शास्त्रों के अध्ययन से क्या होगा? उस तरह ज्ञान थोड़े ही आता है। केवल स्मृति प्रशिक्षित होती है। आप कुछ बातें सीख लेते है, पर क्या सीख लेना, लर्निंग और जान लेना, नोइंग एक ही बात है? ईश्वर, आत्मा, सत्य सब सीख लिया जा सकता है? आप बंधे बधाए उत्तर देने में समर्थ हो जाते हो। पर इसमें और सुबह आपके घर का तोता जो बोलता है, उसमें क्या भेद है?
शास्त्रों में सत्य नहीं है, सत्य तो स्वयं में है। शास्त्रों में तो केवल शब्द है और स्वयं में उस सत्य को जान लिया जाता है। हां जान कर शास्त्र अवश्य जान लिए जाते है।
पर मैं क्या देखता हूं कि सत्य की जगह शास्त्र जाने जा रहे है और उस जानकारी से तृप्ति भी पाई जा रही है। यह तृप्ति कितनी थोथी और मिथ्या है। क्या यह इस बात की सूचना नहीं है कि हम सत्य को तो नहीं जानना चाहते है, हम केवल इतना ही चाहते है कि लोग जानें कि हम सत्य को जानते है। यदि हम वस्तुत: सत्य को जानना चाहते है तो मात्र शब्दों से तृप्ति नहीं हो सकती थी। क्या कभी सुना है कि मात्र ‘जल’ शब्द से किसी की प्यास शांत हुई है? और अगर हो जाये तो क्या ज्ञात नहीं होता कि प्यास थी ही नहीं?
शास्त्रों से एक ही बात ज्ञात हो जाए कि शास्त्रों से सत्य नहीं मिल सकता है, तो बस उनकी एक मात्र उपादेयता है। शब्द इतना बात दे कि शब्द व्यर्थ है तो पर्याप्त है। शास्त्र तृप्त नहीं, अतृति दे तो सही है। काफी है। उनसे ज्ञान तो न मिले, अपने अज्ञान का बोध हो तो वह बहुत है।
मैं भी शब्द ही बोल रहा हूं; ऐसे ही शास्त्र बन जाते है। इन शब्दों को पकड़ ले, तो सब व्यर्थ हो जाएंगे। इन्हें कितना भी याद कर लें तो कुछ भी न होगा। ये तो आपके मन का कारागृह बन जाएंगे। और फिर आप जीवन भर उस स्वनिर्मित शब्द कारा में ही भटकते रहेंगे। हम सब अपने ही हाथों से बनाई कैदों; प्रिज़म में बंद है। सत्य को जानना है तो शब्द की कैद तो तोड़ दें। इन दिवालों को गिरा दें। जानकारी, इनफर्मेंशन की घेराबंदी को राख हो जाने दे। उस राख पर ही ज्ञान, नॉलिज का जन्म होता है। और उस कारा मुक्त चैतन्य में ही सत्य का दर्शन होता है। सत्य तो आता है, पर वह आ सके इसके लिए अपने में जगह बनानी होती है। शब्दों को हटा दें तो उसी रिक्त स्थान, स्पेस में उसका पदार्पण होता है।
साधनापथ
ओशो
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