आसाम में अब भी तांत्रिकों का एक छोटा समुदाय सांप को पाल कर रखता है।
क्योंकि और सभी तरह के जहर नशा नहीं लाते, सिर्फ सांप से जीभ पर कटाएं, तो
थोड़ा बहुत नशा आता है।
उत्तेजना की दौड़ में हम धीरे धीरे जड़ होते चले जाते हैं। जितनी तेज उत्तेजना हम लेंगे, उतनी ही हमारी इंद्रियों की क्षमता अनुभव करने की कम हो जाती है। फिर और ज्यादा चाहिए, फिर और ज्यादा चाहिए। और इस दौड़ का कोई अंत नहीं है। आखिर में यह दौड़ इंद्रियों को बिलकुल पत्थर बना देती है।
अगर आप भोजन में बहुत तेज उत्तेजनाएं पसंद करते हैं, तो बहुत शीघ्र ही आपके स्वाद की क्षमता मर जाएगी। कितनी ही मिर्च आप लें, बेस्वाद मालूम पड़ेगा। मिर्च का रस क्या है? तेज उत्तेजना है स्वाद को जगाने के लिए। लेकिन जिसे हम जगाने के लिए लेते हैं, वही मारने का कारण हो जाता है। अगर आप बिना मिर्च के भोजन लें, तो आपको लगेगा कि आप मिट्टी खा रहे हैं। भोजन का जो स्वाद है, वह आपको आता ही नहीं अब। आपकी स्वाद की क्षमता कम हो गई। यह उलटा लगेगा। स्वाद की दौड़ में स्वाद की क्षमता कम हो जाती है। जो स्वाद बुद्ध और महावीर को भोजन से मिला होगा, वह आपको नहीं मिल सकता।
इसलिए मैं तो निरंतर कहता हूं कि जिनको हम आप त्यागी कहते हैं, उन जैसा परम भोगी खोजना मुश्किल है। क्योंकि उनका जो भी अनुभव है, शुद्धतम है। अगर बुद्ध पानी भी पीएंगे, तो उसमें भी जो स्वाद ले पाएंगे, वह आप शराब में भी न ले पाएंगे। क्योंकि जितनी उत्तेजना कम दी गई है इंद्रियों छ को, उतनी ही इंद्रियां ज्यादा सक्षम रहती हैं और सूक्ष्म को पकड़ने में कुशल होती हैं।
अगर आप जोर से बैंड़ बाजे के सुनने के आदी रहे हों, तो फिर पक्षियों की धीमी सी आवाज आपको सुनाई नहीं पड़ेगी। लेकिन उनका भी गीत है। फिर झींगुर की सन्नाटे में आने वाली आवाज का आपको पता भी नहीं चलेगा, उसका भी गीत है। फिर हवाएं जो वृक्षों से गुजरती हैं, उनकी जो सरसराहट है, उसका भी संगीत है, लेकिन वह आपको सुनाई नहीं पड़ेगा। लेकिन ये भी उत्तेजनाएं काफी हैं। हृदय के भीतर जो गीत की गज उठती है, वह तो आपको पता ही नहीं चलेगी। और आपके अंतस आलोक में अंतस आकाश में जो नाद प्रतिध्वनित होता है ओंकार का, वह तो आपको कभी पता न चलेगा। और जिसने अपने हृदय के नाद को नहीं सुना, उसने कुछ भी नहीं सुना। वह वंचित ही रह गया संगीत के परम माधुर्य से।
साधना सूत्र
ओशो
उत्तेजना की दौड़ में हम धीरे धीरे जड़ होते चले जाते हैं। जितनी तेज उत्तेजना हम लेंगे, उतनी ही हमारी इंद्रियों की क्षमता अनुभव करने की कम हो जाती है। फिर और ज्यादा चाहिए, फिर और ज्यादा चाहिए। और इस दौड़ का कोई अंत नहीं है। आखिर में यह दौड़ इंद्रियों को बिलकुल पत्थर बना देती है।
अगर आप भोजन में बहुत तेज उत्तेजनाएं पसंद करते हैं, तो बहुत शीघ्र ही आपके स्वाद की क्षमता मर जाएगी। कितनी ही मिर्च आप लें, बेस्वाद मालूम पड़ेगा। मिर्च का रस क्या है? तेज उत्तेजना है स्वाद को जगाने के लिए। लेकिन जिसे हम जगाने के लिए लेते हैं, वही मारने का कारण हो जाता है। अगर आप बिना मिर्च के भोजन लें, तो आपको लगेगा कि आप मिट्टी खा रहे हैं। भोजन का जो स्वाद है, वह आपको आता ही नहीं अब। आपकी स्वाद की क्षमता कम हो गई। यह उलटा लगेगा। स्वाद की दौड़ में स्वाद की क्षमता कम हो जाती है। जो स्वाद बुद्ध और महावीर को भोजन से मिला होगा, वह आपको नहीं मिल सकता।
इसलिए मैं तो निरंतर कहता हूं कि जिनको हम आप त्यागी कहते हैं, उन जैसा परम भोगी खोजना मुश्किल है। क्योंकि उनका जो भी अनुभव है, शुद्धतम है। अगर बुद्ध पानी भी पीएंगे, तो उसमें भी जो स्वाद ले पाएंगे, वह आप शराब में भी न ले पाएंगे। क्योंकि जितनी उत्तेजना कम दी गई है इंद्रियों छ को, उतनी ही इंद्रियां ज्यादा सक्षम रहती हैं और सूक्ष्म को पकड़ने में कुशल होती हैं।
अगर आप जोर से बैंड़ बाजे के सुनने के आदी रहे हों, तो फिर पक्षियों की धीमी सी आवाज आपको सुनाई नहीं पड़ेगी। लेकिन उनका भी गीत है। फिर झींगुर की सन्नाटे में आने वाली आवाज का आपको पता भी नहीं चलेगा, उसका भी गीत है। फिर हवाएं जो वृक्षों से गुजरती हैं, उनकी जो सरसराहट है, उसका भी संगीत है, लेकिन वह आपको सुनाई नहीं पड़ेगा। लेकिन ये भी उत्तेजनाएं काफी हैं। हृदय के भीतर जो गीत की गज उठती है, वह तो आपको पता ही नहीं चलेगी। और आपके अंतस आलोक में अंतस आकाश में जो नाद प्रतिध्वनित होता है ओंकार का, वह तो आपको कभी पता न चलेगा। और जिसने अपने हृदय के नाद को नहीं सुना, उसने कुछ भी नहीं सुना। वह वंचित ही रह गया संगीत के परम माधुर्य से।
साधना सूत्र
ओशो
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