एक दिन बहुत से भिक्षु बैठे बात कर रहे थे। पहली बात तो यह है कि भिक्षु
बैठकर गपशप करें,यहीं भिक्षु के लिए योग्य नहीं। भिक्षु चुप बैठे, यही
योग्य है। भिक्षु उतना ही बोले जीतना अनिवार्य हो। अपरिहार्य हो, भिक्षु
होने के बाद बहुत बातें छोड़नी है, उनमें व्यर्थ की चर्चा भी छोड़नी है।
नहीं तो फिर सांसारिक और संन्यासी में फर्क क्या रहा?
तो पहली तो बात बहुत से भिक्षु बैठे बातें कर रहे थे। भिक्षु जब बैठे, चुप बैठे,मौन बैठे , सन्नाटे में डूबे, शून्य में उतरें। भिक्षु का अर्थ ही है, समाधि की तलाश। गपशप से तो समाधि की तलाश नहीं होगी। तुम भी सोचना तुम भी संन्यासी हो, तुम बैठकर अगर व्यर्थ की बातें करते हो, तो विचारकरना, इन बातों से क्या होगा? और अगर ये बातें वैसी ही है जैसी होटलों में लोग कर रहे है बैठकर, अगर ये बातें वैसी ही है जैसी क्लब घरों में चल रही है। दुकानों पर चल रही है, बजार में चल रही है तो फिर तुममें और उनमें कोई फर्क नहीं है। तुम्हारी बात से तुम्हारा पता चलता है। बात ऐसे ही थोडे आ जाती है। बात तो फल है। नीम के वृक्ष में कड़वे फल लगते है, वह नीम की बात। आम में मीठे आम लगते है यह आम की बात। तुम कैसी बात करते हो, उसका थोड़ा विचार करना सोचना क्या बात करते हो? उस बात से पता चल जाएगा कि तुम्हारे भीतर जहर बह रहा है कि अमृत।
भिक्षु बात क्या कर रहे है। कि संसार में सुख, सबसे बड़ा सुख क्या है? अगर संसार में सुख ही था तो छोड़कर आये क्यों? जब संसार में दुःख ही दुःख रह जाए, तभी तो कोई संन्यस्त होता है। जब यह समझ में आ जाये कि यहां कुछ भी नहीं है। खाली पानी के बबूले है, आकाश में बने इंद्रधनुष है, आकाश कुसुम है यहां कुछ भी नहीं है। तभी तो कोई संन्यासी होता है। संन्यास का अर्थ ही है, संसार व्यर्थ हो गया है—जानकर, अनुभव से अपने ही साक्षात्कार से। ये भिक्षु ऐसे ही भाग कर चले आए होंगे। किसी की पत्नी मर गयी होगी। संन्यासी हो गया। किसी का दिवाला निकल गया तो संन्यासी हो गया। अब तुम देखना बहुत से लोग संन्यासी होंगे। फिर कुछ और बचता भी नहीं।
जो नहीं मिला, यह भी अहंकार मानने को तैयार नहीं होता। अहंकार कहने लगता है, अंगूर खट्टे है। छलांग लगाती है लोमड़ी बहुत,अंगूर के गुच्छे ऊपर है, नहीं पहुंच पाती। नहीं पहुंच पाती, यह भी स्वीकार करने का मन नहीं होता। तो ये बैठे होंगे भिक्षु, ये सब संन्यासी हो गए है, इनके कारण गलत रहे होंगे। यह संन्यास ठीक बुनियाद पर खड़ा हुआ संन्यास नहीं है। ये हारे थके लोग है। जीवन में संघर्ष में टिक नहीं पाएँ, संन्यासी हो गए है—कहकर कि संसार बेकार है, रख क्या है। लेकिन अब भी मन तो वहीं वही जाता है। बैठते होंगे जब एकता में तो चर्चा वहीं की उठती होगी। से चर्चा उठी है। तो भगवान बुद्ध चोंके होंगे। उन्होंने कहा, भिक्षुओं भिक्षु होकर भी यह सब तुम क्या कर रहे हो। यह तो चर्चा तुम जो कर रहे हो। भिक्षुओं जैसी नहीं। पहले तो चुप होना उचित था। अगर चर्चा ही करनी थी तो परमात्मा की चर्चा करनी चाहिए थी। और उनकी चर्चा का विषय क्या था। विषय था- संसार में सुख क्या है? यह भी बड़ा सूचक है। जब भिक्षु संसार के सुख की बातें कर रहा हो तो उसका मतलब है कि वह संसार से कच्चा चला आया, अभी मन वहीं भटक रहा है।
किसी ने कहां नहीं, राज-सुख के सामन दूसरा सुख नहीं। अब एक बात पक्की है कि इस आदमी ने राज्य सुख नहीं जाना है। जिसने जाना है, वह बुद्ध तो छोड़कर आ गए है, जिसने जाना है, वह महावीर तो त्याग कर आ गए है। इस आदमी ने राज्य सुख नहीं जाना है। इसने दूर से राजाओं की डोली उठते देखी है, राजाओं की शोभा यात्रा निकलते देखी है। जुलूस निकलते देखा है। राजमहल दूर से देखे है, सड़क से खड़े होकर, चमकते हुए कँगूरे राज महलों के स्वर्ण मंडित राजमहल इसने देखे है। मकर दूर से, राजमहल के भीतर क्या घटता है, इसका इसे कुछ पता नहीं है। इसकी वासना में राजमहल बसे है, यह भी चाहता था हो जाए, और अगर आज कोई इसको राजमहल देने को राज़ी हो तो ये संन्यास छोड़कर खड़ा हो जायेगा। कि मैं आया। यह एक बार भी लौटकर फिर संन्यास की तरफ नहीं देखेगा। अभागे आदमी है, बुद्ध पुरूषों के पास बैठकर भी राज्य सुख की बात कर रहे है। सोच रहे है कि राज में सुख होगा।
राज सुख के सामने दूसरा सुख नहीं है। और किसी ने कहा, काम सुख; अरे काम सुख के सामने राज सुख में क्या रखा है। असली सुख तो स्त्री में है। या असली सुख पुरूष में है। यह आदमी काम वंचित है। इसने कामवासना को दबा लिया है। इसने कामवासना का दंश नहीं जाना, पीड़ा नहीं जानी, इसने कामवासना का जहर नहीं जाना। यह ऐसे ही भाग आया है। स्त्री इसे मिली नहीं होगी। इसके मन में वासना अधूरी रह गयी है—जड़ें रह गयी है। पत्ते ऊपर-ऊपर काट डाले है। नए अंकुर निकल रहे है। और फिर किसी ने कहा,यश बड़ी चीज है। और फिर किसी ने कहा भोजन; और फिर किसी ने कहा; वस्त्र। यह सब साधारण लोग है। जो गलत कारणों से संसार छोड़कर आ गए है। इन्होंने संसार छोड़ा नहीं, ये संसार में अब भी है। इनके वस्त्र बदल गये है।
इसलिए मैं तुमसे संसार छोड़ने को कहता ही नहीं हूं। मैं कहता हूं, तुम वहीं रहो, वहीं जागे हुए जीओं। क्योंकि दुनिया में बहुत भगोड़े है। अगर उन्हें मौका मिल जाए भागने का, कोई बहाना मिल जाए भागने का, तो वे भाग खड़े होंगे। मैं तुम्हें को नहीं कहता, में कहता हूं वहीं रहो,अंगूर चख-चख कर व्यर्थ हो जाने दो, खट्टे हो जाने दो। अपने आप गिर जाने दो। ताकि तुम्हारे जीवन का स्वाद ही तुम्हें कह दे, अनुभव तुम्हें कह दे अनुभव तुम्हारी निष्पति बन जाए। फिर भागना कहां है। संसार अपने से गिर जाए।
ऐसे विवाद छिड़ गया। जहां वासना है, वहां विवाद है। जहां विचार है,वहां विवाद है। अगर संन्यास किसी ने ठीक-ठीक अर्थों में लिया हो तो विवाद समाप्त हो जाता है। क्या विवाद है। निर्विवाद एक बात दिखाई पड़ गई। कि संसार व्यर्थ हे। फिर ये सब संसार के ही नाम है—राजपद कहो, धन कहो, यश कहो,मान कहो—ये सब संसार के ही अलग-अलग पहलू है, विवाद कहां है? और तब बुद्ध भगवान अचानक आ गये। खड़े होकर पीछे उन्होंने भिक्षुओं की बातें सुनी। चोंके! फिर कहा, भिक्षुओं, भिक्षु होकर भी यह सब तुम क्या कह रहे हो। यह सारा संसार दुख में है। इसमें तुम बता रहे हो। कोई कह रहा है राज्य-सुख कोई कहता है, काम सुख दुःख में है। इसमे तुम बता रहे हो, कोई कहा रहा भोजन-सुख। स्वाद सुख; यह सब तुम जो कह रहे हो क्या कह रहे हो? यह सुनकर मुझे आश्चर्य है। अगर इस सब में सुख है तो तुम यहां आ क्यों गये। सुख भी आभास है। बुद्ध ने कहा, दुःख सत्य है। ओर सुख नहीं है ऐसा नहीं। पर संसार में नहीं है। संसार का अर्थ ही है जहां सुख दिखायी पड़ता है। और है नहीं। जहां आभास होता है प्रतीति होती है। इशारे मिलते है कि है। लेकिन जैसे-जैसे पास जाओ,पता चलता है, नहीं है।
फिर सुख कहां है? बुद्ध ने कहा, बुद्धोत्पाद में सुख है। तुम्हारे भीतर बुद्ध का जन्म हो जाए, तो सुख है। तुम्हारे भीतर बुद्ध का अवतरण हो जाए तो सुख है। बुद्धोत्पाद, यह बड़ा अनूठा शब्द है। तुम्हारे भीतर बुद्ध उत्पन्न हो जाएं। तो सुख है। तुम जाब जाओ तो सुख है। सोने में दुःख है, मूर्च्छा में दुःख है। जागने में सूख है। धर्म श्रवण सुख है। तो सबसे परम सुख तो है, बुद्धोत्पाद; कि तुम्हारे भीतर बुद्धत्व पैदा हो जाए। अगर अभी यह नहीं हुआ तो नंबर दो का सुख है—जिनका बुद्ध जाग गया उनका बात सुनने में सुख है। धर्म श्रवण में सुख है। तो सुनो उनकी जो जाग गए है। जिन्हें कुछ दिखायी पड़ा है। गुणों उनकी। लेकिन उसी सुख पर रूक मत जाना,सुन सुनकर अगर रूक गए तो एक तरह का सुख तो मिलेगा,लेकिन वह भी बहुत दूर जाने वाला नहीं है। इसलिए बुद्ध ने कहा समाधि में सुख है। बुद्धोत्पाद में सुख है, यह तो परम व्याख्या हुई सुख की। फिर यह भी तो हुआ नहीं है। तो उनके वचन सुनो,उनके पास उठो-बैठो जिनके भीतर यह क्रांति घटी है। जिनके भीतर यह सूरज निकला है। जिनका प्रभात हो क्या है। जहां सूर्योदय हुआ है, उनके पास रमो, इसमें सुख है। मगर इसमें ही रूक मत जाना। ध्यान रखना कि जो उनको हुआ है, वह तुम्हें भी करना है। उस करने के उपाय का नाम समाधि है। सुनो बुद्धों की और चेष्टा करो बुद्धों जैसे बनने की। उस चेष्टा का नाम समाधि है। उस चेष्टा का फल है, बुद्धोत्पाद। सुनो बुद्धों के वचन,फिर बुद्धों जैसे बनने की चेष्टा में लगना—ध्यान,समाधि,योग। और जिस दिन बन जाओ, उस दिन परम सुख।
तब भगवान ने ये सुत्र कहे थे:
सुखो बुद्धानं उप्पदो सुखा सद्धम्मदेसना।
सुखा संघस्स सामगी समग्गनं तपो सुखो।।
(बुद्धों का उत्पन्न होना सुख दायी, सद धर्म का उपदेश सुखदायी, संध में एकता सुखदायी…..।)
ओशो
तो पहली तो बात बहुत से भिक्षु बैठे बातें कर रहे थे। भिक्षु जब बैठे, चुप बैठे,मौन बैठे , सन्नाटे में डूबे, शून्य में उतरें। भिक्षु का अर्थ ही है, समाधि की तलाश। गपशप से तो समाधि की तलाश नहीं होगी। तुम भी सोचना तुम भी संन्यासी हो, तुम बैठकर अगर व्यर्थ की बातें करते हो, तो विचारकरना, इन बातों से क्या होगा? और अगर ये बातें वैसी ही है जैसी होटलों में लोग कर रहे है बैठकर, अगर ये बातें वैसी ही है जैसी क्लब घरों में चल रही है। दुकानों पर चल रही है, बजार में चल रही है तो फिर तुममें और उनमें कोई फर्क नहीं है। तुम्हारी बात से तुम्हारा पता चलता है। बात ऐसे ही थोडे आ जाती है। बात तो फल है। नीम के वृक्ष में कड़वे फल लगते है, वह नीम की बात। आम में मीठे आम लगते है यह आम की बात। तुम कैसी बात करते हो, उसका थोड़ा विचार करना सोचना क्या बात करते हो? उस बात से पता चल जाएगा कि तुम्हारे भीतर जहर बह रहा है कि अमृत।
भिक्षु बात क्या कर रहे है। कि संसार में सुख, सबसे बड़ा सुख क्या है? अगर संसार में सुख ही था तो छोड़कर आये क्यों? जब संसार में दुःख ही दुःख रह जाए, तभी तो कोई संन्यस्त होता है। जब यह समझ में आ जाये कि यहां कुछ भी नहीं है। खाली पानी के बबूले है, आकाश में बने इंद्रधनुष है, आकाश कुसुम है यहां कुछ भी नहीं है। तभी तो कोई संन्यासी होता है। संन्यास का अर्थ ही है, संसार व्यर्थ हो गया है—जानकर, अनुभव से अपने ही साक्षात्कार से। ये भिक्षु ऐसे ही भाग कर चले आए होंगे। किसी की पत्नी मर गयी होगी। संन्यासी हो गया। किसी का दिवाला निकल गया तो संन्यासी हो गया। अब तुम देखना बहुत से लोग संन्यासी होंगे। फिर कुछ और बचता भी नहीं।
जो नहीं मिला, यह भी अहंकार मानने को तैयार नहीं होता। अहंकार कहने लगता है, अंगूर खट्टे है। छलांग लगाती है लोमड़ी बहुत,अंगूर के गुच्छे ऊपर है, नहीं पहुंच पाती। नहीं पहुंच पाती, यह भी स्वीकार करने का मन नहीं होता। तो ये बैठे होंगे भिक्षु, ये सब संन्यासी हो गए है, इनके कारण गलत रहे होंगे। यह संन्यास ठीक बुनियाद पर खड़ा हुआ संन्यास नहीं है। ये हारे थके लोग है। जीवन में संघर्ष में टिक नहीं पाएँ, संन्यासी हो गए है—कहकर कि संसार बेकार है, रख क्या है। लेकिन अब भी मन तो वहीं वही जाता है। बैठते होंगे जब एकता में तो चर्चा वहीं की उठती होगी। से चर्चा उठी है। तो भगवान बुद्ध चोंके होंगे। उन्होंने कहा, भिक्षुओं भिक्षु होकर भी यह सब तुम क्या कर रहे हो। यह तो चर्चा तुम जो कर रहे हो। भिक्षुओं जैसी नहीं। पहले तो चुप होना उचित था। अगर चर्चा ही करनी थी तो परमात्मा की चर्चा करनी चाहिए थी। और उनकी चर्चा का विषय क्या था। विषय था- संसार में सुख क्या है? यह भी बड़ा सूचक है। जब भिक्षु संसार के सुख की बातें कर रहा हो तो उसका मतलब है कि वह संसार से कच्चा चला आया, अभी मन वहीं भटक रहा है।
किसी ने कहां नहीं, राज-सुख के सामन दूसरा सुख नहीं। अब एक बात पक्की है कि इस आदमी ने राज्य सुख नहीं जाना है। जिसने जाना है, वह बुद्ध तो छोड़कर आ गए है, जिसने जाना है, वह महावीर तो त्याग कर आ गए है। इस आदमी ने राज्य सुख नहीं जाना है। इसने दूर से राजाओं की डोली उठते देखी है, राजाओं की शोभा यात्रा निकलते देखी है। जुलूस निकलते देखा है। राजमहल दूर से देखे है, सड़क से खड़े होकर, चमकते हुए कँगूरे राज महलों के स्वर्ण मंडित राजमहल इसने देखे है। मकर दूर से, राजमहल के भीतर क्या घटता है, इसका इसे कुछ पता नहीं है। इसकी वासना में राजमहल बसे है, यह भी चाहता था हो जाए, और अगर आज कोई इसको राजमहल देने को राज़ी हो तो ये संन्यास छोड़कर खड़ा हो जायेगा। कि मैं आया। यह एक बार भी लौटकर फिर संन्यास की तरफ नहीं देखेगा। अभागे आदमी है, बुद्ध पुरूषों के पास बैठकर भी राज्य सुख की बात कर रहे है। सोच रहे है कि राज में सुख होगा।
राज सुख के सामने दूसरा सुख नहीं है। और किसी ने कहा, काम सुख; अरे काम सुख के सामने राज सुख में क्या रखा है। असली सुख तो स्त्री में है। या असली सुख पुरूष में है। यह आदमी काम वंचित है। इसने कामवासना को दबा लिया है। इसने कामवासना का दंश नहीं जाना, पीड़ा नहीं जानी, इसने कामवासना का जहर नहीं जाना। यह ऐसे ही भाग आया है। स्त्री इसे मिली नहीं होगी। इसके मन में वासना अधूरी रह गयी है—जड़ें रह गयी है। पत्ते ऊपर-ऊपर काट डाले है। नए अंकुर निकल रहे है। और फिर किसी ने कहा,यश बड़ी चीज है। और फिर किसी ने कहा भोजन; और फिर किसी ने कहा; वस्त्र। यह सब साधारण लोग है। जो गलत कारणों से संसार छोड़कर आ गए है। इन्होंने संसार छोड़ा नहीं, ये संसार में अब भी है। इनके वस्त्र बदल गये है।
इसलिए मैं तुमसे संसार छोड़ने को कहता ही नहीं हूं। मैं कहता हूं, तुम वहीं रहो, वहीं जागे हुए जीओं। क्योंकि दुनिया में बहुत भगोड़े है। अगर उन्हें मौका मिल जाए भागने का, कोई बहाना मिल जाए भागने का, तो वे भाग खड़े होंगे। मैं तुम्हें को नहीं कहता, में कहता हूं वहीं रहो,अंगूर चख-चख कर व्यर्थ हो जाने दो, खट्टे हो जाने दो। अपने आप गिर जाने दो। ताकि तुम्हारे जीवन का स्वाद ही तुम्हें कह दे, अनुभव तुम्हें कह दे अनुभव तुम्हारी निष्पति बन जाए। फिर भागना कहां है। संसार अपने से गिर जाए।
ऐसे विवाद छिड़ गया। जहां वासना है, वहां विवाद है। जहां विचार है,वहां विवाद है। अगर संन्यास किसी ने ठीक-ठीक अर्थों में लिया हो तो विवाद समाप्त हो जाता है। क्या विवाद है। निर्विवाद एक बात दिखाई पड़ गई। कि संसार व्यर्थ हे। फिर ये सब संसार के ही नाम है—राजपद कहो, धन कहो, यश कहो,मान कहो—ये सब संसार के ही अलग-अलग पहलू है, विवाद कहां है? और तब बुद्ध भगवान अचानक आ गये। खड़े होकर पीछे उन्होंने भिक्षुओं की बातें सुनी। चोंके! फिर कहा, भिक्षुओं, भिक्षु होकर भी यह सब तुम क्या कह रहे हो। यह सारा संसार दुख में है। इसमें तुम बता रहे हो। कोई कह रहा है राज्य-सुख कोई कहता है, काम सुख दुःख में है। इसमे तुम बता रहे हो, कोई कहा रहा भोजन-सुख। स्वाद सुख; यह सब तुम जो कह रहे हो क्या कह रहे हो? यह सुनकर मुझे आश्चर्य है। अगर इस सब में सुख है तो तुम यहां आ क्यों गये। सुख भी आभास है। बुद्ध ने कहा, दुःख सत्य है। ओर सुख नहीं है ऐसा नहीं। पर संसार में नहीं है। संसार का अर्थ ही है जहां सुख दिखायी पड़ता है। और है नहीं। जहां आभास होता है प्रतीति होती है। इशारे मिलते है कि है। लेकिन जैसे-जैसे पास जाओ,पता चलता है, नहीं है।
फिर सुख कहां है? बुद्ध ने कहा, बुद्धोत्पाद में सुख है। तुम्हारे भीतर बुद्ध का जन्म हो जाए, तो सुख है। तुम्हारे भीतर बुद्ध का अवतरण हो जाए तो सुख है। बुद्धोत्पाद, यह बड़ा अनूठा शब्द है। तुम्हारे भीतर बुद्ध उत्पन्न हो जाएं। तो सुख है। तुम जाब जाओ तो सुख है। सोने में दुःख है, मूर्च्छा में दुःख है। जागने में सूख है। धर्म श्रवण सुख है। तो सबसे परम सुख तो है, बुद्धोत्पाद; कि तुम्हारे भीतर बुद्धत्व पैदा हो जाए। अगर अभी यह नहीं हुआ तो नंबर दो का सुख है—जिनका बुद्ध जाग गया उनका बात सुनने में सुख है। धर्म श्रवण में सुख है। तो सुनो उनकी जो जाग गए है। जिन्हें कुछ दिखायी पड़ा है। गुणों उनकी। लेकिन उसी सुख पर रूक मत जाना,सुन सुनकर अगर रूक गए तो एक तरह का सुख तो मिलेगा,लेकिन वह भी बहुत दूर जाने वाला नहीं है। इसलिए बुद्ध ने कहा समाधि में सुख है। बुद्धोत्पाद में सुख है, यह तो परम व्याख्या हुई सुख की। फिर यह भी तो हुआ नहीं है। तो उनके वचन सुनो,उनके पास उठो-बैठो जिनके भीतर यह क्रांति घटी है। जिनके भीतर यह सूरज निकला है। जिनका प्रभात हो क्या है। जहां सूर्योदय हुआ है, उनके पास रमो, इसमें सुख है। मगर इसमें ही रूक मत जाना। ध्यान रखना कि जो उनको हुआ है, वह तुम्हें भी करना है। उस करने के उपाय का नाम समाधि है। सुनो बुद्धों की और चेष्टा करो बुद्धों जैसे बनने की। उस चेष्टा का नाम समाधि है। उस चेष्टा का फल है, बुद्धोत्पाद। सुनो बुद्धों के वचन,फिर बुद्धों जैसे बनने की चेष्टा में लगना—ध्यान,समाधि,योग। और जिस दिन बन जाओ, उस दिन परम सुख।
तब भगवान ने ये सुत्र कहे थे:
सुखो बुद्धानं उप्पदो सुखा सद्धम्मदेसना।
सुखा संघस्स सामगी समग्गनं तपो सुखो।।
(बुद्धों का उत्पन्न होना सुख दायी, सद धर्म का उपदेश सुखदायी, संध में एकता सुखदायी…..।)
ओशो
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