अर्थात मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है।
जो मन विषयों में आसक्त होगा, वह बंधन तथा जो विषयों से
पराड्मुख होगा, वह मोक्ष का कारण होगा।
मन का अर्थ होता है : मनन की प्रक्रिया, मनन की क्षमता, सोच-विचार की संभावना। मिट्टी तो क्या खाक सोचेगी! मिट्टी तो सोचना भी चाहे तो क्या सोचेगी? कौन है जो मनुष्य के भीतर सोचता और विचारता? कौन है जो मनुष्य के भीतर मनन बनता है? वह चैतन्य है। इसलिए मन सिर्फ मिट्टी से ज्यादा नहीं है और भी कुछ है; मिट्टी के जो पार है रु उसके भी जो पार है, उसकी तरफ इंगित है, इशारा है। मनन की प्रक्रिया तो चैतन्य की संभावना है। चैतन्य हो तो ही मनन हो सकता है। इसलिए कोमा में विक्षिप्त पड़े हुए मनुष्य को मनुष्य नहीं कहना चाहिए। वहा तो मनन की क्रिया ही नहीं हो रही है, मनन की क्रिया ही समाप्त हो गयी है। वहां तो मिट्टी का आकाश से संबंध टूटा-टूटा है, उखड़ा-उखड़ा है-बीच की सीढ़ी ही गिर गयी है।
तो मन है सीढ़ी। एक छोर लगा है मिट्टी से और दूसरा छोर छू रहा है अमृत को। सीढ़ी एक ही है। जिस सीढ़ी से तुम नीचे आते हो, उसी से ऊपर भी जाते हो। ऊपर और नीचे आने के लिए दो सीढ़ियों की जरूरत नहीं होती। सिर्फ दिशा बदल जाती है। यूं भी हो सकता है कि तुम सीढ़ी पर चढ़ते हुए आधी यात्रा पूरी कर लिये हो और एक सोपान पर खड़े हो, और दूसरा आदमी सीढ़ी से उतर रहा है, वह भी उसी सोपान पर खड़ा है; दोनों एक ही सोपान पर हैं-एक चढ़ रहा है, एक उतर रहा है-एक ही सोपान पर हैं फिर भी बहुत भिन्न हैं। क्योंकि एक चढ़ रहा है, एक उतर रहा है। एक ही जगह हैं, मगर उनका एक ही कोटि में स्थान नहीं बनाया जा सकता। एक उतर रहा है, गिर रहा है, एक चढ़ रहा है, ऊर्ध्वगामी हो रहा है।
मन तो सीढी है। अगर विषयों से आसक्त हो जाए तो उतरना शुरू हो जाता है। विषय अर्थात पृथ्वी, मिट्टी। और अगर विषयों से अनासक्त हो जाए तो चढ़ना शुरू हो जाता है। सीढ़ी वही है। जो विषयों में जीता है, वह तेज-रोज नीचे की तरफ ढलान पर खिसलता जाता, फिसलता जाता।
और ध्यान रहे, खिसलना आसान है, फिसलना आसान है। उतार हमेशा आसान होते हैं। क्योंकि गुरुत्वाकर्षण ही खींच लेता है, तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता। चढ़ाव कठिन होते हैं। जैसे कोई गौरीशंकर पर चढ़ रहा हो। जैसे-जैसे ऊंचाई पर पहुंचता है वैसे-वैसे कठिनाई होती है। तब छोटा-सा भार भी बहुत भार मालूम होता है। एक छोटा-सा झोला भी कंधे पर लटकाकर चढ़ना मुश्किल होने लगता है। तो जैसे-जैसे यात्री ऊपर पहुंचता है वैसे-वैसे वजन उसे छोड़ने पड़ते हैं। वही अनासक्ति है-वजन छोड़ना। जमीन पर चल रहे हो तो ढोओं जितना ढोना हो; लदे रहो गधों की भांति, कोई चिंता की बात नहीं, लेकिन अगर चढ़ना है पहाड़, तो फिर छाटना होगा, फिर असार को छोड़ना होगा और ऐसी भी घड़ी आएगी जब सब छोड़ना होगा। अंतिम शिखर पर जब पहुंचोगे तो सब छोड़कर ही पहुंचोगे।
सीढ़ी वही है। एक में बोझ बढ़ता जाता है, एक में निबोंझ बढ़ता जाता है। एक में विषय बढ़ते जाते हैं, एक में घटते जाते हैं। एक में विचारों का जाल फैलता जाता है, एक में क्षीण होता चला जाता है। इसलिए यह सूत्र ठीक कहता है कि मन ही कारण है संसार का और मन ही कारण है मोक्ष का मन ही बांधता है, मन ही मुक्त करता है। आदमी प्रज्ञावान हो तो मन से ही रास्ता खोज लेता है अ-मन का। अ-मन शब्द बड़ा प्यारा है। नानक ने इसका बहुत उपयोग किया है,कबीर ने भी। समाधि को अ-मनी दशा कहा है। उर्दू और उर्दू से संबंधित भाषाओं में अमन का अर्थ होता है : शाति। वह भी प्यारी बात है! क्योंकि जैसे-जैसे ही मन से तुम पार जाने लगोगे, अ-मन होने लगोगे, वैसे-वैसे जीवन में शांति की फुहार, बरखा होने लगेगी। फूल खिलेंगे मौन के। आनंद के स्वर फूटेंगे। जीवन के झरने बहेंगे।
ओशो
जो मन विषयों में आसक्त होगा, वह बंधन तथा जो विषयों से
पराड्मुख होगा, वह मोक्ष का कारण होगा।
मन का अर्थ होता है : मनन की प्रक्रिया, मनन की क्षमता, सोच-विचार की संभावना। मिट्टी तो क्या खाक सोचेगी! मिट्टी तो सोचना भी चाहे तो क्या सोचेगी? कौन है जो मनुष्य के भीतर सोचता और विचारता? कौन है जो मनुष्य के भीतर मनन बनता है? वह चैतन्य है। इसलिए मन सिर्फ मिट्टी से ज्यादा नहीं है और भी कुछ है; मिट्टी के जो पार है रु उसके भी जो पार है, उसकी तरफ इंगित है, इशारा है। मनन की प्रक्रिया तो चैतन्य की संभावना है। चैतन्य हो तो ही मनन हो सकता है। इसलिए कोमा में विक्षिप्त पड़े हुए मनुष्य को मनुष्य नहीं कहना चाहिए। वहा तो मनन की क्रिया ही नहीं हो रही है, मनन की क्रिया ही समाप्त हो गयी है। वहां तो मिट्टी का आकाश से संबंध टूटा-टूटा है, उखड़ा-उखड़ा है-बीच की सीढ़ी ही गिर गयी है।
तो मन है सीढ़ी। एक छोर लगा है मिट्टी से और दूसरा छोर छू रहा है अमृत को। सीढ़ी एक ही है। जिस सीढ़ी से तुम नीचे आते हो, उसी से ऊपर भी जाते हो। ऊपर और नीचे आने के लिए दो सीढ़ियों की जरूरत नहीं होती। सिर्फ दिशा बदल जाती है। यूं भी हो सकता है कि तुम सीढ़ी पर चढ़ते हुए आधी यात्रा पूरी कर लिये हो और एक सोपान पर खड़े हो, और दूसरा आदमी सीढ़ी से उतर रहा है, वह भी उसी सोपान पर खड़ा है; दोनों एक ही सोपान पर हैं-एक चढ़ रहा है, एक उतर रहा है-एक ही सोपान पर हैं फिर भी बहुत भिन्न हैं। क्योंकि एक चढ़ रहा है, एक उतर रहा है। एक ही जगह हैं, मगर उनका एक ही कोटि में स्थान नहीं बनाया जा सकता। एक उतर रहा है, गिर रहा है, एक चढ़ रहा है, ऊर्ध्वगामी हो रहा है।
मन तो सीढी है। अगर विषयों से आसक्त हो जाए तो उतरना शुरू हो जाता है। विषय अर्थात पृथ्वी, मिट्टी। और अगर विषयों से अनासक्त हो जाए तो चढ़ना शुरू हो जाता है। सीढ़ी वही है। जो विषयों में जीता है, वह तेज-रोज नीचे की तरफ ढलान पर खिसलता जाता, फिसलता जाता।
और ध्यान रहे, खिसलना आसान है, फिसलना आसान है। उतार हमेशा आसान होते हैं। क्योंकि गुरुत्वाकर्षण ही खींच लेता है, तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता। चढ़ाव कठिन होते हैं। जैसे कोई गौरीशंकर पर चढ़ रहा हो। जैसे-जैसे ऊंचाई पर पहुंचता है वैसे-वैसे कठिनाई होती है। तब छोटा-सा भार भी बहुत भार मालूम होता है। एक छोटा-सा झोला भी कंधे पर लटकाकर चढ़ना मुश्किल होने लगता है। तो जैसे-जैसे यात्री ऊपर पहुंचता है वैसे-वैसे वजन उसे छोड़ने पड़ते हैं। वही अनासक्ति है-वजन छोड़ना। जमीन पर चल रहे हो तो ढोओं जितना ढोना हो; लदे रहो गधों की भांति, कोई चिंता की बात नहीं, लेकिन अगर चढ़ना है पहाड़, तो फिर छाटना होगा, फिर असार को छोड़ना होगा और ऐसी भी घड़ी आएगी जब सब छोड़ना होगा। अंतिम शिखर पर जब पहुंचोगे तो सब छोड़कर ही पहुंचोगे।
सीढ़ी वही है। एक में बोझ बढ़ता जाता है, एक में निबोंझ बढ़ता जाता है। एक में विषय बढ़ते जाते हैं, एक में घटते जाते हैं। एक में विचारों का जाल फैलता जाता है, एक में क्षीण होता चला जाता है। इसलिए यह सूत्र ठीक कहता है कि मन ही कारण है संसार का और मन ही कारण है मोक्ष का मन ही बांधता है, मन ही मुक्त करता है। आदमी प्रज्ञावान हो तो मन से ही रास्ता खोज लेता है अ-मन का। अ-मन शब्द बड़ा प्यारा है। नानक ने इसका बहुत उपयोग किया है,कबीर ने भी। समाधि को अ-मनी दशा कहा है। उर्दू और उर्दू से संबंधित भाषाओं में अमन का अर्थ होता है : शाति। वह भी प्यारी बात है! क्योंकि जैसे-जैसे ही मन से तुम पार जाने लगोगे, अ-मन होने लगोगे, वैसे-वैसे जीवन में शांति की फुहार, बरखा होने लगेगी। फूल खिलेंगे मौन के। आनंद के स्वर फूटेंगे। जीवन के झरने बहेंगे।
ओशो
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