उपनिषद कहते हैं कि परमात्मा स्रोतहीन प्रकाश है। वह सूरज या ज्योतिशिखा
की भाति नहीं है; उसका कहीं भी कोई स्रोत नहीं है, केवल प्रकाश है, रोशनी
है—मानो वह ऊषाकाल है जब कि रात तो चली गई और सूर्य उदित नहीं हुआ है।
दोनों के बीच जो ऊषाकाल है, यह वह है। या यह संध्या की गोधूलि है, जब सूर्य
डूब गया है और रात अभी आई नहीं है। इसलिए उसे संध्या भी कहते हैं—दिन और
रात की संधि—वेला।
और यही कारण है कि हिंदुओं ने ध्यान के लिए संध्या को उचित समय माना है। वे ध्यान को संध्या ही कहने लगे फिर। वह ठीक मध्य—वेला है; जब दिन जा चुका है और रात आने को होती है। क्यों? यह महज प्रतीक है। प्रकाश तो है, लेकिन स्रोतहीन। वही बात अंतस से घटित होगी—स्रोतहीन प्रकाश घटित होगा। उसकी कल्पना मत करो, उसकी प्रतीक्षा करो।
और आखिरी बात याद रखने की यही है उसकी कल्पना मत करो। तुम कुछ भी कल्पना कर सकते हो। इस लिए तुम्हें बहुत सी बातें बताना खतरनाक है, तुम उनकी कल्पना करने लगोगे। तुम आंखें बंद कर लोगे और कल्पना में देख लोगे कि तीसरी आंख खुल रही है। कल्पना से तुम प्रकाश भी देख लोगे। लेकिन यह कल्पना मत करो। कल्पना से बचो। आंखें बंद करो और प्रतीक्षा करो। जो भी आए, उसे अनुभव करो, उसके साथ सहयोग करो। लेकिन प्रतीक्षा करो। आगे की छलांग मत लो; अन्यथा कुछ भी नहीं होगा। तुम्हारे हाथ एक सपना आ सकता है-सुंदर आध्यात्मिक सपना-और कुछ नहीं।
लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि हमने यह देखा और हमने वह देखा। लेकिन यह सब उनकी कल्पना है। यदि यह देखना सच होता तो वे रूपांतरित हो गए होते। मगर वे रूपांतरित नहीं हुए हैं। वे वही के वही लोग हैं; लेकिन एक नया आध्यात्मिक दंभ उनसे जुड़ गया है। उन्होंने कुछ सपने देख लिए हैं-सुंदर आध्यात्मिक सपने। किसी ने बांसुरी बजाते कृष्ण को देखा है; कोई प्रकाश देख रहा है; किसी की कुंडलिनी जाग रही है। ये चीजें वे देखते रहते हैं और वही के वही बने रहते हैं-मंदमति और मूढ़। कुछ भी उन्हें नहीं हुआ है। और वे वही के वही बने रहते हैं-क्रोधी, दुखी, बचकाने और मूढ़। कुछ भी उनका नहीं बदला है।
अगर सचमुच तुम्हें वह प्रकाश दिखाई पड़े जो तीसरी आंख से आता है तो तुम दूसरे ही व्यक्ति हो जाओगे। और तब तुम्हें किसी को भी बताने की जरूरत नहीं होगी। लोग जान लेंगे कि तुम दूसरे व्यक्ति हो गए हो। तुम इसे छिपा भी नहीं सकते; यह बात लोगों के अनुभव में आ जाती है। तुम जहां भी जाओगे वहा लोग महसूस करेंगे कि इस आदमी को कुछ हुआ है।
इसलिए कल्पना मत करो। प्रतीक्षा करो और चीजों को अपने आप ही घटित होने दो। तुम तो विधि का प्रयोग करो और प्रतीक्षा करो। आगे की छलांग मत लो।
और यही कारण है कि हिंदुओं ने ध्यान के लिए संध्या को उचित समय माना है। वे ध्यान को संध्या ही कहने लगे फिर। वह ठीक मध्य—वेला है; जब दिन जा चुका है और रात आने को होती है। क्यों? यह महज प्रतीक है। प्रकाश तो है, लेकिन स्रोतहीन। वही बात अंतस से घटित होगी—स्रोतहीन प्रकाश घटित होगा। उसकी कल्पना मत करो, उसकी प्रतीक्षा करो।
और आखिरी बात याद रखने की यही है उसकी कल्पना मत करो। तुम कुछ भी कल्पना कर सकते हो। इस लिए तुम्हें बहुत सी बातें बताना खतरनाक है, तुम उनकी कल्पना करने लगोगे। तुम आंखें बंद कर लोगे और कल्पना में देख लोगे कि तीसरी आंख खुल रही है। कल्पना से तुम प्रकाश भी देख लोगे। लेकिन यह कल्पना मत करो। कल्पना से बचो। आंखें बंद करो और प्रतीक्षा करो। जो भी आए, उसे अनुभव करो, उसके साथ सहयोग करो। लेकिन प्रतीक्षा करो। आगे की छलांग मत लो; अन्यथा कुछ भी नहीं होगा। तुम्हारे हाथ एक सपना आ सकता है-सुंदर आध्यात्मिक सपना-और कुछ नहीं।
लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि हमने यह देखा और हमने वह देखा। लेकिन यह सब उनकी कल्पना है। यदि यह देखना सच होता तो वे रूपांतरित हो गए होते। मगर वे रूपांतरित नहीं हुए हैं। वे वही के वही लोग हैं; लेकिन एक नया आध्यात्मिक दंभ उनसे जुड़ गया है। उन्होंने कुछ सपने देख लिए हैं-सुंदर आध्यात्मिक सपने। किसी ने बांसुरी बजाते कृष्ण को देखा है; कोई प्रकाश देख रहा है; किसी की कुंडलिनी जाग रही है। ये चीजें वे देखते रहते हैं और वही के वही बने रहते हैं-मंदमति और मूढ़। कुछ भी उन्हें नहीं हुआ है। और वे वही के वही बने रहते हैं-क्रोधी, दुखी, बचकाने और मूढ़। कुछ भी उनका नहीं बदला है।
अगर सचमुच तुम्हें वह प्रकाश दिखाई पड़े जो तीसरी आंख से आता है तो तुम दूसरे ही व्यक्ति हो जाओगे। और तब तुम्हें किसी को भी बताने की जरूरत नहीं होगी। लोग जान लेंगे कि तुम दूसरे व्यक्ति हो गए हो। तुम इसे छिपा भी नहीं सकते; यह बात लोगों के अनुभव में आ जाती है। तुम जहां भी जाओगे वहा लोग महसूस करेंगे कि इस आदमी को कुछ हुआ है।
इसलिए कल्पना मत करो। प्रतीक्षा करो और चीजों को अपने आप ही घटित होने दो। तुम तो विधि का प्रयोग करो और प्रतीक्षा करो। आगे की छलांग मत लो।
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