सब्र ही भक्ति की पात्रता है, अनंत धैर्य! तुम अगर एक क्षण को भी उसके
अनंत धैर्य से भर जाओ, तो उसी क्षण उपलब्धि हो जाएगी। उपलब्धि में परमात्मा
बाधा नहीं है, तुम्हारा धैर्य बाधा है। इसलिए विरह से भी आसक्ति हो जाती
है। भक्त विरह के गीत गाता है। वह विरह के आसपास भी सजावट कर लेता है। वह
अपने रोने को भी सम्हालकर रखता है। वह अपने रुदन को भी, अपनी आहों को भी
प्रार्थना बना लेता है। वह अपने रुदन के, अपने आंसुओ के ईंटों से ही अपने
मंदिर को बना लेता है। वह उससे भी राजी है। वह यह नहीं कहता कि देखो, मैं
कितना रो रहा हूं। वह यह कहता है कि और रुलाओ मुझे। देखो, कितना हलका हो
गया हूं रो-रोकर! कितना रूपांतरित हुआ हूं! तुम जल्दी मत करना। कोई जल्दी
नहीं है। तुम मुझे पूरा बदलकर ही आना! वह आने की बात ही परमात्मा पर छोड़
देता है; अपने हृदय को खोल देता है, प्रतीक्षा करता है।
भक्ति प्रतीक्षा है, प्रयास नहीं। भक्ति समर्पण है, संकल्प नहीं। और भक्ति से बड़ी कोई कीमिया नहीं है; क्योंकि भक्ति का मूल आधार ही, सांसारिक मन का आत्मघात हो जाता है। सांसारिक मन कहता है, करने से कुछ होगा। भक्ति कहती है, करने से कुछ भी नहीं हुआ। सांसारिक मन कहता है: अहंकार! नये-नये नाम रखता है; कभी कहता है, संकल्प की शक्ति; कभी कहता है, हिम्मत, साहस, व्यक्तित्व, आत्मा–हजार नाम रखता है, लेकिन सबके भीतर तुम अहंकार को छिपा हुआ पाओगे, सबके भीतर’’ मैं” माजूद है,’’ मैं” की कम-ज्यादा मात्रा मौजूद है। और वही बाधा है।
भक्त कहता है,’’ मैं” नहीं, तू। जब मैं ही नहीं हूं तो क्या विरह और क्या मिलन?’’ मिलन हो गया! जहां’’ मैं” मिटा वही मिलन हो गया। और जिसे विरह में परमात्मा दिखाई पड़ गया, उसके मिलन की तो बात ही न पूछो! वह बात तो बात करने की न रही। उसके संबंध में कुछ भी न कहा जा सकेगा।
ओशो
भक्ति प्रतीक्षा है, प्रयास नहीं। भक्ति समर्पण है, संकल्प नहीं। और भक्ति से बड़ी कोई कीमिया नहीं है; क्योंकि भक्ति का मूल आधार ही, सांसारिक मन का आत्मघात हो जाता है। सांसारिक मन कहता है, करने से कुछ होगा। भक्ति कहती है, करने से कुछ भी नहीं हुआ। सांसारिक मन कहता है: अहंकार! नये-नये नाम रखता है; कभी कहता है, संकल्प की शक्ति; कभी कहता है, हिम्मत, साहस, व्यक्तित्व, आत्मा–हजार नाम रखता है, लेकिन सबके भीतर तुम अहंकार को छिपा हुआ पाओगे, सबके भीतर’’ मैं” माजूद है,’’ मैं” की कम-ज्यादा मात्रा मौजूद है। और वही बाधा है।
भक्त कहता है,’’ मैं” नहीं, तू। जब मैं ही नहीं हूं तो क्या विरह और क्या मिलन?’’ मिलन हो गया! जहां’’ मैं” मिटा वही मिलन हो गया। और जिसे विरह में परमात्मा दिखाई पड़ गया, उसके मिलन की तो बात ही न पूछो! वह बात तो बात करने की न रही। उसके संबंध में कुछ भी न कहा जा सकेगा।
ओशो
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