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Sunday, August 9, 2015

तस्मै श्री गुरुवे नम:।


मनुष्य के जीवन की तीन अवस्थाएं हैं। एक जागरण, एक स्वप्न, एक सुषुप्ति और चौथी समाधि। जागरण का संबंध ब्रह्मा से है। क्योंकि जागकर तुम काम धाम में लगते हो; निर्माण में लगते हो, सृजन में लगते हो। यह बनाना, वह बनाना, मकान बनाना, दुकान चलाना, धन कमाना! स्वप्न में तुम संवारने में लगते हो; जो-जो दिन में रह गया है-अधूरा, स्‍वप्‍न में तुम्हारे संवरता है। इसलिए हर आदमी के स्वप्न अलग-अलग होते हैं।

मनोवैज्ञानिक लोगों की जानकारी के लिए उनके स्‍वप्‍नों का निरीक्षण करते हैं। उनके स्‍वप्‍नों को जानना चाहते हैं। क्योंकि स्वप्न बताते हैं, क्या क्या अधूरा है; कहां-कहां सम्हाल की जरूरत है! अब जो आदमी रात-रात धन ही के सपने देख रहा है, वह खबर दे रहा है एक बात की कि उसकी जिंदगी में धन की कमी है। जिसकी कमी है, उसके स्वप्न होते हैं। जिसको कोई कमी नहीं रह जाती, उसके स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं। उसको स्वप्न बचते ही नहीं। बुद्धपुरुष स्वप्न नहीं देखते। क्या है देखने को वहां! जिसके स्वप्न में स्त्रिया ही स्त्रियां तैर रही हैं, अप्सराएं उतरती हैं, उर्वशिया और मेनकाएं उतरती हैं, उसका अर्थ है कि उसके जीवन में अभी स्त्री के अनुभव से तृप्ति नहीं हुई, या पुरुष के अनुभव से तृप्ति नहीं हुई, अभी वहा अतृप्ति है, वासना दमित पड़ी है, इसलिए वासना सपने में सिर उठा रही है। सपना कहता है - यहां सम्हालों! यहां कमी है।

मनोवैज्ञानिक कहता है कि तुम्हारा सपना मैं जान लूं तो तुम्हें जान लूं। क्योंकि तुम्हारी कमी पता चल जाये, तो मैं तुमसे कह सकूं कि कहा भरी; गड्डा कहां है; कहां मुश्किल आ रही है। और तीसरी अवस्था है सुषुप्ति। सुषुप्ति यानी महेश, मृत्यु। छोटी सी मृत्यु रात घट जाती है, जब स्‍वप्‍न भी खो जाते हैं, तुम भी नहीं बचते। तुम कहां चले जाते हो, कुछ पता नहीं! होते ही नहीं। सब शून्य हो जाता है।

और चौथी अवस्था को हमने ‘तुरीय’ कहा है। तुरीय का अर्थ ही होता है, सिर्फ चौथी अवस्था। उस शब्द  का और कोई अर्थ नहीं होता; चौथी-इतना ही अर्थ होता है-द फोर्थ, तुरीय, समाधि।

जो व्यक्ति सुषुप्ति में जाग जाता है, सपने चले गये, गहरी नींद आ गई, सपने बिलकुल नहीं हैं, लेकिन होश का दिया जल रहा है, उसको समाधि मिलती है। उस चौथी अवस्था में परब्रह्म का साक्षात्कार होता है।

सद्गुरु के पास तुम जब जाते हो, तो पहले तो तुम जाग्रत अवस्था में जाते हो, जिसको तुम जागरण कहते हो। उसमें कुतूहल होता है। अगर उसके पास रुके थोड़ी देर, तो विद्यार्थी बने बिना नहीं लौटोगे। उसमें सपने होते हैं। ज्ञान क्या है? सिवाय सपने के और कुछ भी नहीं है! पानी पर खींची गई लकीरें, कि कागज पर खींची गई लकीरें-ज्ञान सिर्फ सपना है।

अगर और रुक गये, तो सब सपने मिट जाते. हैं, ज्ञान मिट जाता है; ध्यान का आविर्भाव होता है। ध्यान सुषुप्ति है। अगर और रुके रहे, तो सुषुप्ति भी खो जाती है; फिर बोध का, बुद्धत्व का जन्म होता है। और जब बुद्धत्व का जन्म होता है, तब तुम जान पाते हो कि जो गुरु बाहर था, वही तुम्हारे भीतर है। जो तुम्हारे भीतर है, वही समस्त में व्याप्त है। वही परब्रह्म फूलों में है, वही पक्षियों में है, वही पत्थरों में है, वही लोगों में है-वही सबमें व्याप्त है। सारी तरंगें उसी एक सागर की हैं। और जिन्होंने इस अनुभव को जान लिया, वे धन्यभागी हैं। वे ही धार्मिक हैं। वे न हिंदू हैं, न मुसलमान, न ईसाई, न बौद्ध, न जैन-वे सिर्फ धर्मिक हैं।

और मैं चाहूंगा कि मेरे पास जो लोग इकट्ठे हुए हैं, वे सिर्फ धर्मिक हों। ये हिंदू मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी की बीमारियां विदा करो। ये सब बीमारियां हैं। आ गये हो अगर वैद्य के पास, तो इन सारी बीमारियों से मुक्त हो जाओ; स्वस्थ बनो। और तब तुम्हारे भीतर नमन उठेगा।’तस्मै श्री गुरुवे नम:।’ और तब तुम्हारे भीतर पहली दफा अहोभाव में, धन्यवाद में नमन उठेगा। तुम पहली बार झुकोगे इस विश्व के प्रति, इस अस्तित्व के प्रति। तुम्हारा प्राण गद्गद् हो उठेगा कृतज्ञता से, अनुग्रह से। तुम्हारे जीवन में एक सुगंध उठेगी, जो समर्पित हो जायेगी अस्तित्व के चरणों में।

मेरा स्वर्णिम भारत

ओशो 

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