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Sunday, August 2, 2015

ध्यान में बड़ा आनंद आ रहा है, लेकिन यह टिकेगा?’

आपके सान्निध्य में ध्यान की गहराई का कुछ अनुभव होता है, लेकिन वह अवस्था स्थायी नहीं रहती। उसे स्थायी करने की दिशा में कृपया हमारा मार्गदर्शन करें!
स्थायी करना ही क्यों चाहते हो? स्थायी की भाषा ही सांसारिक है। क्षणभर को रहती है, उतनी देर अहोभाव से नाचे, उतनी देर कृतज्ञता से नाचे। उस क्षण में यह नया उपद्रव क्यों भीतर ले आते हैं कि स्थायी करना है? जो मिला है उसकी भी पात्रता नहीं है! अहोभाग्य कि पात्र न था, क्षणभर को उसके दर्शन हुए। नाचे! गुनगुनाए! आनंदित हों! दूसरा क्षण इसी क्षण में निकलेगा, आएगा कहां से? कल आज से ही पैदा होगा। अगर आज गीत से भरा था, तो कल इन्हीं गीतों से जन्मेगा। अगर आज तुम्हारे पैर में थिरक थी और पूंघर बंधे थे, तो कल पर भी उनकी छाया पड़ेगी। स्वभावत: कल तुम्हारे थर की आवाज और सुदृढ़ हो जाएगी; बांसुरी और भी गहरी बजेगी; मस्ती और भी गहरी उतरेगी!

कल आएगा कहां से? इसलिए तुम कल की चिंता ही छोड़ दो। सभी की यही तकलीफ है, क्योंकि संसार का यह गणित है: जो न हो उसकी चिंता करो; जो मिल जाए उसकी चिंता करो कि कहीं खो न जाए! गरीब परेशान है कि धन मिल जाए; धनी परेशान है कि कहीं खो न जाए! दोनों परेशान हैं। परेशानी जैसे हमारी आदत है। जैसे हम कुछ भी करें, परेशानी से हम न बचेंगे, परेशानी तो हम घूम-फिरकर पैदा कर ही लेंगे।

रोज कोई-न-कोई मेरे पास आकर कहता है कि’’ ध्यान में बड़ा आनंद आ रहा है, लेकिन यह टिकेगा?’’ क्यों आनंद को खराब कर रहे हो? कल जब आएगा तब कल को देख लेंगे”। और आज अगर तुम आनंदित हो सकते हो, कल भी तुम ही तो रहोगे न? और आज अगर तुम आनंदित हो सकते हो, तो कल की ईंटें आज के ऊपर ही रखी जाएंगी, कल का भवन आज के ऊपर ही खड़ा होगा। तुम कृपा करके कल को भूलो!

कल, मन का उपद्रव है। कल तुम्हारा आज को खराब कर देगा। यह क्षण अगर शांति का त तुम डूबो डुबकी लो तुम रस-विभोर हो ओ तुम भूल ही ओ समय को। इसी से आने वाला क्षण उभरेगा–और भी गहरा, और भी ताजा, और भी मदहोश! और एक बार तुम्हें यह समझ में आ जाए तो भविष्य की चिंता छूट ही जाती है।
स्थायी करने का मोह भविष्य की चिंता है। क्षण काफी है। एक क्षण से ज्यादा किसको कब कितने क्षण मिलते हैं? एक बार एक ही क्षण तो मिलता है तुम्हें। अगर एक क्षण में तुम्हें आनंदित होने की कला आ गई, तो सारा जीवन आनंदित हो जाएगा। जिसको एक बूंद रंगने की कला आ गई, वह सारे सागर को रंग लेगा। एक-एक बूंद ही तो हाथ में पड़ती है, उसको रंगते जाना। दो बूंद इकट्ठी भी तो नहीं मिलतीं कि अड़चन आए कि हम तो केवल एक बूंद को ही रंगना जानते हैं, दो बूंदें एक साथ आ गईं तो हम क्या करेंगे!

ओशो 

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