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Sunday, August 2, 2015

धनी पहूंचो आय!

खेत बिरानो देखि मृगा एक बन को रीझेव।
नित प्रति चुनि चुनि खाय बान में इक दिन बीधेव।।
उचकन चाहै बल करै मन ही मन पछिताय।
अब सो उचकि न पाइहौं धनी पहूंचो आय।।

जैसे हिरन रोज रोज आकर किसी जंगल में फल खा जाता है, कि किसी खेत में। फिर एक दिन बिंध गया। अब बहुत उचकना चाहता है, बल करना चाहता है कि निकल जाए, अब बहुत पछताता है कि मैं कहां फंस गया! छोटे से लोभ में अपनी स्वतंत्रता खोयी, अपना जीवन खोया! अब सो उचकि न पाइहौं, धनी पहूंचो आय। लेकिन अब खेत का मालिक आ गया है, अब भाग न पाऊंगा।

मौत ऐसे ही आती है खेत के मालिक की तरह। इस पृथ्वी पर मौत मालिक है यह उसी का खेत है। इसमें दो चार दिन तुम मजा ले सकते हो।
 
माया रंग कुसुम्म महा देखन को नीको।
मीठो दिन दुई चार अंत लागत है फीको।।

अखीर में तो मौत का ही स्वाद जीभ पर रह जाता है, सब स्वाद खो जाते हैं, सब विनष्ट हो जाता है। अंत में तो मौत ही मुंह में रह जाती है। यह पृथ्वी तो मृत्यु का खेत है। वही धनी है यहां। इसलिए कोई लाख उपाय करे, उससे बच नहीं पाता।

जाग जाओ इसके पहले कि धनी आ जाए। जाग जाओ उस बड़े धनी के प्रति, जो जीवन का धनी है, जो शाश्वत है, जो सनातन है, जो नित्य है। और उससे ही हम आए हैं और उसमें ही हमें वापस जाना है। मूलस्रोत ही गंतव्य है।

ओशो 

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