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Tuesday, August 11, 2015

मछली और सागर

ऐसा समझिए कि आप एक मछली हैं सागर की। एक बार आपको सागर से निकाल कर तट पर फेंका जाना जरूरी है, तभी आपको सागर का पता चलेगा। आप सागर में ही हैं, सागर में ही पैदा हुए हैं-मछली हैं। सागर के बाहर कभी झांका नहीं, बाहर कभी गए नहीं आपको सागर का कोई पता नहीं चलेगा। सागर इतना निकट होगा, इतना जुड़ा होगा आपसे कि एक श्वास भी उसके बिना नहीं ली है, तो उसका पता नहीं चलेगा। सागर का पता उलटा सुनाई पड़ता है, समझ में नहीं आता है लेकिन जब मछली पहली दफा रेत के किनारे पर पड़ती है, तभी पता चलता है कि सागर है। वह जो तड़पन मालूम होती है रेत के किनारे पर, वह सागर से छूटने की जो पीड़ा है, वही फिर सागर से मिलने का रस बनती है। और जो मछली एक बार मछुए के जाल में फंस कर बाहर आ गई, दुबारा सागर में आती है—वह वही मछली नहीं है, जो सागर में पहले थी। अब यह सागर एक आनंद है। अब उसे पता है कि यह सागर उसका जीवन है। अब उसे पता है कि यह सागर कैसा रहस्य है। अब उसे पता है कि यह सागर क्या है! इसकी अर्थवत्ता अब उसके अनुभव में है।


तो परमात्मा कोई दुखवादी नहीं है कि आपको सता रहा है। परमात्मा कुछ कर ही नहीं रहा है।
लेकिन जीवन की अनिवार्यता यह है, जीवन का नियम यह है, कि विपरीत से गुजरे बिना कोई अनुभव नहीं होता।



ओशो 

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