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Sunday, August 2, 2015

कोटिन जतन रह्यो नहीं, एक अंग निज मूल।


माया तो बदलती ही रहती है, बदलने में ही जीती है। बदलना उसका सार सूत्र है, जीवन की आधारशिला है। और तुम लाख उपाय करो, बचा न सकोगे। तुम्हारा किसी से प्रेम हो गया। तुम कितना उपाय करते हो कि अब यह प्रेम बना ही रहे, मगर यह बना नहीं रह सकता। यहां कोई चीज बनी नहीं रह सकती। यहां सब बनता है मिटने को। यहां सब बसता है उजडने को। कितने हमने उपाय किए हैं कि पत्थरों के महल बनाएं जो कभी न गिरे; वे भी गिर जाते हैं; वे भी समाप्त हो जाते हैं; वे भी एक दिन धूल हो जाते हैं, रेत हो जाते हैं। हमारा यहां बनाया हुआ कुछ भी टिक नहीं सकता। टिकना यहां स्वभाव नहीं है।

कोटिन जतन रह्यो नहीं, एक अंग निज मूल.. यह हो ही नहीं सकता; क्योंकि माया का स्वभाव ही एक नहीं है, अनेक है। उसके मूल में एक है ही नहीं, अनेकता है।

 अगर थिर को पाना हो, शाश्वत को पाना हो, तो एक को खोजना पड़ेगा, मूल को खोजना पड़ेगा। उस मूल में ही विश्राम है। जो कभी न बदले, उसी में मुक्ति है। क्योंकि फिर निश्‍चितता है, फिर सुरक्षा है। फिर घर आ गया।

ओशो 

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