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Sunday, August 2, 2015

आपके सान्निध्य में ध्यान की गहराई का कुछ अनुभव होता है, लेकिन वह अवस्था स्थायी नहीं रहती। उसे स्थायी करने की दिशा में कृपया हमारा मार्गदर्शन करें!

आपके सान्निध्य में ध्यान की गहराई का कुछ अनुभव होता है…।’’ जो मेरे सान्निध्य में होता है, वह मेरे कारण नहीं होता, होता तो तुम्हारे ही कारण है। जो तुम्हारे भीतर नहीं हो सकता, वह किसी के भी सान्निध्य में नहीं हो सकता। हां, मेरे सान्निध्य में सुविधा मिल जाती होगी–स्वयं से थोड़ा छूटने की, स्वयं के बंधन थोड़े ढीले करने की। मेरे सान्निध्य में थोड़ा-सा तुम अपनी पुरानी आदतों को किनारे हटा देते होओगे, बस! होता तो तुम्हारे ही भीतर है।

इसलिए जो मेरे सान्निध्य में होता है, अब यह एक नया उपद्रव खड़ा मत कर लेना कि घर जाकर न होगा। मन तरकीबें खोजता है। मन कहता है,’’ वहां हो गया था, उनके कारण हो गया था’’ । पाप मुझे लगेगा ऐसे। तुम अगर नरक गए तो मैं जिम्मेदार होऊंगा। यहां तुम्हें जो थोड़ा-सी झलक मिल जाती है, उसमें मेरा कुछ हाथ नहीं है; सिर्फ तुम मेरी थोड़ी सुन लेते हो, इतनी ही तुम घर पर भी सुनना, बात हो जाएगी। इतना तुम थोड़ा-सा मुझे द्वार-दरवाजा देते हो, थोड़ा अपने को किनारे कर लेते हो, थोड़ा अपने को बीच से हटा लेते हो–कुछ होता है। घर पर भी इतना ही हटा लेना। यह तुम्हारे ही किए हो रहा है। छोटे बच्चे का कोई हाथ पकड़ लेता है और चला देता है–चलता तो बच्चा ही है भीतर। दूसरे के हाथ से थोड़ा सहारा मिल जाता है, हिम्मत बढ़ जाती है, अनुभठ आ जाता है। मगर ये हाथ जिंदगीभर पकड़ लेने को नहीं है। नहीं तो इससे घसिटना ही बेहतर था, कम-से-कम खुद तो घसिटते थे, अब यह एक और उपद्रव साथ लगा; एक दूसरे के हाथ, अब यह और मजबूरी हुई, और परतत्रता हुई। नहीं, ऐसे किसी पर निर्भर मत हो जाना। मेरा तो सारा आयोजन यहां यही है कि तुम परम मुक्त हो सको; उसमें तुझसे भी मुक्त होना सम्मिलित है। अगर मुझसे बंध जाओ तो तुम तो और लंगड़े हो जाओगे; तुम वैसे ही लंगड़ा रहे हो, तुम वैसे ही पंगु हो, यह तो और पक्षाघात हो जाएगा।

यहां थोड़ी-सी झलक लो, उसे झलक ही मानता; फिर उसे अपने एकांत में गहराना, ताकि तुम्हें यह भी अनुभव आ सके कि वह झलक तुम्हारे भीतर से ही आई थी। किसी के हाथ का सहारा मिला था–धन्यवाद! लेकिन इससे ज्यादा निर्भरता न हो। ऐसे ही है जैसे कि कोई बच्चे को तैराक पानी में डाल देता है, हाथ-पैर तड़फड़ाता है बच्चा–हाथ-पैर तडुफडाना ही तैरने की श्दुरुआत है। अकेला शायद उतर भी न पाता पानी में, डरता, घबड़ाता; पर कोई तैरनेवाला पास में खड़ा है, हिम्मत…हिम्मत साथ दे गई। जो हुआ है वह तो भीतर हो रहा है। दो-चार बार पानी में तैराक डालेगा, बच्चे के हाथ-पैर सुघड़ हो जाएंगे, फिर कोई जरूरत न रह जाएगी, फिर उसे खुद ही हिम्मत आ जाएगी। फिर तो वह दूर सागर भी पार कर ले सकता है।

ओशो 

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