ये तो तीन चरण हुए। फिर जो अनुभूति तुम्हारे भीतर इन तीन चरणों से होगी…। ये तो तीन द्वार हुए। इनसे प्रवेश करके मंदिर की जो प्रतिमा का मिलन होगा, वह चौथा, तुरीय, चौथी अवस्था-गुरु: साक्षात् परब्रह्म। तब तुम जानोगे कि जिसके पास बैठे थे, वह कोई व्यक्ति नहीं था। जिसने सम्हाला, मारा-पीटा-तोड़ा, जगाया -वह तो कोई व्यक्ति नहीं था। वह तो था ही नहीं; उसके भीतर परमात्मा ही था।
और जिस दिन तुम अपने गुरु के भीतर परमात्मा को देख लोगे, उस दिन अपने भीतर भी परमात्मा को देख लोगे। क्योंकि गुरु तो दर्पण है, उसमें तुम्हें अपनी ही झलक दिखाई पड़ जायेगी। आंख निर्मल हुई कि झलक दिखाई पड़ी।
तीन चरण हैं, चौथी मंजिल है। और सद्गुरु के पास चारों चरण पूरे हो जाते हैं।’
तस्मै श्री गुरुवे नम: ‘।…
इसलिए गुरु को नमस्कार। इसलिए, गुरु को नमन। इसलिए, झुकते हैं उसके लिए।
और पूर्णिमा का दिन ही चुना है उसके लिए, सत्य वेदान्त, क्योंकि हमारा जीवन दिन की तरह नहीं है-रात की तरह है। और रात में सूरज नहीं उगा करते। रात में चांद उगता है। हम हैं रात-अंधेरी रात। और गुरु हमारे जीवन में जब आ जाता है, तो जैसे पूर्णिमा की रात आ गई। जैसे पूनम का चांद उतर आया। चंद्रमा प्रतीक है बहुत-सी चीजों का। एक तो यह कि वह रात में रोशनी देता है। और तुम अंधेरी रात हो, और तुम्हें चांद चाहिए-सूरज नहीं। सूरज का क्या करोगे! सूरज से तो तुम्हारा मिलन ही नहीं होगा। तुम तो अंधेरी रात हो, तुम्हें तो सूरज की कोई खबर नहीं। तुम्हें तो चांद ही मिल सकता है।
और चांद की कई खुबियां हैं। पहली तो खूबी यह कि चांद की रोशनी चांद की नहीं होती; सूरज की होती है। दिनभर चांद सूरज की रोशनी पीता है, और रातभर सूरज की रोशनी को बिखेरता है। चांद की कोई अपनी रोशनी नहीं होती। जैसे तुम एक दिया जलाओ और दर्पण में से दिया रोशनी फेंके। दर्पण की कोई रोशनी नहीं होती; रोशनी तो दिये की है। मगर तुम्हारा अभी दिये से मिलना नहीं हो सकता। और अभी दिये को देखोगे, तो जल पाओगे। आंखें जल जायेंगी। अभी रोशनी को सामने से तुम सीधा देखोगे, सूरज को, तो आंखें फूट जायेंगी। यूं ही अंधे हो-और आंखें फूट जायेंगी!
अभी परमात्मा से तुम्हारा सीधा मिलन नहीं हो सकता। अभी तो परमात्मा का बहुत सौम्य रूप चाहिए, जिसको तुम पचा सको। चंद्रमा सौम्य है। रोशनी तो सूरज की ही है। गुरु में जो प्रगट हो रहा है, वह तो सूरज ही है, परमात्मा ही है। मगर गुरु के माध्यम से सौम्य हो जाता है।
चंद्रमा की वही कला है, कीमिया है। वह उसका जादू है-कि सूरज की रोशनी को पीकर और शीतल कर देता है। सूरज को देखोगे, तो गर्म है, उत्तप्त है; और चांद को देखोगे, तो तुम शीतलता से भर जाओगे। सूरज पौरुष है, पुरुष है। चंद्रमा स्त्रैण है, मधुर है, प्रसादपूर्ण है। परमात्मा तो पुरुष है, कठोर है, सूरज जैसा है। उसको पचाना सीधा सीधा, आसान नहीं। उसे पचाने के लिए सद्गुरु से गुजरना जरूरी है। सद्गुरु तुम्हें वही रोशनी दे देता है, लेकिन इस ढंग से कि तुम उसे पी लो। जैसे सागर से कोई पानी पिये, तो मर जाये। हालाकि कुंए में भी जो पानी है, है सागर का ही। मगर बदलियों में उठकर आता है। नदियों में झरकर आता है। पहाड़ों पर से गिरकर आता तो सागर का ही। पानी तो सब सागर का है। गंगा में हो, कि यमुना में हो, कि नर्मदा में हो, कि तुम्हारे कुंए में हो, किसी पहाड़ के झरने में हो -है तो सब सागर का, लेकिन सागर का पानी पियोगे तो मर जाओगे लेकिन झरने में कुछ बात है, कुछ राज है; उसी पानी को तुम्हारे पचाने के योग्य बना देता है!
सद्गुरु की वही कला है। उसके भीतर से परमात्मा गुजरकर सौम्य हो जाता है, स्त्रैण हो जाता है; मधुर हो जाता है; प्रीतिकर हो जाता है। उसके भीतर से तुम्हारे पास आता है, तो तुम पचा सकते हो। और एक बार पचाने की कला आ गई, तो गुरु बीच से हट जाता , गुरु तो था ही नहीं, सिर्फ यह तो रूपांतरण की एक प्रक्रिया थी। जिस दिन तुमने पहचान लिया गुरु की अंतरात्मा को, उस दिन तुमने सूरज को पहचान लिया। तुमने चांद में सूरज को देख लिया; फिर रात मिट गई, फिर दिन हो गया।
इसलिए गुरु पूर्णिमा को हमने चुना है प्रतीक की तरह। ये सारे प्रतीक हैं। इन प्रतीकों का एक पहलू और खयाल में ले लो।
मेरा स्वर्णिम भारत
ओशो
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