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Sunday, August 2, 2015

जो नहीं हुआ शायद, हो जाए!

उमरखैयाम की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं कि मैंने ज्ञानियों से पूछा कि आदमी अब तक थका नहीं, किस सहारे जीता है? आदमी अब तक विषाद को उपलब्ध नहीं हुआ, किस सहारे जीता है? ज्ञानि उत्तर न पाए। फकीरों से पूछा। फकीर भी उलझे हुए मालूम पड़े। तब कोई राह न देखकर, उमरखैयाम कहता है कि एक रात मैंने आकाश से पूछा कि तूने तो सभी को चलते देखा, सदियों-सदियों, युगों-युगों से, कितने लोग उठे, आशाओं और सपनों से भरे कितने लोग धूल में गिरे, तूने तो सबको देखा, सब के अरमान मिट्टी में मिलते देखे, तुझे तो पता चल गया होगा अब तक, आदमी किसके सहारे चलता है! अब तक थकता नहीं, रुकता नहीं!

तो आकाश ने कहा,’’ आशा के सहारे’’ ।

तुम्हारा असली आकाश आशा है–जो नहीं हुआ शायद, हो जाए! जो किसी को नहीं हुआ शायद तुम्हें हो जाए। जो कभी किसी को नहीं हुआ, शायद…।  भविष्य को किसने जाना है? सिकंदर हार जाते हैं, लेकिन तुम चले जाते हो, चलते चले जाते हो। दिन में भी तुम सपने देखते हो, रात में ही नहीं। राह पर चलते हो तब भी सपने देखते हो। दुकान पर बैठते हो, बाजार में उठते हो, बैठते हो तब भी सपने देखते हो। सपने तुम्हारे भीतर एक सतत कम है। और इन्ही सपनों के कारण वह नहीं दिखाई पड़ता, जो है। सपनों की धूल तुम्हारी आंख को दबाए है। सत्य को जानने के लिए कुछ भी नहीं करना है–सिर्फ असत्य से मुक्त हो जाना है। सत्य को जानने के लिए कुछ भी नहीं करना है–सिर्फ जो नहीं है, उसे देख लेना है कि नहीं है। द्वार साफ है। परदा उठा हुआ है। परदा कभी था ही नहीं।

 ओशो 

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