देखने के लिए सिर उठाना जरूरी थोड़े ही है सिर झुकाकर भी देखा जाता है। असली देखना तो सिर झुकाकर ही देखना है। नाहक रोओ मत। और जिसने सिर झुकाकर देख लिया, फिर सिर उठाकर देखने का कोई सवाल ही नहीं। इसलिए न उठा होगा सिर। आंखों से थोड़े ही देखना होता है, अन्यथा देखना बड़ा आसान हो जाता। आखें तो सभी की खुली हैं, अंधा कौन है? आंखों से ही देखना होता तो सभी कुछ हो जाता। देखना कुछ आंखों से ज्यादा गहरी बात है, हृदय की है। और हृदय तभी देख पाता है जब झुकता है। फिर उठने की खबर किसको रह जाती है! नहीं, कुछ भूल हो गई है। तुम अपने रोने को नहीं समझ पा रहे हो। तुमने व्यर्थ का एक बौद्धिक उलझाव और समस्या खड़ी कर ली है। तुम्हारी व्याख्या में कहीं भूल हो गई हैं, अन्यथा तुम खुश होते, अन्यथा तुम्हारा रोना आनंद का रोना हो जाता। फिर से देखना। यह घटना बहुत बार घटेगी, इसलिए समझ लेना जरूरी है। बहुत बार ऐसा होता है, जब हृदय से कुछ घटता है तो भी बुद्धि पीछे से आकर व्याख्या करती है। हृदय तो व्याख्या करता नहीं, अव्याख्य है, घटता है कुछ, भोगता है, लेकिन काट- पीटकर विश्लेषण नहीं करता। हृदय के पास विश्लेषण है ही नहीं। हृदय तो जोड़ना जानता है, तोड़ना नहीं। हृदय तो अनुभव कर लेता है, लेकिन फिर अनुभव के पीछे खड़े होकर उसका बौद्धिक विश्लेषण नहीं करना जानता। तो जैसे ही अनुभठ हो गया, बुद्धि झपट्टा मारती है, जैसे कहीं लाS पड़ी हो तो चीले झपट्टा मारती हैं, गिद्ध झपट्टा मारते हैं, हृदय ने जो अनुभव किया, जैसे ही अनुभव हो गया, अतीत में चला गया, अनुभव मर चुका, वैसे ही बुद्धि झपट्टा मारती है, बुद्धि की चील झपट्टा मारती है, पकड़कर मुर्दा चील की चीर- फाड़ करती हैं-पोस्टमार्टम! उसमें हिसाब लगाती है, क्या हुआ! और सब गड़बड़ हो जाता है। क्योंकि बुद्धि को तो अनुभव हुआ न था, जिसको अनुभव हुआ था उसने व्याख्या न की और जिसको अनुभव नहीं हुआ वह व्याख्या करता है।
ओशो
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