इस जगत में कुछ भी आकस्मिक नहीं है। इस जगत में जो कुछ भी है,
व्यवस्थाबद्ध है। यह जगत एक परिपूर्ण व्यवस्था है। अगर तुम्हारा चोर से साथ
है तो किन्हीं न किन्हीं रास्तों से तुमने चोर को बुलाया होगा। बीज बोए
होंगे, तभी तो फसल काटोगे। चोर से साथ होने का एक ही अर्थ है कि तुम्हारे
भीतर कहीं चोर है। समान समान से मिलना चाहता है। शराबी से दोस्ती हो गई है,
क्योंकि तुम्हारे भीतर शराबी है। हत्यारे से नाता बन गया है, क्योंकि
तुम्हारे भीतर हत्या करने की भावना और कामना छिपी है। हिंसा भीतर हो तो
हिंसक से दोस्ती बन जाएगी। अहिंसा भीतर हो तो हिंसक से दोस्ती बन ही न
पाएगी, तालमेल न बैठेगा–छोड़ना ही पड़ेगा, बनना ही मुश्किल हो जाएगा।
मैंने सुना है, महावीर के समय में एक बहुत बड़ा डाकू हुआ। वह महावीर से बहुत डरता था। वह बूढा हो गया था। उसने अपने बेटे शिक्षा दी कि देख, और सब करना, इस एक आदमी के आसपास मत जाना। यह खतरनाक है, यह अपने धंधे का बिलकुल दुश्मन है। इसके पास गए कि मिटे। तो अगर कभी भूल-चूक से भी तू गुजरता हो और महावीर बोलता हो, तो अपने कानों में अंगुलियां डाल लेना। इसी तरह बामुश्किल मैंने अपने को बचाया है। निश्वित ही इस डाकू से भीतर साधु छिपा रहा होगा, अन्यथा कौन महावीर से बचता है! इसको हर क्या है? यह जानता है कि महावीर ठीक हैं। लेकिन भूल-चूक हो गई। बेटा आखिर बेटा ही था; बाप तो बहुत कुशल पुराना डाकू था, वह बचाता रहा अपने को। बेटा एक दिन जा रहा था रास्ते से। द्यैकइ बाप ने मना किया था, इसलिए मन में आकर्षण भी हो गया कि एकाध शब्द सुन लेने में क्या हर्ज है। ऐसा थोड़ी कि कुछ एकाध शब्द सुन लोगे और सब बदल जाएगा।
तो महावीर बोलते थे, द्वार पर कहीं दूर खड़े होकर एक वाक्य सुना, लेकिन फिर बाप की याद आयी, अंगुलियां कान में डाल लीं। भाग खड़ा हुआ। पर एक वाक्य कान में पड़ गया। महावीर से किसी ने पूछा था कोई प्रश्र, और वे जवाब देते थे। पूछा था प्रेत-योनि के संबंध में, कि प्रेत होते हैं तो कैसे होते हैं, देव होते हैं तो कैसे होते हैं।
फिर वर्षों बीत गए, यह डाकू पकड़ा गया। सम्राट के घर डाका डाला था। सम्राट इसके बाप से परेशान था; बात मर गया, बेटे से परेशान था। और कभी कोई बात पकड़ी न जा सकी थी, उनके खिलाफ जुर्म हाथ में न था, रंगे हाथ वे कभी पकड़े न गए थे। सम्राट ने अपने मनोवैज्ञानिकों से सलाह ली कि इससे सारी बातें निकलवा लेनी हैं; जब हाथ में पड़ गया है तो छोड़ नहीं देना है। कैसे निकलवाए इससे सारी बातें? तो मनोवैज्ञानिकों ने एक उपाय सोचा। उन्होंने इसे खूब शराब पिलाई। शराब पिलाकर महल की जो सुंदरतम स्त्रियां थी, उनको इसके चारों तरफ नृत्य करने को कहा। यह आदमी बीच में बैठा है नशे में सरोबोर, वे स्त्रियां नाचने लगीं। ऐसा सुंदर महल इसने कभी देखा न था। वे स्त्रियां इसे अप्सराएं मालूम होने लगीं। नशा! इसे शक होने लगा कि मैं इस लोक में हूं कि परलोक मैं पहुंच गया हूं। इसने किसी को पूछा। तो मनोवैज्ञानिकों ने यही तो उपाय किया था। उन्होंने कहा कि तुम मर गए हो, स्वर्ग में आ गए हो। और अब तुम अपने जीवनभर में तुमने जो भी पाप किए हैं, उन सब का ब्यौरा दे दो, ताकि परमात्मा उन्हें माफ कर दे। उसकी कृपा अनंत है, भयभीत मत हो। तुम अपना एक-एक पाप बोल दो। जो पाप तुम छिपाओगे वही बच रहेगा, जो तुम बता दोगे उससे तुम्हारा छुटकारा हो जाएगा। तब जरा डाकू चौंका : ‘’ सब पाप बता दे!’’ तब उसे याद आया, उस दिन का महावीर का वचन कि देवलोक में देवता होते हैं तो उनकी छाया नहीं पड़ती। तो उसने गौर से देखा कि अगर यह देवलोक है…। स्त्रियों की छाया पड़ रही थी, वह सम्हल गया। उसे लगा कि यह सब धोखा है, नशे में हूं। उसने एक भी पाप के संबंध में कुछ भी न कहा। अपने पुण्य की बातें बताई जो उसने कभी भी न किए थे। उसने कहा,’’ पाप तो कभी किए ही नहीं, मैं करूं भी क्या? परमात्मा क्षमा कर सकता है, लेकिन मैंने किए नहीं। पुण्य ही पुण्य किए हैं’’। सम्राट को उसे छोड़ देना पड़ा। वह जाल काम न आया। वह जैसे ही वहां से छूटा, सीधा महावीर के पास पहुंचा, उनके पैरों में गिर गया, और कहने लगा,’’ तुम्हारे एक वचन ने मेरे प्राण बचाए। अब मैं तुम्हें पूरा-पूरा ही सुन लेना चाहता हूं। इतना ही सुना था, वह भी कुछ बड़ी काम की बात न थी, लेकिन काम पड़ गई। सत्संग काम आ गया। वह भी ऐसी चोरी- चोरी द्वार पर खड़े होकर, एक वाक्य सुना था कि देवताओं की छाया नहीं पड़ती। तब तो सोचा भी न था कि इसकी कोई सार्थकता हो सकेगी, लेकिन काम पड़ गया, मेरे प्राण बचे। तुमने मुझे बचाया। भयंकर नशे में मुझे डुबाया था और सारा इंतजाम किया था और मैं फंस ही गया था और मैं तैयार ही था बोलने को, ताकि क्षमा कर दिया जाऊं। अब तुम मुझे पूरा ही बचा लो। इस सम्राट से तुमने बचाया, अब तुम मुझे मृत्यु से भी बचा लो। इस मौत से तुमने मुझे बचाया, अब तुम मुझे सारी मौतों से बचा लो। अब मैं तुम्हारी शरण हूं। साधु का एक वचन भी सुन लिया जाए तो असाधु के जीवन में रूपांतरण शुरू हो जाता है—बीज पड़ गया। साधु क्या ड़रेगा असाधु से? ड़रे तो असाधु हरे।
मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम बुरे लोगों का साथ छोड़ देना। मैं तो तुमसे यह कहूंगा कि तुम उन्हें बुरे देखोगे तो तुम बुरे रह जाओगे। तुम अगर उन्हें बुरे मानोगे तो तुम्हारी बुराई कभी मिट न सकेगी। तुम तो एक साथ छोड़ दो—भीतर के अपने मन को—और तत्क्षण तुम पाओगे : संसार में कोई बुरा न रहा। चोर में भी तब तुम्हें परमात्मा ही छिपा हुआ दिखाई पड़ेगा। हत्यारे में भी तब तुम्हें उसकी ही ज्योति झिलमिलाई दिखाई पड़ेगी। और तुमसे भयभीत होने लगेगा असाधु, क्योंकि तुम असाधुता की मौत सिद्ध होने लगोगे। तुम्हारी छाया जहां पड़ेगी, वहां से अंधकार हटेगा। निश्वित ही तुम्हारा असाधु से साथ छूट जाएगा। मैं छोड़ने को नहीं कहता हूं–छूट जाएगा। तुम्हें छोड़ना न पड़ेगा–असाधु भाग खड़ा होगा, या असाधु रूपांतरित हो जाएगा।
ओशो
मैंने सुना है, महावीर के समय में एक बहुत बड़ा डाकू हुआ। वह महावीर से बहुत डरता था। वह बूढा हो गया था। उसने अपने बेटे शिक्षा दी कि देख, और सब करना, इस एक आदमी के आसपास मत जाना। यह खतरनाक है, यह अपने धंधे का बिलकुल दुश्मन है। इसके पास गए कि मिटे। तो अगर कभी भूल-चूक से भी तू गुजरता हो और महावीर बोलता हो, तो अपने कानों में अंगुलियां डाल लेना। इसी तरह बामुश्किल मैंने अपने को बचाया है। निश्वित ही इस डाकू से भीतर साधु छिपा रहा होगा, अन्यथा कौन महावीर से बचता है! इसको हर क्या है? यह जानता है कि महावीर ठीक हैं। लेकिन भूल-चूक हो गई। बेटा आखिर बेटा ही था; बाप तो बहुत कुशल पुराना डाकू था, वह बचाता रहा अपने को। बेटा एक दिन जा रहा था रास्ते से। द्यैकइ बाप ने मना किया था, इसलिए मन में आकर्षण भी हो गया कि एकाध शब्द सुन लेने में क्या हर्ज है। ऐसा थोड़ी कि कुछ एकाध शब्द सुन लोगे और सब बदल जाएगा।
तो महावीर बोलते थे, द्वार पर कहीं दूर खड़े होकर एक वाक्य सुना, लेकिन फिर बाप की याद आयी, अंगुलियां कान में डाल लीं। भाग खड़ा हुआ। पर एक वाक्य कान में पड़ गया। महावीर से किसी ने पूछा था कोई प्रश्र, और वे जवाब देते थे। पूछा था प्रेत-योनि के संबंध में, कि प्रेत होते हैं तो कैसे होते हैं, देव होते हैं तो कैसे होते हैं।
फिर वर्षों बीत गए, यह डाकू पकड़ा गया। सम्राट के घर डाका डाला था। सम्राट इसके बाप से परेशान था; बात मर गया, बेटे से परेशान था। और कभी कोई बात पकड़ी न जा सकी थी, उनके खिलाफ जुर्म हाथ में न था, रंगे हाथ वे कभी पकड़े न गए थे। सम्राट ने अपने मनोवैज्ञानिकों से सलाह ली कि इससे सारी बातें निकलवा लेनी हैं; जब हाथ में पड़ गया है तो छोड़ नहीं देना है। कैसे निकलवाए इससे सारी बातें? तो मनोवैज्ञानिकों ने एक उपाय सोचा। उन्होंने इसे खूब शराब पिलाई। शराब पिलाकर महल की जो सुंदरतम स्त्रियां थी, उनको इसके चारों तरफ नृत्य करने को कहा। यह आदमी बीच में बैठा है नशे में सरोबोर, वे स्त्रियां नाचने लगीं। ऐसा सुंदर महल इसने कभी देखा न था। वे स्त्रियां इसे अप्सराएं मालूम होने लगीं। नशा! इसे शक होने लगा कि मैं इस लोक में हूं कि परलोक मैं पहुंच गया हूं। इसने किसी को पूछा। तो मनोवैज्ञानिकों ने यही तो उपाय किया था। उन्होंने कहा कि तुम मर गए हो, स्वर्ग में आ गए हो। और अब तुम अपने जीवनभर में तुमने जो भी पाप किए हैं, उन सब का ब्यौरा दे दो, ताकि परमात्मा उन्हें माफ कर दे। उसकी कृपा अनंत है, भयभीत मत हो। तुम अपना एक-एक पाप बोल दो। जो पाप तुम छिपाओगे वही बच रहेगा, जो तुम बता दोगे उससे तुम्हारा छुटकारा हो जाएगा। तब जरा डाकू चौंका : ‘’ सब पाप बता दे!’’ तब उसे याद आया, उस दिन का महावीर का वचन कि देवलोक में देवता होते हैं तो उनकी छाया नहीं पड़ती। तो उसने गौर से देखा कि अगर यह देवलोक है…। स्त्रियों की छाया पड़ रही थी, वह सम्हल गया। उसे लगा कि यह सब धोखा है, नशे में हूं। उसने एक भी पाप के संबंध में कुछ भी न कहा। अपने पुण्य की बातें बताई जो उसने कभी भी न किए थे। उसने कहा,’’ पाप तो कभी किए ही नहीं, मैं करूं भी क्या? परमात्मा क्षमा कर सकता है, लेकिन मैंने किए नहीं। पुण्य ही पुण्य किए हैं’’। सम्राट को उसे छोड़ देना पड़ा। वह जाल काम न आया। वह जैसे ही वहां से छूटा, सीधा महावीर के पास पहुंचा, उनके पैरों में गिर गया, और कहने लगा,’’ तुम्हारे एक वचन ने मेरे प्राण बचाए। अब मैं तुम्हें पूरा-पूरा ही सुन लेना चाहता हूं। इतना ही सुना था, वह भी कुछ बड़ी काम की बात न थी, लेकिन काम पड़ गई। सत्संग काम आ गया। वह भी ऐसी चोरी- चोरी द्वार पर खड़े होकर, एक वाक्य सुना था कि देवताओं की छाया नहीं पड़ती। तब तो सोचा भी न था कि इसकी कोई सार्थकता हो सकेगी, लेकिन काम पड़ गया, मेरे प्राण बचे। तुमने मुझे बचाया। भयंकर नशे में मुझे डुबाया था और सारा इंतजाम किया था और मैं फंस ही गया था और मैं तैयार ही था बोलने को, ताकि क्षमा कर दिया जाऊं। अब तुम मुझे पूरा ही बचा लो। इस सम्राट से तुमने बचाया, अब तुम मुझे मृत्यु से भी बचा लो। इस मौत से तुमने मुझे बचाया, अब तुम मुझे सारी मौतों से बचा लो। अब मैं तुम्हारी शरण हूं। साधु का एक वचन भी सुन लिया जाए तो असाधु के जीवन में रूपांतरण शुरू हो जाता है—बीज पड़ गया। साधु क्या ड़रेगा असाधु से? ड़रे तो असाधु हरे।
मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम बुरे लोगों का साथ छोड़ देना। मैं तो तुमसे यह कहूंगा कि तुम उन्हें बुरे देखोगे तो तुम बुरे रह जाओगे। तुम अगर उन्हें बुरे मानोगे तो तुम्हारी बुराई कभी मिट न सकेगी। तुम तो एक साथ छोड़ दो—भीतर के अपने मन को—और तत्क्षण तुम पाओगे : संसार में कोई बुरा न रहा। चोर में भी तब तुम्हें परमात्मा ही छिपा हुआ दिखाई पड़ेगा। हत्यारे में भी तब तुम्हें उसकी ही ज्योति झिलमिलाई दिखाई पड़ेगी। और तुमसे भयभीत होने लगेगा असाधु, क्योंकि तुम असाधुता की मौत सिद्ध होने लगोगे। तुम्हारी छाया जहां पड़ेगी, वहां से अंधकार हटेगा। निश्वित ही तुम्हारा असाधु से साथ छूट जाएगा। मैं छोड़ने को नहीं कहता हूं–छूट जाएगा। तुम्हें छोड़ना न पड़ेगा–असाधु भाग खड़ा होगा, या असाधु रूपांतरित हो जाएगा।
ओशो
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