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Thursday, August 13, 2015

नैतिकता

मिथ्या नैतिकता बाह्य आरोपण, कल्टीवेशन होती है। उससे दंभ की तृप्ति के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता है, और मेरी दृष्टि में दंभ- अहंकार से अधिक अनैतिक चित्तस्थिति और कोई भी नहीं है। मिथ्या नैतिकता विनय और निरअहंकारिता का भी आरोपण कर लेती है। पर उसके पीछे अहंकार ही पोषित होता और फलताफूलता है। क्या तथाकथित साधुओं और सज्जनों में, जो मैं कह रहा हूं उस सत्य के दर्शन नहीं होते हैं?


तथाकथित, आरोपित, इम्पोज्‍ड, चेष्टित, प्रयत्नसाध्य नैतिकता को मैं अभिनय, एक्टिंग कहता हूं। उसके बिलकुल ही विपरीत व्यक्ति का अंतस, अंतःकरण होता है। जो ऊपर दिखता है, वह भीतर नहीं होता है।
ऊपर फूल, भीतर कांटे होते हैं। आचरण से विरोधी और सतत संघर्षरत अंतसचेतना और अचेतन के बीच एक अलंध्य खाई व्यक्ति को विभाजित और खंडित कर देती है। ऐसे व्यक्ति के भीतर संगीत नहीं होता है। और जहां संगीत, हार्मनी नहीं है, वहां आनंद नहीं है। मैं वास्तविक नैतिक जीवन को आनंद से आविर्भूत मानता हूं।
नीति आनंद की स्फुरणा है, वह सहज स्फुरणा, स्पाटेनियस एक्सप्रेशन है। आनंद जब अंतस से प्रवाहित होता है, तो वह बाहर के जगत में सदाचरण बन जाता है। आनंद की जो सुगंध बाहर फैल जाती है, वही शुभ जीवन है।
इसलिए मैं संघर्ष पैदा करने को नहीं, संगीत पैदा करने को कहता हूं। इस सत्य को देखो। मेरी बातों को केवल सुनो ही मत, उन्हें जीओ और तब आपको ज्ञात होगा कि जो जीवन संगीत और सौंदर्य का अखंड नृत्य हो सकता है, उसे हमने कैसे अपने ही हाथों संघर्ष और अंतर्द्वंद्व की अराजकता, अनार्की बना रखा है।

नीति आती है, वह लाई नहीं जाती है,वैसे ही जैसे वृक्षों में फूल आते हैं। ध्यान के बीज बोने होते हैं, नीति की फसल काटी जाती है। नीति नहीं साधी जाती है, साधा जाता है ध्यान। ध्यान से शांति और संगीत और सौंदर्य का जन्म होता है। और जिसके भीतर शांति है, वह दूसरे को अशांत करने में असमर्थ हो जाता है। और जिसके भीतर संगीत है, उसके सान्निध्य से दूसरे में भी संगीत के स्वर प्रतिध्वनित होने लगते हैं। और जिसके भीतर सौंदर्य है, उसके आचरण से सारी कुरूपता, अग्लीनेस विलीन हो जाती है। क्या यही हो जाना नैतिक हो जाना नहीं है?

साधना पथ

ओशो 

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