एक बहुत मजे की बात है। बाहर से जो शक्ति मिलती है, स्वभावत: उसका दिखावा बाहर होता है। तुम भीतर कमजोर होते हो, लेकिन बाहर लोगों की आंखें चौंधिया
जाती हैं। जब तुम राष्ट्रपति हो जाते हो, तो सारे लोग तुम्हारे चरणों में
झुकने लगते हैं। सारे लोग तुम्हारा जयजयकार करने लगते हैं। सारे लोग मान
लेते हैं कि हां, तुम्हारे पास शक्ति है। तुम भीतर बिलकुल निर्बल और कमजोर
होते हो। तुम भीतर जानते हो कि कोई शक्ति नहीं है, लेकिन सारा जगत देखता है
कि शक्ति घटित हो रही है। जो शक्ति बाहर से मिलती है, बाहर के लोग उस
शक्ति का अनुभव भी कर पाते हैं, क्योंकि वह उन्हीं की दी गई है। तुम सिर्फ
दर्पण हो, जिसमें उन्हीं की शक्ति प्रतिबिंबित हो रही है और उन्हीं पर वापस
लौट रही है। जो उन्होंने दिया है, वह उन्हें दिखाई भी पड़ता है।
लेकिन जो शक्ति भीतर से पैदा होती है, साधारणत: बाहर के लोगों को वह दिखाई नहीं पड़ती। वह केवल उनको ही दिखाई पड़ सकती है, जिनको भीतर का कोई अनुभव है। अन्यथा बाकी लोगों को दिखाई नहीं पड़ती।
महावीर तुम्हारे पास से निकल जाएं, तो तुम यह मत सोचना कि तुम पहचान लोगे। गामा निकलेगा, तुम बिलकुल पहचान लोगे। एक सम्राट निकलेगा, तुम बिलकुल पहचान लोगे। एक बुद्ध निकलेगा, तुम नहीं पहचान पाओगे। क्योंकि बुद्ध की शक्ति किसी ऐसे स्रोत से आ रही है, जिसको देखने की तुम्हारे पास आख भी नहीं है। उलटा होगा, जब बुद्ध तुम्हारे पास से निकलेंगे, तुमको लगेगा कि यह कुछ भी नहीं हैं, ना कुछ हैं। बड़ी कठिनाई होगी तुम्हें पहचानने में। और पहचानने का अर्थ होगा कि तुम्हारा जीवन रूपांतरित होगा, तो ही तुम पहचान पाओगे।
इसलिए बुद्ध को पहचानना सस्ता नहीं है। बुद्ध को पहचानने में तुम्हें बदलना पड़ेगा। इसके पहले कि तुम पहचान सको, तुम्हें नया होना पड़ेगा, तब तुम पहचान पाओगे। लेकिन कौन इतनी झंझट करता है! कि बुद्ध को पहचानने की जरूरत भी क्या है जिसमें हमको बदलना पड़े? हम जैसे हैं, वैसे ही बुद्ध हमारी पहचान में नहीं आएंगे। हम चूक जाएंगे।
हां, लेकिन राजनेताओं को, धनपतियों को, सेनापतियों को हम पहचान लेंगे। हम जैसे हैं, वैसे में ही वे पहचान में आ जाएंगे। क्योंकि हमारे और उनके बीच कोई भी फर्क नहीं है। हम एक ही जगत के अंग हैं। हमारी उनकी भाषा एक है, हमारा उनका अस्तित्व एक है। और जो भी उनके पास है, वह हमारा दिया हुआ है। इसलिए हम उसे भलीभांति पहचानते हैं, वह हमारी ही संपदा है।
तो यह सूत्र कहता है, ‘शक्ति की उत्कट अभीप्सा करो। और जिस शक्ति की कामना शिष्य करेगा, वह शक्ति ऐसी होगी, जो उसे लोगों की दृष्टि में ना-कुछ जैसा बना देगी।’
साधना सूत्र
ओशो
लेकिन जो शक्ति भीतर से पैदा होती है, साधारणत: बाहर के लोगों को वह दिखाई नहीं पड़ती। वह केवल उनको ही दिखाई पड़ सकती है, जिनको भीतर का कोई अनुभव है। अन्यथा बाकी लोगों को दिखाई नहीं पड़ती।
महावीर तुम्हारे पास से निकल जाएं, तो तुम यह मत सोचना कि तुम पहचान लोगे। गामा निकलेगा, तुम बिलकुल पहचान लोगे। एक सम्राट निकलेगा, तुम बिलकुल पहचान लोगे। एक बुद्ध निकलेगा, तुम नहीं पहचान पाओगे। क्योंकि बुद्ध की शक्ति किसी ऐसे स्रोत से आ रही है, जिसको देखने की तुम्हारे पास आख भी नहीं है। उलटा होगा, जब बुद्ध तुम्हारे पास से निकलेंगे, तुमको लगेगा कि यह कुछ भी नहीं हैं, ना कुछ हैं। बड़ी कठिनाई होगी तुम्हें पहचानने में। और पहचानने का अर्थ होगा कि तुम्हारा जीवन रूपांतरित होगा, तो ही तुम पहचान पाओगे।
इसलिए बुद्ध को पहचानना सस्ता नहीं है। बुद्ध को पहचानने में तुम्हें बदलना पड़ेगा। इसके पहले कि तुम पहचान सको, तुम्हें नया होना पड़ेगा, तब तुम पहचान पाओगे। लेकिन कौन इतनी झंझट करता है! कि बुद्ध को पहचानने की जरूरत भी क्या है जिसमें हमको बदलना पड़े? हम जैसे हैं, वैसे ही बुद्ध हमारी पहचान में नहीं आएंगे। हम चूक जाएंगे।
हां, लेकिन राजनेताओं को, धनपतियों को, सेनापतियों को हम पहचान लेंगे। हम जैसे हैं, वैसे में ही वे पहचान में आ जाएंगे। क्योंकि हमारे और उनके बीच कोई भी फर्क नहीं है। हम एक ही जगत के अंग हैं। हमारी उनकी भाषा एक है, हमारा उनका अस्तित्व एक है। और जो भी उनके पास है, वह हमारा दिया हुआ है। इसलिए हम उसे भलीभांति पहचानते हैं, वह हमारी ही संपदा है।
तो यह सूत्र कहता है, ‘शक्ति की उत्कट अभीप्सा करो। और जिस शक्ति की कामना शिष्य करेगा, वह शक्ति ऐसी होगी, जो उसे लोगों की दृष्टि में ना-कुछ जैसा बना देगी।’
साधना सूत्र
ओशो
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