यह प्रश्न सच में गहरा है। संस्कृत कभी भी लोक-भाषा नहीं थी,
सदा से पंडित की भाषा है, दार्शनिक की, विचारक की। प्राकृत लोक-भाषा
थी–साधारणजन की, अशिक्षित की, अपढ़ की, ग्रामीण की। शब्द भी बड़े अदभुत हैं।
प्राकृत का मतलब है: नेचुरल, स्वाभाविक।
संस्कृत का मतलब है: रिफाइंड, परिष्कृत।
प्राकृत से ही जो परिष्कृत रूप हुए थे, वे संस्कृत बने। प्राकृत मौलिक, मूल भाषा है। संस्कृत उसका परिष्कार है।
इसलिए संस्कृत शब्द शुरू हुआ उस भाषा के लिए, जो संस्कारित हो चुकी। साधारणजन के असंस्कारों से जिसे छुड़ा लिया गया। संस्कृत धीरे-धीरे इतनी परिष्कृत होती चली गई कि वह अत्यंत थोड़े से लोगों की भाषा रह गई।
लेकिन पंडित-पुरोहित के यह हित में है कि जीवन का जो भी मूल्यवान है, वह सब ऐसी भाषा में हो, जिसे साधारणजन न समझता हो। साधारणजन जिस भाषा को समझता हो, उस भाषा में अगर धर्म का सब कुछ होगा तो पंडित-पुरोहित और गुरु बहुत गहरे अर्थों में अनावश्यक हो जाएंगे। उनकी आवश्यकता मूलतः शास्त्र का अर्थ करने में है–शास्त्र क्या कहता है इसका अर्थ! साधारणजन की भाषा में ही अगर सारी बातें होंगी तो पंडित का क्या प्रयोजन? वह किस बात का अर्थ करे?
पुराने जमाने में विवाद को हम कहते थे–शास्त्रार्थ!
शास्त्रार्थ का मतलब है: शास्त्र का अर्थ!
दो पंडित लड़ते हैं–विवाद यह नहीं है कि सत्य क्या है, विवाद यह है कि शास्त्र का अर्थ क्या है! पुराना सारा विवाद सत्य के लिए नहीं है, शास्त्र के अर्थ के लिए है! व्याख्या क्या है शास्त्र की! और इतनी दुरूह, इतनी परिष्कृत शब्दावली विकसित की गई थी कि साधारणजन की तो हैसियत के बाहर है कि वह क, ख, ग भी समझ ले! और जिस बात को साधारणजन कम से कम समझ पाए, उस बात को जो समझता हो, वह अनिवार्यरूपेण जनता का नेता और गुरु हो सकता है।
इसलिए इस देश में दो परंपराएं चल रही थीं। एक परंपरा थी जो संस्कृत में ही लिखती और सोचती थी। वह बहुत थोड़े से लोगों की, एक प्रतिशत लोगों का भी उसमें हाथ न था; बाकी सब दर्शक थे। ज्ञान का जो गंभीर आंदोलन चलता था, वह बहुत अल्प, थोड़े से इंटेलेक्चुअल्स, थोड़े से अभिजातवर्गीय लोगों का था। जनता को तो जो जूठा उससे मिल जाता था, वही उसके हाथ पड़ता था। जनता अनिवार्यरूप से अज्ञान में रहने को बाध्य थी।
महावीर और बुद्ध दोनों ने जन-भाषाओं का उपयोग किया, जो लोग बोलते थे, उसी भाषा में वे बोले। और शायद यह भी एक कारण है कि हिंदू-ग्रंथों में महावीर के नाम का कोई उल्लेख नहीं हो सका। न उल्लेख होने का कारण है–क्योंकि संस्कृत में न उन्होंने कोई शास्त्रार्थ किए, संस्कृत में न उन्होंने कोई दर्शन विकसित किया, संस्कृत में न उनके ऊपर उनके समय में कोई शास्त्र निर्मित हुआ! तो संस्कृत को जानने वाले जो लोग थे–जैसे आज भी यह हो सकता है, आज भी हिंदुस्तान में अंग्रेजी दो प्रतिशत लोगों की अभिजात भाषा है–यह हो सकता है कि मैं हिंदी में बोलता ही चला जाऊं तो दो प्रतिशत लोगों को यह पता ही न चले कि मैं भी कुछ बोल रहा हूं। वे अंग्रेजी में पढ़ने और सुनने के आदी हैं। और तब यह भी हो सकता है कि एक बिलकुल साधारणजन अंग्रेजी में बोलता हो, तो वह दो प्रतिशत लोगों के लिए विचारणीय बन जाए।
महावीर चूंकि अत्यंत जन-भाषा में बोले, इसलिए पंडितों का जो वर्ग था, स्कालर्स की जो दुनिया थी, उसने उनको बाहर ही समझा। वे ग्राम्य ही थे, उनको उसने भीतर नहीं लिया। इसलिए किसी ग्रंथ में भी–हिंदू-ग्रंथ में–महावीर का कोई उल्लेख नहीं है। यह बड़े आश्चर्य की बात है। महावीर जैसी प्रतिभा का व्यक्ति पैदा हो और देश की सबसे बड़ी परंपरा, मूल-धारा की परंपरा में, उसके शास्त्रों में, उस समय के लिपिबद्ध ग्रंथों में, उसका कोई नाम उल्लेख भी न हो! विरोध में भी नहीं! अगर कोई हिंदू-ग्रंथों को पढ़े तो शक होगा कि महावीर जैसा व्यक्ति कभी हुआ भी या नहीं हुआ? अकल्पनीय मालूम पड़ता है कि ऐसे व्यक्ति का नाम उल्लेख–विस्तार तो बात दूसरी है–नाम उल्लेख भी नहीं है!
और मैं उसके बुनियादी कारणों में एक कारण मानता हूं कि महावीर उस भाषा में बोल रहे हैं, जो जनता की है। पंडितों से शायद उनका बहुत कम संपर्क बन पाया। हो सकता है हजारों पंडित अपरिचित ही रहे हों कि यह आदमी क्या बोलता है! क्योंकि पंडितों का एक अपना बुर्जुआपन, एक अभिजात भाव है, वे साधारणजन नहीं हैं! न वे साधारणजन की भाषा में बोलते, न सोचते। वे असाधारणजन हैं! वे किसी चूजन-फ्यू, चुने हुए लोग हैं, उन चुने हुए लोगों की दुनिया का सब कुछ न्यारा है! साधारणजन से उसका कुछ लेना-देना नहीं! साधारणजन तो भवन के बाहर हैं, मंदिर के बाहर हैं! कभी-कभी दया करके, कृपा करके साधारणजन को भी वे कुछ बता देते हैं, लेकिन गहरी और गंभीर चर्चा तो वहां मंदिर के भीतर चल रही है, जहां अपढ़ को, साधारण को प्रवेश निषिद्ध है।
महावीर और बुद्ध की बड़ी से बड़ी क्रांतियों में एक क्रांति यह भी है कि उन्होंने धर्म को ठेठ बाजार में लाकर खड़ा कर दिया। ठेठ गांव के बीच में! वह किसी भवन के भीतर बंद चुने हुए लोगों की बात न रही! सबकी, जो सुन सकता है, जो समझ सकता है, उसकी बात हो गई। और इसीलिए उन्होंने संस्कृत का उपयोग नहीं किया।
ओशो
प्राकृत का मतलब है: नेचुरल, स्वाभाविक।
संस्कृत का मतलब है: रिफाइंड, परिष्कृत।
प्राकृत से ही जो परिष्कृत रूप हुए थे, वे संस्कृत बने। प्राकृत मौलिक, मूल भाषा है। संस्कृत उसका परिष्कार है।
इसलिए संस्कृत शब्द शुरू हुआ उस भाषा के लिए, जो संस्कारित हो चुकी। साधारणजन के असंस्कारों से जिसे छुड़ा लिया गया। संस्कृत धीरे-धीरे इतनी परिष्कृत होती चली गई कि वह अत्यंत थोड़े से लोगों की भाषा रह गई।
लेकिन पंडित-पुरोहित के यह हित में है कि जीवन का जो भी मूल्यवान है, वह सब ऐसी भाषा में हो, जिसे साधारणजन न समझता हो। साधारणजन जिस भाषा को समझता हो, उस भाषा में अगर धर्म का सब कुछ होगा तो पंडित-पुरोहित और गुरु बहुत गहरे अर्थों में अनावश्यक हो जाएंगे। उनकी आवश्यकता मूलतः शास्त्र का अर्थ करने में है–शास्त्र क्या कहता है इसका अर्थ! साधारणजन की भाषा में ही अगर सारी बातें होंगी तो पंडित का क्या प्रयोजन? वह किस बात का अर्थ करे?
पुराने जमाने में विवाद को हम कहते थे–शास्त्रार्थ!
शास्त्रार्थ का मतलब है: शास्त्र का अर्थ!
दो पंडित लड़ते हैं–विवाद यह नहीं है कि सत्य क्या है, विवाद यह है कि शास्त्र का अर्थ क्या है! पुराना सारा विवाद सत्य के लिए नहीं है, शास्त्र के अर्थ के लिए है! व्याख्या क्या है शास्त्र की! और इतनी दुरूह, इतनी परिष्कृत शब्दावली विकसित की गई थी कि साधारणजन की तो हैसियत के बाहर है कि वह क, ख, ग भी समझ ले! और जिस बात को साधारणजन कम से कम समझ पाए, उस बात को जो समझता हो, वह अनिवार्यरूपेण जनता का नेता और गुरु हो सकता है।
इसलिए इस देश में दो परंपराएं चल रही थीं। एक परंपरा थी जो संस्कृत में ही लिखती और सोचती थी। वह बहुत थोड़े से लोगों की, एक प्रतिशत लोगों का भी उसमें हाथ न था; बाकी सब दर्शक थे। ज्ञान का जो गंभीर आंदोलन चलता था, वह बहुत अल्प, थोड़े से इंटेलेक्चुअल्स, थोड़े से अभिजातवर्गीय लोगों का था। जनता को तो जो जूठा उससे मिल जाता था, वही उसके हाथ पड़ता था। जनता अनिवार्यरूप से अज्ञान में रहने को बाध्य थी।
महावीर और बुद्ध दोनों ने जन-भाषाओं का उपयोग किया, जो लोग बोलते थे, उसी भाषा में वे बोले। और शायद यह भी एक कारण है कि हिंदू-ग्रंथों में महावीर के नाम का कोई उल्लेख नहीं हो सका। न उल्लेख होने का कारण है–क्योंकि संस्कृत में न उन्होंने कोई शास्त्रार्थ किए, संस्कृत में न उन्होंने कोई दर्शन विकसित किया, संस्कृत में न उनके ऊपर उनके समय में कोई शास्त्र निर्मित हुआ! तो संस्कृत को जानने वाले जो लोग थे–जैसे आज भी यह हो सकता है, आज भी हिंदुस्तान में अंग्रेजी दो प्रतिशत लोगों की अभिजात भाषा है–यह हो सकता है कि मैं हिंदी में बोलता ही चला जाऊं तो दो प्रतिशत लोगों को यह पता ही न चले कि मैं भी कुछ बोल रहा हूं। वे अंग्रेजी में पढ़ने और सुनने के आदी हैं। और तब यह भी हो सकता है कि एक बिलकुल साधारणजन अंग्रेजी में बोलता हो, तो वह दो प्रतिशत लोगों के लिए विचारणीय बन जाए।
महावीर चूंकि अत्यंत जन-भाषा में बोले, इसलिए पंडितों का जो वर्ग था, स्कालर्स की जो दुनिया थी, उसने उनको बाहर ही समझा। वे ग्राम्य ही थे, उनको उसने भीतर नहीं लिया। इसलिए किसी ग्रंथ में भी–हिंदू-ग्रंथ में–महावीर का कोई उल्लेख नहीं है। यह बड़े आश्चर्य की बात है। महावीर जैसी प्रतिभा का व्यक्ति पैदा हो और देश की सबसे बड़ी परंपरा, मूल-धारा की परंपरा में, उसके शास्त्रों में, उस समय के लिपिबद्ध ग्रंथों में, उसका कोई नाम उल्लेख भी न हो! विरोध में भी नहीं! अगर कोई हिंदू-ग्रंथों को पढ़े तो शक होगा कि महावीर जैसा व्यक्ति कभी हुआ भी या नहीं हुआ? अकल्पनीय मालूम पड़ता है कि ऐसे व्यक्ति का नाम उल्लेख–विस्तार तो बात दूसरी है–नाम उल्लेख भी नहीं है!
और मैं उसके बुनियादी कारणों में एक कारण मानता हूं कि महावीर उस भाषा में बोल रहे हैं, जो जनता की है। पंडितों से शायद उनका बहुत कम संपर्क बन पाया। हो सकता है हजारों पंडित अपरिचित ही रहे हों कि यह आदमी क्या बोलता है! क्योंकि पंडितों का एक अपना बुर्जुआपन, एक अभिजात भाव है, वे साधारणजन नहीं हैं! न वे साधारणजन की भाषा में बोलते, न सोचते। वे असाधारणजन हैं! वे किसी चूजन-फ्यू, चुने हुए लोग हैं, उन चुने हुए लोगों की दुनिया का सब कुछ न्यारा है! साधारणजन से उसका कुछ लेना-देना नहीं! साधारणजन तो भवन के बाहर हैं, मंदिर के बाहर हैं! कभी-कभी दया करके, कृपा करके साधारणजन को भी वे कुछ बता देते हैं, लेकिन गहरी और गंभीर चर्चा तो वहां मंदिर के भीतर चल रही है, जहां अपढ़ को, साधारण को प्रवेश निषिद्ध है।
महावीर और बुद्ध की बड़ी से बड़ी क्रांतियों में एक क्रांति यह भी है कि उन्होंने धर्म को ठेठ बाजार में लाकर खड़ा कर दिया। ठेठ गांव के बीच में! वह किसी भवन के भीतर बंद चुने हुए लोगों की बात न रही! सबकी, जो सुन सकता है, जो समझ सकता है, उसकी बात हो गई। और इसीलिए उन्होंने संस्कृत का उपयोग नहीं किया।
ओशो
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