मैंने सुना है, एक गांव में एक ग्रामीण किसान बैल को जोतकर अपने हल को
चला रहा था। वह कोड़ा भी फटकारता जाता बैल पर और कभी कहता,’’ हीरा! जोर से’’
, कभी कहता,’’ मोती! जोर से’’ , कभी कहता,’’ चंदा! जोर से’’ , कभी कहता,’’
सरज। जोर से’’ । एक आदमी खड़ा देख रहा था। उसने कहा,’’ इस बैल के कितने नाम
हैं?’’ उस किसान ने कहा,’’ नाम तो इसका एक ही है–हीरा।’’
“तो बाकी इतने नाम किसलिए लेते हो?’’
तो उसने कहा,’’ इसकी हिम्मत बढ़ाने को। इसकी आखें तो बंधी हैं, यह समझता है और भी बैल लगे हैं। यह हिम्मत से चला जाता है’’ ।
बस इतना ही मेरा काम है—”हीरा! जोर से, मोती! जोर से।’’ लगे, तुम अकेले नहीं हो। एक बार हिम्मत आ जाए तो तुम्हारी आंख की पट्टी खोल देंगे, कहेंगे,’’ तुम ही चल रहे थे’’ । तीसरी बात : जल्दी मत करा। धैर्य बड़ी से बड़ी शि क्षा है धर्म के मार्ग पर। क्योंकि जिसको हम खोजने चले हैं, वह इतना विराट है कि तुमने अगर जल्दी मांग की, तो तुम्हारी मांग के कारण ही न मिल पाएगा। मौसमी फूल हम बो देते हैं, दो- चार- छह सप्ताह में फूल आ जाते हैं। लेकिन अगर चिनार के वृक्ष लगाने हों, देवदार के वृक्ष लगाने हों, तो वर्षों लगते हैं। आकाश को छूनेवाले वृक्ष लगाने हों तो उनकी जड़ें भी पाताल तक पहुचनी चाहिए।
परमात्मा आखिरी मंजिल है, उसके पार फिर कुछ भी नहीं। इतनी विराट मंजिल को पाने चले हो, और इतने कृपण हो धैर्य के संबंध में, इतनी जल्दबाजी करते हो! तुमने देखा भक्तों को, घर- घर में मंदिर बनाकर बैठे हैं, जल्दी से घंटी बजा लेते हैं, फूल चढ़ा देते हैं। उनके हाथ- पैर देखो, इतनी जल्दी में हैं वे कि उनके ये कृत्य देखकर ही भगवान उनसे न मिलेगा! बुलाने में भी तो थोड़ा सलीका हो। उसे पुकारो, थोड़ा सोचो भी कि किसे पुकारा है! थोड़ा सौजन्य तो सीखो! इतना बड़ा निमंत्रण भेज रहे हो, जरा सोच- समझकर पाती लिखी!
लेकिन बड़ा अधैर्य है! तुम अगर अपने अधैर्य पर विचार करोगे तो तुम्हें अपना सारा कृत्य बचकाना मालूम पड़ेगा। कोई रोज गीता पढ़ लेता है, कोई पूजा कर लेता है, कोई फूल चढ़ा देता है, कोई मंदिर में सिर झुका आता है—लेकिन क्या कर रहे हो तुम? और फिर इससे तुम आशा बांधने लगते हो कि अभी तक मिला नहीं, अभी तक स्थायी आनंद नहीं मिला, अभी तक परमात्मा का कोई दर्शन नहीं हुआ! नहीं, यह भक्त का ढंग नहीं।
हम भी तस्लीम की खू डालेंगे
बेनियाजी तेरी आदत ही सही।
देर लगाना तेरी आदत हो, कोई हर्जा नहीं, हम भी सब्र की आदत डाल लेंगे, और क्या! अगर तू देर करता है, ठीक। जितनी देर तू कर सकता है, उससे ज्यादा देर धैर्य रखने की हम आदत डाल लेंगे।
जल्दी में मत पड़ना। जल्दी ही तनाव पैदा कर देती है। जल्दी के कारण ही मन बेचैनी पैदा हो जाती है। धीरज से चलो! अनंत- अनंत काल मौजूद है। मन में बेचैनी पैदा हो जाती है। धीरज से चलो! अनंत- अनंत काल मौजूद है। कहीं कोई जल्दी नहीं है। समय की अनंत धारा मौजूद है, न कोई छोर है न कोई ओर है, न कोई प्रारंभ है न कोई अंत है। इस शाश्वत में तुम व्यर्थ ही परेशान हुए जा रहे हो। तुम दौड़- धूप किसलिए कर रहे हो? तुम्हारी दौड़- धूप से कुछ जल्दी न हो जाएगा। जल्दी की जरूरत नहीं।
जरा वृक्षों को देखो, कैसे अलसाए हुए हैं! चादतारों को देखो, कैसे चुपचाप गतिमान हैं! कहीं पहुंचने की कोई जल्दी तुम्हें अस्तित्व में दिखाई पड़ती है? अस्तित्व ऐसा शांत है जैसे पहुंच ही हुआ हो, पहुंचने की जल्दी मालूम ही नहीं होती। ऐसा ही भक्त भी है, उसने अस्तित्व की भाषा समझ ली है। वह कोई जल्दी में नहीं है। वह कोई प्रार्थना इसलिए नहीं करता कि भगवान प्रार्थना करने से मिलेगा–प्रार्थना उसका आनंद है। वह पूजा इसलिए नहीं करता कि ठीक है, पूजा करने से मिलता है तो चलो पूजा किए लेते हैं। यह कोई साधन नहीं है पूजा, यह साध्य है। वह अहोभाव से भरा है, आनंद से भरा है, कैसे अपने आनंद को प्रगट करें, किस भाषा में परमात्मा से कहें कि तेरे अनंत आशीषों की वर्षा मेरे ऊपर है! तुतलाकर–पूजा की भाषा में, भजन की, कीर्तन की भाषा में कह देता है कि तेरी अनंत अनुकंपा मेरे ऊपर है! प्रार्थना से वह कुछ पाना नहीं चाहता।
और मजा यही है कि जिसने प्रार्थना से कुछ पाना न चाहा, उसे सब मिला। और जिसने प्रार्थना में भी पाने का जहर डाल दिया, उसकी प्रार्थना भी मर गई, और कुछ मिलने की तो बात ही न रही।
ओशो
“तो बाकी इतने नाम किसलिए लेते हो?’’
तो उसने कहा,’’ इसकी हिम्मत बढ़ाने को। इसकी आखें तो बंधी हैं, यह समझता है और भी बैल लगे हैं। यह हिम्मत से चला जाता है’’ ।
बस इतना ही मेरा काम है—”हीरा! जोर से, मोती! जोर से।’’ लगे, तुम अकेले नहीं हो। एक बार हिम्मत आ जाए तो तुम्हारी आंख की पट्टी खोल देंगे, कहेंगे,’’ तुम ही चल रहे थे’’ । तीसरी बात : जल्दी मत करा। धैर्य बड़ी से बड़ी शि क्षा है धर्म के मार्ग पर। क्योंकि जिसको हम खोजने चले हैं, वह इतना विराट है कि तुमने अगर जल्दी मांग की, तो तुम्हारी मांग के कारण ही न मिल पाएगा। मौसमी फूल हम बो देते हैं, दो- चार- छह सप्ताह में फूल आ जाते हैं। लेकिन अगर चिनार के वृक्ष लगाने हों, देवदार के वृक्ष लगाने हों, तो वर्षों लगते हैं। आकाश को छूनेवाले वृक्ष लगाने हों तो उनकी जड़ें भी पाताल तक पहुचनी चाहिए।
परमात्मा आखिरी मंजिल है, उसके पार फिर कुछ भी नहीं। इतनी विराट मंजिल को पाने चले हो, और इतने कृपण हो धैर्य के संबंध में, इतनी जल्दबाजी करते हो! तुमने देखा भक्तों को, घर- घर में मंदिर बनाकर बैठे हैं, जल्दी से घंटी बजा लेते हैं, फूल चढ़ा देते हैं। उनके हाथ- पैर देखो, इतनी जल्दी में हैं वे कि उनके ये कृत्य देखकर ही भगवान उनसे न मिलेगा! बुलाने में भी तो थोड़ा सलीका हो। उसे पुकारो, थोड़ा सोचो भी कि किसे पुकारा है! थोड़ा सौजन्य तो सीखो! इतना बड़ा निमंत्रण भेज रहे हो, जरा सोच- समझकर पाती लिखी!
लेकिन बड़ा अधैर्य है! तुम अगर अपने अधैर्य पर विचार करोगे तो तुम्हें अपना सारा कृत्य बचकाना मालूम पड़ेगा। कोई रोज गीता पढ़ लेता है, कोई पूजा कर लेता है, कोई फूल चढ़ा देता है, कोई मंदिर में सिर झुका आता है—लेकिन क्या कर रहे हो तुम? और फिर इससे तुम आशा बांधने लगते हो कि अभी तक मिला नहीं, अभी तक स्थायी आनंद नहीं मिला, अभी तक परमात्मा का कोई दर्शन नहीं हुआ! नहीं, यह भक्त का ढंग नहीं।
हम भी तस्लीम की खू डालेंगे
बेनियाजी तेरी आदत ही सही।
देर लगाना तेरी आदत हो, कोई हर्जा नहीं, हम भी सब्र की आदत डाल लेंगे, और क्या! अगर तू देर करता है, ठीक। जितनी देर तू कर सकता है, उससे ज्यादा देर धैर्य रखने की हम आदत डाल लेंगे।
जल्दी में मत पड़ना। जल्दी ही तनाव पैदा कर देती है। जल्दी के कारण ही मन बेचैनी पैदा हो जाती है। धीरज से चलो! अनंत- अनंत काल मौजूद है। मन में बेचैनी पैदा हो जाती है। धीरज से चलो! अनंत- अनंत काल मौजूद है। कहीं कोई जल्दी नहीं है। समय की अनंत धारा मौजूद है, न कोई छोर है न कोई ओर है, न कोई प्रारंभ है न कोई अंत है। इस शाश्वत में तुम व्यर्थ ही परेशान हुए जा रहे हो। तुम दौड़- धूप किसलिए कर रहे हो? तुम्हारी दौड़- धूप से कुछ जल्दी न हो जाएगा। जल्दी की जरूरत नहीं।
जरा वृक्षों को देखो, कैसे अलसाए हुए हैं! चादतारों को देखो, कैसे चुपचाप गतिमान हैं! कहीं पहुंचने की कोई जल्दी तुम्हें अस्तित्व में दिखाई पड़ती है? अस्तित्व ऐसा शांत है जैसे पहुंच ही हुआ हो, पहुंचने की जल्दी मालूम ही नहीं होती। ऐसा ही भक्त भी है, उसने अस्तित्व की भाषा समझ ली है। वह कोई जल्दी में नहीं है। वह कोई प्रार्थना इसलिए नहीं करता कि भगवान प्रार्थना करने से मिलेगा–प्रार्थना उसका आनंद है। वह पूजा इसलिए नहीं करता कि ठीक है, पूजा करने से मिलता है तो चलो पूजा किए लेते हैं। यह कोई साधन नहीं है पूजा, यह साध्य है। वह अहोभाव से भरा है, आनंद से भरा है, कैसे अपने आनंद को प्रगट करें, किस भाषा में परमात्मा से कहें कि तेरे अनंत आशीषों की वर्षा मेरे ऊपर है! तुतलाकर–पूजा की भाषा में, भजन की, कीर्तन की भाषा में कह देता है कि तेरी अनंत अनुकंपा मेरे ऊपर है! प्रार्थना से वह कुछ पाना नहीं चाहता।
और मजा यही है कि जिसने प्रार्थना से कुछ पाना न चाहा, उसे सब मिला। और जिसने प्रार्थना में भी पाने का जहर डाल दिया, उसकी प्रार्थना भी मर गई, और कुछ मिलने की तो बात ही न रही।
ओशो
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