क्या शिक्षा? इंद्रियों को मारो मत, इंद्रियों को जिलाओं, इंद्रियों को ज्यादा संवेदनशील बनाओ। प्रत्येक इंद्रिय शुद्धतम अनुभव कर सके, तो प्रत्येक इंद्रिय से परमात्मा का अनुभव होगा। तब उसका स्वाद भी लिया जा सकता है।
यह बात बड़ी व्यर्थ मालूम पड़ेगी कि परमात्मा का स्वाद! और आप कहेंगे कि आप क्या कह रहे हैं! हमने तो सदा यही कहा है कि परमात्मा का दर्शन होता है। उसका कारण यह नहीं है कि परमात्मा का स्वाद नहीं होता। उसका कारण यह है कि दुनिया के अधिकतम साधकों ने आंखों को शुद्ध करके ही उसकी खोज की है। और कोई कारण नहीं है। चूंकि आंखें शुद्ध करके खोज की है, इसलिए उन्होंने कहा साक्षात्कार, दर्शन। हमने तो अपनी पूरी खोज का नाम ही दर्शन रख दिया है। पर यह आंखों के कारण आदमी आँख केंद्रित है।
और ऐसा इसी मुल्क में नहीं है, सारी दुनिया में है। पश्चिम में भी वे अनुभवी को सिअर कहते हैं, देखने वाला। लेकिन क्यों? कोई भी नहीं कहता स्वाद लेने वाला। कोई भी नहीं कहता श्रवण करने वाला! कोई भी नहीं कहता परमात्मा की गंध! उलटा लगेगा। लेकिन अगर आख देख सकती है तो नाक क्यों नहीं सूंघ सकती? और आख के देखने में हमें कोई अड़चन नहीं मालूम पड़ती। और अगर मैं कहूं परमात्मा का स्वाद, तो अड़चन मालूम पड़ेगी। उसका कारण सिर्फ इतना है कि आदमी की बाकी सब इंद्रियां, आँख की बजाय, ज्यादा जल्दी स्थूल हो जाती हैं।
आँख मनुष्य के शरीर में सबसे तरल इंद्रिय है। ऐसा समझें कि आख मनुष्य के शरीर में सबसे कम शरीर का हिस्सा है, अशरीरी है। और इसलिए जब हम किसी की आंखों में झांकते हैं तो उसमें पूरी तरह झांक लेते हैं। इसलिए बहरा आदमी उतना नहीं खोता, अंधा आदमी बहुत खो देता है। आख के बंद होते ही अस्सी प्रतिशत अनुभव बंद हो जाते हैं। बाकी इंद्रियों से हम बीस प्रतिशत अनुभव लेते हैं, आख से अस्सी प्रतिशत अनुभव लेते हैं। इसलिए बहरे आदमी पर आपको उतनी दया नहीं आती, जितनी अंधे आदमी पर दया आती है। उसका कारण है। क्योंकि वह कितना खो रहा है! आख के खोते ही अस्सी प्रतिशत अनुभव खो जाते हैं। इसलिए आँख केंद्रित होने की वजह से हमने कहा, ईश्वर का दर्शन।
लेकिन यह जरूरी नहीं है। अगर आप अपनी स्वाद की इंद्रिय को शुद्ध कर लें, तो स्वाद से भी उसका स्वाद मिलेगा। अगर आप अपने हाथ के अनुभव को शुद्ध कर लें, तो उसका स्पर्श भी होगा। आप किसी भी इंद्रिय को शुद्ध कर लें, तो आपको उसकी प्रतीति उसी इंद्रिय से हो जाएगी। अगर आप अपनी सारी इंद्रियों को शुद्ध कर लें, तो परमात्मा आप पर सब तरफ से बरस पड़ेगा। साधना इंद्रिय शुद्धि है। और इंद्रिय शुद्धि का सूत्र है
‘उत्तेजना की इच्छा को दूर करो, इंद्रियजन्य अनुभवों से शिक्षा लो और उसका निरीक्षण करो।’
क्या है निरीक्षण? कि जितनी उत्तेजना, उतनी इंद्रिय मरती है। जितनी कम उत्तेजना, उतनी इंद्रिय जीतती है, जगती है, सजग होती है। ‘आत्म विद्या का पाठ इसी प्रकार प्रारंभ किया जा सकता है और इसी प्रकार तुम सीढ़ी की पहली पटिया पर अपना पैर जमा सकते हो।’
जिसका हमें अनुभव करना है, वह भीतर छिपा है। और उत्तेजना की खोज होती है बाहर। तो जितनी उत्तेजना, उतने ही हम अपने से दूर निकल जाते हैं। इसलिए मजे की बात है कि आदमी चाँद पर उतर जाता है और अपने भीतर उतरने की उसे कोई भी फिक्र नहीं है। वह भी उत्तेजना की तलाश है। लेकिन कैसी भी उत्तेजना हो…।
चांद पर पहुंचने की आकांक्षा कितनी पुरानी है! जब से मनुष्य है, तब से चांद पर पहुंचने की आकांक्षा है। और बच्चे पैदा होते से ही चांद की तरफ हाथ बढ़ाने लगते हैं। आदमी अनंत काल से सोच रहा है चांद पर पहुंच जाए। लेकिन आपको पता है कि क्या हुआ? जब पहली दफा आदमी चांद पर उतरा, तो सारी दुनिया में भारी उत्तेजना थी, विशेष कर अमरीका में, क्योंकि उनका आदमी उतरा था, तो और भी ज्यादा उत्तेजना थी। सारे लोग अपने टेलीविजन लगाए बैठे हुए थे। लेकिन दो घंटे के बाद उत्तेजना खतम हो गई। आदमी उतर गया, लोगों ने टेलीविजन बंद कर दिए। फिर उनकी रूटीन, रोज की दुनिया शुरू हो गई। चौबीस घंटे चर्चा रही और बात समाप्त हो गई! हजारों वर्ष से जिस उत्तेजना के लिए आदमी आतुर था, वह दो घंटे में खतम हो गई! चांद पर पहुंच गया, अब क्या है? एक क्षण को लगा कि कोई बड़ी घटना घट रही है, फिर सब ठीक हो गया, फिर दुनिया अपने रास्ते पर चलने लगी। इतनी बड़ी विजय की यात्रा, इतने कल्पों तक जिसका स्वप्न देखा हो, वह भी दो घंटे में पुरानी पड़ जाती है!
आदमी का मन हर चीज को पुरानी कर देता है। और दूर हम कितने ही निकल जाएं, जितने दूर जाते हैं, उतना ही भीतर का अनुभव मुश्किल होता जाता है।
साधना सूत्र
ओशो
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