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Sunday, August 2, 2015

विरहासक्ति

भक्त का भाव यही है कि तू जो कराए, रुलाए, दूर रखे, हंसाए कि पास रखे, तृप्त करे कि अतृप्ति की आग जलाए, वर्षा बनकर आए कि प्यास बनकर उठे–तेरी मर्जी पर मेरा होना है! तो भक्त यह नहीं कहता कि मेरी मर्जी मान और प्रगट हो। वह कहता है, तेरा अप्रगट होना भी प्यारा है, हम इसे ही प्यार कर लेंगे। हम तेरी अनुपस्थिति में भी नाचेंगे और गुनगुनाएंगे! और जब तक तुम उसकी अनुपस्थिति को प्रेम न कर पाओगे, तब तक वह उपस्थित न हो सकेगा। यही भक्त की कसौटी है। इसलिए विरहासक्ति…।

विरह से भी आसक्ति हो जाती है। आंसुओ से भी प्रेम हो जाता है। तुमने भक्त को रोते देखा हो, वह दुख में नहीं रो रहा है। उसके आंसू खुशी के आंसू हैं। उसके आंसू फलों जैसे हैं, चांदत्तारों जैसे हैं। उसके आंसुओ में फिर से झांको। उसकी आंखों में कोई शिकायत नहीं है, अनुग्रह का भाव है : ‘’ तूने रुलाया, यह भी क्य कुछ कम है! क्योंकि बहुत आखें हैं, बिना रोये ही रह जाती हैं। बहुत आखें हैं जिन्हें आंसुओ का सौभाग्य ही नहीं मिलता। तूने दूर रखा, तडुफाया, इसी तडुफ से तो भक्ति का जन्म हुआ। इसी से तो तेरे पास आने की महत आकांक्षा जगी, अभीप्सा पैदा हुई। तो दूर रखने में भी तेरा कोई राज होगा। तेरी मर्जी पूरी हो’’ ! जीवन को देखने के दो ढंग हैं। एक धार्मिक व्यक्ति का ढंग है, वह कांटों में भी फूल खोज लेता है। और एक अधार्मिक व्यक्ति का ढंग है, वह फूलों में भी कांटे खोज लेता है। देखने पर सब कुछ निर्भर है।

ओशो

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