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Sunday, August 2, 2015

बोझ लयो पाषान, मोहि हर लागै भारी

लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं कि अगर हम रोज एक घंटा ध्यान करते रहें तो सब ठीक हो जाएगा? मैं उनसे कहता हूं : सब गड़बड़ हो जाएगा। क्योंकि एक घंटा ध्यान, और तेईस घंटे क्या करोगे। तेईस घंटे ध्यान के विपरीत करोगे, जो भी करोगे। और एक घंटा ध्यान करोगे। सब गड़बड़ हो जाएगा। सब अस्त—व्यस्त हो जाएगा। यह तो ऐसे ही हुआ कि एक घंटे वृक्ष को उखाड़ लिया जमीन से, फिर तेईस घंटे गडाया। सब जड़ें टूट जाएंगी।

अगर ध्यान ही करना हो तो घंटों में नहीं किया जाता, अनुपात से नहीं किया जाता, तराजुओं पर तौल कर नहीं किया जाता , बिना तौले किया जाता है। घंटों से नहीं होता हिसाब। ध्यान का रस चौबीस घंटे पर फैलना चाहिए। दुकान पर बैठे तो भी ध्यान। बाजार में चले तो भी ध्यान। भोजन किया तो भी ध्यान। रात सोए तो भी ध्यान, उठे तो भी ध्यान। ध्यान तुम्हारी श्वास बन जानी चाहिए।

आदमी चाहता है ध्यान भी संभाल लूं और इस संसार में जो मिलता है वह भी संभाल लूं। पद भी मिल जाए, धन भी मिल जाए, प्रतिष्ठा भी मिल जाए, ध्यान भी मिल जाए कुछ मेरे हाथ से चूक न जाए। दोनों दुनियाओं को संभाल लूं। फिर अड़चन खड़ी होती है। बोझ लयो पाषान, मोहि हर लागै भारी। हर लगता है फिर, क्योंकि बोझ भारी है। ये पत्थरों को लेकर बैठे, तो तुम तो डूबोगे ही, नाव भी डूबेगी। तुम पार न हो पाओगे। ये पत्थर छोड़ने होंगे।

और पत्थर को पकड़े क्यों हो? निश्‍चित ही तुम्हें अब भी पत्थरों में हीरे दिखाई पड़ते हैं, इसलिए पकड़े हो। पत्थर को कोई पत्थर सोचकर थोड़े ही पकड़ता है; पत्थर जानकर थोड़े ही पकड़ता है! पत्थर को हीरा जानता है, तो पकड़ता है।

ओशो 

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