सूत्र:
भयंकर आधी के पश्चात जो निस्तब्धता छा जाती है,उसी में फूल के खिलने की प्रतीक्षा करो, उससे पहले नहीं।
जब तक आधी चलती रहेगी, जब तक युद्ध जारी रहेगा,
तब तक वह उगेगा, बढ़ेगा, उसमें शाखाएं और कलियां फूटेंगी!
परंतु जब तक मनुष्य का संपूर्ण देहाभाव विघटित होकर घुल न जाएगा,
जब तक समस्त आंतरिक प्रकृति
अपने उच्चात्मा से पूर्ण हार मानकर उसके अधिकार में न आ जाएगी,
तब तक फूल नहीं खिल सकता।
तब एक ऐसी शांति का उदय होगा,
जैसी गर्म प्रदेश में भारी वर्षा के पश्चात छा जाती है।
और उस गहन और नीरव शांति में वह रहस्यपूर्ण घटना घटित होगी,
जो सिद्ध कर देगी कि मार्ग की प्राप्ति हो गई है।
फूल खिलने का क्षण बड़े महत्व का है,
यह वह क्षण है जब ग्रहण—शक्ति जाग्रत होती है।
इस जागृति के साथ—साथ विश्वास, बोध और निश्चय भी प्राप्त होता है।
जब शिष्य खीखने के योग्य हो जाता है,
तो वह स्वीकृत हो जाता है,
शिष्य मान लिया जाता है और गुरूदेव उसे ग्रहण कर लेते है।
ऐसा होना अवश्यंभावी है,
क्योंकि उसने अपना दीप जला लिया है और दीपक की यह ज्योति छिपी नहीं रह सकती।
ऊपर लिखे गए नियम उन नियमों में से आरंभ के हैं,
जो नियम परम-प्रज्ञा के मंदिर की दीवारों पर लिखे हैं।
जो मांगेंगे, उन्हें मिलेगा, जो पढ़ना चाहेंगे, वे पढ़ेंगे; जो सीखना चाहेंगे, वे सीखेंगे।
तुम्हें शांति प्राप्त हो।
मुझसे लोग निरंतर पूछते हैं कि आप जैसा ध्यान हमने कभी नहीं देखा! लोग ध्यान करते हैं, तो आंखें बंद करके, पद्यासन में शांत हो कर बैठते हैं। यह कैसा ध्यान है कि लोग नाचते हैं, कूदते हैं, पागल हो जाते हैं? मैं उनको कहता हूं कि यह निस्तब्धता आंधी के बाद की है। और वे जो पालथी मार कर, आंख बंद करके बैठ गए हैं, वे आंधी से बच रहे हैं। और आंधी के बिना कोई निस्तब्धता का अनुभव नहीं है। और वे जो आंधी से बच रहे हैं, वे अगर निस्तब्धता का अनुभव भी कर लेंगे, तो वह निस्तब्धता थोथी है, कोरी है, निर्जीव है, ऊपर ऊपर होगी। उनके भीतर तो आंधी उबलती ही रहेगी। आंधी को निकाल डालों, आंधी में कूद पड़ो, आंधी बन जाओ; घबराहट क्या है? आंधी को जी लो, आंधी चली जाएगी, उसके पीछे एक क्षण होगा। उस क्षण में अगर हम जाग जाएं, तो वह द्वार खुल जाएगा, जो शाश्वत का है।
शांति दो तरह की हो सकती है। कल्टीवेटेड़, आरोपित-आप बैठ सकते हैं पत्थर की मूर्ति की तरह, अभ्यास कर सकते हैं। ध्यान रहे, आप बुद्ध को बैठे देखते हैं बोधि वृक्ष के नीचे। लेकिन आपको पता नहीं कि इसके पहले छह साल की भयंकर आंधी है। उसका कोई चित्र हमारे पास नहीं है, क्योंकि नासमझों ने मूर्तियां बनाई हैं। नहीं तो पहली मूर्ति वह होनी चाहिए, जो बुद्ध की आंधी का क्षण है। छह साल तक भयंकर आंधी में बुद्ध जीए हैं। वह हम बात ही छोड़ दिए हैं! बस हमने पकड़ ली है मूर्ति आखिरी क्षण में, जब बुद्ध शांत हो गए हैं।
हम क्या करेंगे? हम शुरू से ही बुद्ध की तरह एक वृक्ष के नीचे बैठे जाएंगे! हमारा बुद्धत्व बिलकुल झूठा और नकली है, सर्कस वाला है। वह असली नहीं हो सकता। क्योंकि उसका असली क्षण, कीमती क्षण, उसका प्रारंभिक हिस्सा मौजूद ही नहीं है। जिसके पीछे यह बुद्ध का जन्म हुआ है, इस बोधि वृक्ष के नीचे यह जो शांत चेतना जन्मी है, यह जो निष्कंप दीए की लौ है, यह जो मौन है, महामौन है, यह जो प्रकाश का महाअवतरण है,इसके पहले की आंधी कहा है? वह छह साल जो विक्षिप्त की तरह बुद्ध का भटकना है, एक एक द्वार-दरवाजे को ठोंकना है, एक एक गुरु के चरण में सिर रखना है, अनेक-अनेक मार्गों का उपाय करना है, सब तरह का विषाद, सब तरह का संताप झेलना है-वह कहां है? आप बैठ गए सीधे ही बोधि वृक्ष के नीचे, कुछ भी नहीं होगा। आप थोथे बुद्ध हैं। आप बैठ भी सकते हैं। अभ्यास से क्या नहीं हो सकता? आप अभ्यास कर सकते हैं बैठने का और बिलकुल शांत बैठ सकते हैं, लेकिन भीतर! भीतर कोई शांति न होगी।
साधना सूत्र
ओशो
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