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Sunday, August 9, 2015

सद्गुरु के पास जाने के चार ढंग

एक तो है कुतूहलवश; यूं ही जिज्ञासा से कि देखें, क्या है! देखें, क्या हो रहा है! देखें, क्या कहा जा रहा है! वह सबसे उथला पहलू है।

दूसरा पहलू है विद्यार्थी का, कि कुछ सीखकर आयें; कुछ सूचनाएं ग्रहण करें; कुछ शान संगृहीत करें। वह थोडा गहरा है, मगर बहुत गहरा नहीं। चमड़ी जितनी गहरी, बस इतना गहरा है। तुम कुछ सूचनाएं इकट्ठी करोगे और लौट जाओगे।

 तीसरा पहलू है शिष्य का। जिज्ञासु को जोड़ो ब्रह्मा से। विद्यार्थी को जोड़ो विष्णु से। शिष्य को जोड़ो महेश से।
शिष्य वह है, जो मिटने को तैयार है। विद्यार्थी वह है, जो अपने को सजाने-संवारने में लगा है। थोड़ा ज्ञान और, थोड़ी जानकारी और, थोड़ी पदविया और, थोड़ी डिग्रियां और। थोड़े सर्टिफिकेट, थोड़े प्रमाणपत्र, थोड़े तगमे!

जिज्ञासु तो वह है, जो अपने को संवारने में लगा है। और जो कुतूहल से भरा है, उसने तो अभी यात्रा ही शुरू की; अभी तो ब्रह्मा का ही काम शुरू हुआ; बीज बोया गया। अभी सृजन की शुरुआत हुई। विद्यार्थी जरा आगे बढ़ा, उसमें दो पत्ते टूटे; अंकुर फूटे। शिष्य वह है, जो मिटने को तैयार है, मरने को तैयार है; जो कहता है कि गुरु के लिए सब कुछ समर्पित करने को तैयार हूं। उस तैयारी से शिष्य बनता है।

सभी विद्यार्थी शिष्य नहीं होते। विद्यार्थी की उत्सुकता शान में होती है; शिष्य की उत्सुकता ध्यान में होती है। ज्ञान से तुम्हारा अहंकार भरता है और संवरता है। ध्यान से तुम्हारा अहंकार मरता है और मिटता है।

 और चौथी अवस्था है भक्त की। भक्त का अर्थ होता है, जो मिट ही चुका। शिष्य ने शुरुआत की; भक्त ने पूर्णता कर दी। भक्त जान पाता है परब्रह्म की अवस्था को। जो गुरु के सामने मिट ही गया; मिटने को भी कुछ न बचा अब जो यह भी नहीं कह सकता कि मैं मिटना चाहता हूं जो इतना भी नहीं है—वही भक्त है। और जहां भक्ति है, वहां परात्पर ब्रह्म का साक्षात्कार है।

मेरा स्वर्णिम भारत

ओशो
 

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