मित्र! मेरी बात से दिख रहा है तो उसका कोई भी मूल्य नहीं है, बातों को छोड़ दो-मेरी भी, औरों की भी! और फिर देखो।
आपको स्वयं दिखना चाहिए। वह दर्शन ही जीवन की ओर ले जाने का मार्ग बन जाएगा और तब आपको ‘ जीवन पाने के लिए क्या करूं?’ यह नहीं पूछना पड़ेगा। जिसे यह दर्शन होगा कि मैं मृत हूं मेरा अब तक का होना—,मेरा अब तक का व्यक्तित्व, यह सब मृत्यु ही है, तब उसे साथ ही साथ उसके भी दर्शन होने लगेंगे, जो कि मृत्यु नहीं है।
पर यह दिख सके उसके लिए चित्त की अशांति का विसर्जित होना आवश्यक है। चित्त शांत हो, शून्य हो, निर्विचार हो, तो दर्शन होता है। अभी सब विचार है, दर्शन कुछ भी नहीं है। मेरी बात ठीक लगी, यह भी एक विचार है। इस विचार से कुछ भी नहीं होगा। विचार सत्य को नहीं उघाड़ता है, क्योंकि सब विचार पराए हैं। वे तो सत्य को और भी ढंक लेते हैं।
क्या इस बात पर कभी दृष्टि गई है कि आपके पास जितने विचार हैं, सब पराए और उधार हैं? यह पूंजी झूठी है। इस पर विश्वास मत कर लेना, क्योंकि यह कोई पूंजी ही नहीं है। इस पर खड़े किए भवन स्वप्न में बनाए गए भवनों जैसे हैं, वे ताश के पत्तों से बनाए गए घरों जितना भी सत्य नहीं हैं।
मैं आपको कोई विचार नहीं देना चाहता हूं। मैं आपको उधारी से नहीं भरना चाहता हूं। मैं तो चहता हूं कि आप विचारे नहीं, जागे। मैं तो चाहता हूं कि आप विचार छोड़े और फिर देखें-फिर देखें कि क्या होता है! विचार से दर्शन पर चलें, वही सत्य पर और उस सत्य संपत्ति पर पहुंचाता है जो कि आपकी अपनी है।
विचार छोड़ कर देखना, सीइंग विदाउट थिंकिंग-कैसे रहस्य के पर्दों को गिरा देता है, यह तो स्वयं बिना किए नहीं जाना जा सकता है। स्मरण रखें कि इस जगत में ऐसी कोई भी मूल्यवान अनुभूति नहीं है जो कोई दूसरा आपको दे सके, और जो भी दिया जा सकता है, वह न तो मूल्यवान होता है और न ही अनुभूति होती है।
बस वस्तुएं ही ली-दी जा सकती हैं। जीवित अनुभूतियों को लेनेदेने का कोई उपाय नहीं है। न महावीर, न बुद्ध, न कृष्ण, न क्राइस्ट-कोई भी आपको कुछ भी नहीं दे सकते हैं। और जो उनके विचारों को पकड़ लेते हैं, और जो उनके विचारों को ही सत्य समझ लेते हैं, वे स्वयं सत्य को जानने से वंचित रह जाते हैं। दूसरे का सत्य नहीं, स्वयं का सत्य ही मुक्त करता है।
गीता को, कुरान को, बाइबिल को कंठस्थ कर लो, उससे कुछ भी नहीं होगा। उससे ज्ञान नहीं आएगा, उलटे वे विचार आपके स्वज्ञान की क्षमता को आवृत्त ही कर लेंगे और आप स्वयं सत्य के सामने सीधे नहीं खड़े हो सकेंगे और शास्त्रों से स्मृति में आ गए शब्द सदा ही बीच में खड़े हो जाएंगे। वे धुंध और कुहासा पैदा करेंगे और ‘जो है’ उसका दर्शन असंभव हो जाएगा।
सत्य और अपने बीच से सब अलग कर लेना आवश्यक है। सत्य को जानने को किसी विचार के सहारे की जरूरत नहीं है। सब हटा दो, तब आप खुलोगे, तब द्वार, ओपनिंग मिलेगा कि सत्य आपमें आ सके और आपको परिवर्तित कर सके।
विचार छोड़ो और देखो; द्वार खोलो और देखो। बस इतना ही मेरा कुछ कहना है।
साधनापथ
ओशो
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