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Thursday, August 13, 2015

मनोगुप्ति

नरक है हमारे मन का फैलाव, और आप फैलाये चले जाते हैं। शेखचिल्ली की कहानी आपने पढ़ी होगी, जो फैलाये चला जाता है और बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। दूध बेचने जा रहा है। सिर पर दूध की मटकी रखे हुए है; और खयाल आता है कि दूध अगर बिक गया तो चार आने मिलेंगे। और अगर ऐसा होता रहा तो आधे साल में एक भैंस अपनी खरीद लूंगा। अगर भैंस खरीद ली, उसके बच्चे होंगे। बढ़ता जायेगा धन, फिर शादी कर लूंगा। शादी हो जायेगी, बच्चे होंगे। छोटा बच्चा किलकारी मारेगा और गोदी में बैठेगा,

दाढ़ी खींचेगा और कहेगा, “बाबा!’

गिर न जाये, उसे संभालने को बच्चे को, उसने हाथ नीचे किया वह जो सिर पर मटकी थी, वह नीचे गिरकर फूट गई! वे चार आने भी हाथ से गये!

मगर ये शेखचिल्ली की कहानी नहीं है, आदमी के मन की कहानी है। मन शेखचिल्ली है। आपका सबका मन हिसाब लगा रहा है, ऐसा हो जायेगा, फिर ऐसा हो जायेगा, फिर ऐसा होता चला जायेगा। और डर यह है कि कहीं मटकी न फूट जाये। अकसर फूट जाती है। अंत में जीवन के आदमी पाता है कि मटकी फूट गई! चार आने हाथ के भी खो गये!

महावीर कहते हैं, मन को सिकोड़ना। जितना फैला हुआ मन उतना दुख, यह सूत्र है। जितना सिकुड़ा हुआ मन, उतना सुख। मन अगर बिलकुल शून्य पर आ जाये तो ध्यान हो जाता है। जब मन इतना सिकुड़ जाता है कि कुछ भी सिकोड़ने को नहीं बचता; बिलकुल सेंटर पर, केनदर पर आ गया; सब किरणें सिकुड़कर आ गइ वापिस; अपने ही घोंसले में लौट आया मन–उसको महावीर कहते हैं, “मनोगुप्ति।’

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