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Thursday, August 6, 2015

उन्नति की आकांक्षा


उन्नति की आकांक्षा भी वैसी ही घातक है, शायद उससे भी ज्यादा, जितनी उत्तेजना की आकांक्षा है। पर बड़ा अजीब लगेगा, क्योंकि हम तो सोचते हैं कि अध्यात्म भी तो आखिर उन्नति की आकांक्षा है! कि हम आनंद चाहते हैं, कि मुक्ति चाहते हैं, कि परमात्मा को चाहते हैं यह भी तो उन्नति की आकांक्षा है।

लेकिन एक बुनियादी फर्क समझ लेना जरूरी है।

एक तो उन्नति है, जो आपकी चाह से आती है। और एक उन्नति है, जो आपकी चाह से नहीं आती, जब आपमें चाह नहीं होती, तब आती है। एक तो उन्नति है, जो आपकी चेष्टा से आती है, और आपकी चेष्टा से आई हुई उन्नति आपसे बड़ी नहीं होगी। हो भी नहीं सकती। आपका ही कृत्य आपसे बड़ा नहीं हो सकता। कृत्य हमेशा कर्ता से छोटा होता है। आप जो भी करेंगे, वह आपसे छोटा काम होगा। होगा ही। आप अपने से बड़ा काम कर कैसे सकते हैं? और जब आप ही करने वाले हैं तो काम आपसे बड़ा नहीं होगा। कितना ही बड़ा काम हो, आप उससे बड़े ही रहेंगे। कितना ही सुंदर कोई चित्र बनाए, चित्रकार चित्र से बड़ा रहेगा। और कितना ही कोई मधुर संगीत पैदा कर ले, संगीतज्ञ संगीत से बड़ा रहेगा। जो आप करते हैं, वह आपसे बड़ा नहीं हो सकता। कृत्य सदा कर्ता से छोटा होगा।

यह तो बड़ी कठिन बात हो गई। इसका तो मतलब हुआ कि अगर आप कोई आध्यात्मिक उन्नति भी कर लें, तो वह आपसे बड़ी नहीं हो सकती। जो आप हैं, आपसे छोटी होगी। तब तो आप एक बड़े चक्कर में हैं। आप अपने से छूट नहीं सकते, आप रहेंगे ही और सदा बड़े रहेंगे, जो भी आप पा लें। अगर आपको परमात्मा भी मिल जाए  ध्यान रखना, मैं कह रहा हूं कि अगर आपकी कोशिश से आपको परमात्मा मिल जाए तों आपसे छोटा होगा। होगा ही, क्योंकि आपकी कोशिश से मिला है, आपसे बड़ा नहीं हो सकता। इसलिए आप परमात्मा को कोशिश से नहीं पा सकते, क्योंकि वह आपसे बड़ा है। तो उसको पाने का एक दूसरा उपाय है, कोशिश को छोड़ कर उसे पाया जा सकता है।

यह सूत्र कहता है, ‘उन्नति की आकांक्षा को दूर करो। फूल के समान खिलों और विकसित होओ। फूल को अपने खिलने का भान भी नहीं होता।’

कली कब फूल बन जाती है, पता भी नहीं चलता।
 ‘किंतु वह अपनी आत्मा को वायु के समक्ष उन्मुक्त करने को उत्सुक रहता है।’

कली सिर्फ उत्सुक होती है खुलने को। खुलने की कोई चेष्टा नहीं करती। कोई व्यायाम, कोई प्राणायाम, कोई योगासन, कली कुछ भी नहीं करती। कली सिर्फ आतुर होती है, सिर्फ प्यासी होती है। उसके भीतर जो सुगंध है, वह हवाओं में लुट जाए। वह आतुरता भी चेष्टा नहीं बनती, प्रतीक्षा ही रहती है। कली सिर्फ प्रतीक्षा करती है, सुबह सूरज उगेगा, हवाएं आएंगी, और कली फूल बन जाएगी। लेकिन कोई चेष्टा नहीं होती कि वह फूल बन जाए, कि किसी स्कूल में भरती हो, कि किसी गुरु के पास जाए, कहीं सीखे, कोई उपाय सीखे, कोई विधि, कोई तंत्र मंत्र, वह कुछ नहीं करती वह सिर्फ प्रतीक्षा करती है।

‘तुम भी उसी प्रकार अपनी आत्मा को शाश्वत के प्रति खोल देने को उत्सुक रहो। परंतु उन्नति की आकांक्षा नहीं, शाश्वत ही तुम्हारी शक्ति और तुम्हारे सौंदर्य को आकृष्ट करे।’

साधना सूत्र

ओशो 

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