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Sunday, August 2, 2015

हम वही सुन लेते हैं जो हम सुनना चाहते हैं

दो साधु एक रास्ते से गुजरते थे। एक साधु दूसरे से कुछ बोल रहा था। उसे दूसरे ने कहा कि यहां सुनाई भी नहीं पड़ेगा मुझे कुछ। यह बाजार इतना शोरगुल है! यह ज्ञान की बात यहां मत करो, एकांत में चलकर करेंगे।
वह साधु वहीं खड़ा हो गया। उसने अपनी जेब से एक रुपया निकाला और आहिस्ता से रास्ते पर गिरा दिया। खननखन की आवाज हुई, भीड़ इकट्ठी हो गई। पहले साधु ने पूछा कि मैं समझा नहीं, यह तुमने क्या किया। उसने रुपया उठाया, जेब में रखा और चल पड़ा। उसने कहा,’’ इतना भरा बाजार है, इतना शोरगुल मच रहा है, लेकिन रुपये की जरा सी खनन, न की आवाज–इतने लोग आ गए। ये रुपये के प्रेमी है। नरक में भी भयंकर उत्पात मचा हो और अगर रुपया गिर जाए तो ये सुन लेंगे’’ ।

हम वही सुन लेते हैं जो हम सुनना चाहते हैं। उस साधु ने कहा,’’ अगर तुम परमात्मा के प्रेमी हो तो यहां भी, बाजार में भी परमात्मा के संबंध में मैं कुछ कहूंगा तो तुम सुन लोगे’’ । कोई दूसरा बाधा नहीं डाल रहा है। हम वही सुनते हैं जो हम सुनना चाहते हैं। हम वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं। हमें उसी से मिलन हो जाता है जिससे हम मिलना चाहते हैं। इस जीवन में व्यवस्था को ठीक से जो समझ लेता है वह फिर दूसरे को दोष नहीं देता।

ध्यान रखना : कामना तुम्हें कभी सत्य को न देखने देगी। सत्य को देखना हो तो कामना- रहित  चित्त चाहिए।
इस बगीचे में कोई चित्रकार आए तो कुछ और देखेगा। कोई लकड़हारा आ जाए तो कुछ और देखेगा। कोई फूलों को बेचनेवाला माली आ जाए तो कुछ और देखेगा। तीनों एक ही जगह आएंगे, लेकन तीनों के दर्शन अलग-अलग होंगे।

ओशो 

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