से दूर न भेज सकेगा। यह मेरी आज्ञा है। तू मेरा छोटा भाई है, तुझे माननी ही होगी। तू मुझे कभी भेज न सकेगा दूर। तू यह न कह सकेगा कि आनंद, अब तू जा और कहीं प्रचार कर, प्रसार कर। मैं तो साथ ही रहूंगा। दूसरी बात, मैं तो उसी कमरे में सोऊंगा जिसमें तू सोएगा। मैं रत्ती पल को भी दूर नहीं सोना चाहता। तीसरी बात, मैं जो भी पूछूंगा, उसका तुझे उत्तर देना होगा। जैसा तू औरों से कहता है कि सालभर बाद पूछना, कि दो साल चुप रहो, फिर पूछना, यह मेरे साथ न चलेगा। आखिर मैं तेरा भाई! आखिर तेरा बड़ा भाई! और चौथी बात कि अगर आधी रात को भी मैं किसी को ले आऊं, तो तुझे मिलना पड़ेगा। क्योंकि मैं तेरे साथ रहूं लोग मुझसे प्रार्थना करेंगे कि मिलवा दो; अगर मुझे लगा कि किसी को मिलवाना जरूरी है, तो तू मुझे रोक न सकेगा। आधी रात जगाकर भी, तो भी तू यह न कह सकेगा कि यह क्या करते हो? यह चार तू वचन दे दे; फिर मैं दीक्षा ले लेता हूं फिर मैं समर्पण कर देता हूं।
तो बुद्ध ने ये चार वचन दिये। उनकी करुणा, इसलिए चार वचन दिये कि चल, इस बहाने ही सही, मगर तू दीक्षित तो हो, फिर पीछे निपट लेंगे। मगर वह अकड़ जो बनी रही, बनी रही। बुद्ध के जीते जी न मिटी। वह जिज्ञासु ही रहा, विद्यार्थी ही रहा; ज्यादा से ज्यादा नाता उसका उतना ही बना। उसने पूछा जाकर आम्रपाली नाम की वेश्या के पास गया जो रात आयी थी और उसने पूछा कि क्या तेरे मन में ऐसा हुआ था? आम्रपाली ने कहा, यह तो हद हो गयी। एक तो उन्हें कैसे पता चला कि मैं आयी हूं! और यह कैसे पता चला कि मेरे मन में भी यह विचार उठे! सच कहते हैं वे! यही विचार उठे। जैसे ही उन्होंने कहा कि जाओ, अब रात्रि का अंतिम कार्य करो, मैं एकदम कपड़े झाड्कर खड़ी हो गयी, मैंने कहा, मैं भी कहा रात गंवाए दे रही हूं प्यारी रात है, ग्राहक आ गये होंगे। आम्रपाली बड़ी सुंदरी थी, नगरवधू थी। दूर दूर से राजा और सम्राट उसके द्वार पर आते थे। वह अपने रथ पर बैठी और वापिस गयी। और सच में वहां मेहमान खडे थे आकर। गुहार मची थी कि आम्रपाली कहां है? आज कहां गयी आम्रपाली?
आनंद ने जब उससे जाकर यह पूछा कि क्या तेरे मन में ऐसा हुआ था? और उसने कहा, ‘हां हुआ था’, तो आनंद के साथ साथ वह खुद आयी बुद्ध के चरणों में, उसने दीक्षा ले ली। उसने कहा कि आपने रात भी मुझे पहचान लिया और पकड़ लिया। और इतना ही नहीं कि बाहर से पहचाना और पकड़ा, भीतर से भी पहचाना और पकड़ा। अब इन चरणों के सिवाय मेरे लिए कहीं और कोई शरण नहीं है। अब कहीं नहीं जाना है। अब सब धंधा समाप्त; अब सब काम समाप्त। मुझ अपात्र को स्वीकार कर लें।
आनंद तो उस चोर के पास भी गया। और वह चोर भी दीक्षित हो गया। और आनंद ने बुद्ध से कहा कि आपने भी हद कर दी! कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझे यह जो जिज्ञासा हुई कि मैं जा जाकर पूछूं इस चोर से, इस वेश्या से वह भी आपकी ही तरकीब रही हो। क्योंकि ये दोनों आ गये और डूब गये! और मैं तो अभी भी किनारे पर खड़ा हूं सो किनारे पर खडा हूं! भौंचक्का, कि यह क्या हुआ, कैसे हुआ?
वह आखिर तक भौंचक्का रहा।
प्रत्यक्ष तो सिर्फ आत्मा ही हो सकती है। शेष सब में तो मन आ जाएगा। इसलिए यह सूत्र प्यारा है : मैं सदैव परम, प्रत्यक्ष, लब्ध! क्या अदभुत बात है। लब्ध अर्थात सदा उपलब्ध। ऐसा एक क्षण भी न था जब तुम परमात्मा न थे। ऐसा एक भी क्षण कभी नहीं होगा जब तुम परमात्मा न होओगे। अभी भी तुम परमात्मा हो जानो, न जानो! पहचानो, न पहचानो! भूलो, भटकी, मगर बदल नहीं सकते। लाख उपाय करो, तुम जो हो सो हो।
ओशो
‘लगन महूरत झूठ सब’ प्रवचन माला से
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