नीरवता (साइलेंस) में से, जो स्वयं शांति है,
एक गूंजती हुई वाणी प्रकट होगी।
और वह वाणी कहेगी.
‘यह अच्छा नहीं है, काट तो तुम चुके, अब तुम्हें बोना चाहिए।’
यह वाणी स्वयं नीरवता ही है,
यह जानकर तुम उसके आदेश का पालन करोगे।
तुम जो अब शिष्य हो,
अपने पैरों पर खड़े रह सकते हो,
सुन सकते हो, देख सकते हो, बोल सकते हो।
तुम जिसने वासनाओं को जीत लिया है और आत्म—ज्ञान प्राप्त कर लिया है,
जिसने अपनी आत्मा को विकसित अवस्था में देख लिया है और पहचान लिया है,
और नीरवता के नाद को सुन लिया है,
तुम अब उस ज्ञान—मंदिर में जाओ,
जो परम—प्रज्ञा का मंदिर है
और जो कुछ तुम्हारे लिए वहां लिखा है, उसे पढ़ो।
नीरवता की वाणी सुनने का अर्थ है,
यह समझ जाना कि एकमात्र पथ—निर्देश
अपने भीतर से ही प्राप्त होता है।
प्रज्ञा के मंदिर में जाने का अर्थ है,
उस अवस्था में प्रविष्ट होना
जहां ज्ञान प्राप्ति संभव होती है।
तब तुम्हारे लिए वहां बहुत से शब्द लिखे होंगे
और वे ज्वलंत अक्षरों में लिखे होंगे,
जिससे तुम उन्हें सरलता से पढ सको,
क्योंकि जब शिष्य तैयार हो जाता है,
तो श्री गुरुदेव भी तैयार ही हैं।
साधनासूत्र
ओशो
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