अनुभव से उत्तेजना समाप्त हो जाती है, इसलिए अनुभव से सुख दुख बन जाते
हैं। जो सुख आपको नहीं मिला है अभी तक, वही सुख मालूम पड़ता है। जब मिल
जाएगा, वही दुख हो जाएगा। मिला कि दुख हुआ। मिलते ही सुख दुख हो जाते हैं,
क्योंकि उत्तेजनाएं और बड़ी उत्तेजनाओं की मांग करती हैं। और आपके अनुभव की
इंद्रियां शिथिल होती चली जाती हैं। एक घड़ी ऐसी आती है कि आप कुछ भी अनुभव
नहीं कर पाते हैं। क्योंकि आपकी सब इंद्रियों के अनुभव की जो संवेदनशीलताए
हैं, वे सब जड़ हो गई होती हैं। फिर आप परमात्मा की खोज में लगते हैं!
जब आदमी का हो जाता है.. .मैं बूढ़ा आदमी उसको कहता हूं उम्र से नहीं बूढ़ा आदमी उसको कहता हूं जिसने उत्तेजनाओं की दौड़ में अपनी सारी इंद्रियों को जड़ कर लिया है। यह जवानी में भी हो सकता है, यह बचपन में भी हो सकता है। आज अमरीका में बचपन में हुआ जा रहा है। अब इतनी देर नहीं लगती, बुढ़ापे तक रुकने की जरूरत नहीं है। अगर आपको इतनी सुविधाएं मिलें उत्तेजना की, तो आप बचपन में ही जड़ हो जाएंगे। और जब सब तरफ से इंद्रियां जड़ हो जाती हैं, तब आदमी खोज करता है- आनंद कहां है? आत्मा कहां है? परमात्मा कहां है? बड़ी मुश्किल है, क्योंकि उनकी खोज के लिए तो इंद्रियों की संवेदना की क्षमता शुद्ध होनी चाहिए।
अगर महावीर और बुद्ध अपने राजमहलों को छोड़ कर भाग जाते हैं, यह घटना बहुत ऊपरी है। भीतरी घटना तो यह है कि वह उत्तेजना की जगह को छोड़ कर हट रहे हैं, ताकि इंद्रियों की शुद्धि और उनकी नैसर्गिकता को पुन: पाया जा सके। जंगल की तरफ भाग रहे हैं, उसका अर्थ है कि निसर्ग की तरफ भाग रहे हैं, प्रकृति की तरफ भाग रहे हैं। ताकि अनुभव करने के जो द्वार हैं हमारे भीतर, उन पर जितना कूड़ा—करकट और कचरा इकट्ठा हो गया है, वह हट जाए। वह जब हट जाएगा और हम सूक्ष्मतर होने लगेंगे, तभी हम उसको सुन पाएंगे, जो केवल सूक्ष्म इंद्रियों से ही सुना जा सकता है। और उसको देख पाएंगे, जो केवल सूक्ष्म आंखों से ही देखा जा सकता है। इसी संबंध में यह सूत्र है। पहला सूत्र, ‘ उत्तेजना की इच्छा को दूर करो।’
हटाओ उत्तेजना की इच्छा को। इसका यह अर्थ नहीं है कि यह सूत्र इंद्रिय विरोधी है। सच तो यह है कि आपकी उत्तेजना की इच्छा ही इंद्रियों की हत्या है। यह सूत्र इंद्रियों की शुद्धिकरण का सूत्र है, उनका विरोधी नहीं है। अगर आप स्वाद से उत्तेजना को हटा दें, तो रूखी रोटी में भी वैसा स्वाद उपलब्ध हो सकेगा, जो राजमहलों के भोग में उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि स्वाद रोटी पर, भोजन पर निर्भर नहीं करता, स्वाद लेने वाले पर निर्भर करता है। आप पर निर्भर करता है कि आप कितना अनुभव कर सकते हैं, कितना गहरा उतर सकते हैं अनुभव में।
उत्तेजना की इच्छा को दूर किए बिना कोई भी व्यक्ति साधना के जगत में प्रवेश नहीं कर सकता। क्योंकि साधना का अर्थ ही है कि अब हम स्थूल को छोड़ते हैं और सूक्ष्म की तलाश पर निकलते हैं। लेकिन सूक्ष्म की तलाश करनी तो आपको होगी! आप सूक्ष्म को अनुभव भी कर सकते हैं या नहीं? आपके पास वह क्षमता भी है जिससे सूक्ष्म का मेल हो सके?
साधना सूत्र
ओशो
जब आदमी का हो जाता है.. .मैं बूढ़ा आदमी उसको कहता हूं उम्र से नहीं बूढ़ा आदमी उसको कहता हूं जिसने उत्तेजनाओं की दौड़ में अपनी सारी इंद्रियों को जड़ कर लिया है। यह जवानी में भी हो सकता है, यह बचपन में भी हो सकता है। आज अमरीका में बचपन में हुआ जा रहा है। अब इतनी देर नहीं लगती, बुढ़ापे तक रुकने की जरूरत नहीं है। अगर आपको इतनी सुविधाएं मिलें उत्तेजना की, तो आप बचपन में ही जड़ हो जाएंगे। और जब सब तरफ से इंद्रियां जड़ हो जाती हैं, तब आदमी खोज करता है- आनंद कहां है? आत्मा कहां है? परमात्मा कहां है? बड़ी मुश्किल है, क्योंकि उनकी खोज के लिए तो इंद्रियों की संवेदना की क्षमता शुद्ध होनी चाहिए।
अगर महावीर और बुद्ध अपने राजमहलों को छोड़ कर भाग जाते हैं, यह घटना बहुत ऊपरी है। भीतरी घटना तो यह है कि वह उत्तेजना की जगह को छोड़ कर हट रहे हैं, ताकि इंद्रियों की शुद्धि और उनकी नैसर्गिकता को पुन: पाया जा सके। जंगल की तरफ भाग रहे हैं, उसका अर्थ है कि निसर्ग की तरफ भाग रहे हैं, प्रकृति की तरफ भाग रहे हैं। ताकि अनुभव करने के जो द्वार हैं हमारे भीतर, उन पर जितना कूड़ा—करकट और कचरा इकट्ठा हो गया है, वह हट जाए। वह जब हट जाएगा और हम सूक्ष्मतर होने लगेंगे, तभी हम उसको सुन पाएंगे, जो केवल सूक्ष्म इंद्रियों से ही सुना जा सकता है। और उसको देख पाएंगे, जो केवल सूक्ष्म आंखों से ही देखा जा सकता है। इसी संबंध में यह सूत्र है। पहला सूत्र, ‘ उत्तेजना की इच्छा को दूर करो।’
हटाओ उत्तेजना की इच्छा को। इसका यह अर्थ नहीं है कि यह सूत्र इंद्रिय विरोधी है। सच तो यह है कि आपकी उत्तेजना की इच्छा ही इंद्रियों की हत्या है। यह सूत्र इंद्रियों की शुद्धिकरण का सूत्र है, उनका विरोधी नहीं है। अगर आप स्वाद से उत्तेजना को हटा दें, तो रूखी रोटी में भी वैसा स्वाद उपलब्ध हो सकेगा, जो राजमहलों के भोग में उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि स्वाद रोटी पर, भोजन पर निर्भर नहीं करता, स्वाद लेने वाले पर निर्भर करता है। आप पर निर्भर करता है कि आप कितना अनुभव कर सकते हैं, कितना गहरा उतर सकते हैं अनुभव में।
उत्तेजना की इच्छा को दूर किए बिना कोई भी व्यक्ति साधना के जगत में प्रवेश नहीं कर सकता। क्योंकि साधना का अर्थ ही है कि अब हम स्थूल को छोड़ते हैं और सूक्ष्म की तलाश पर निकलते हैं। लेकिन सूक्ष्म की तलाश करनी तो आपको होगी! आप सूक्ष्म को अनुभव भी कर सकते हैं या नहीं? आपके पास वह क्षमता भी है जिससे सूक्ष्म का मेल हो सके?
साधना सूत्र
ओशो
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