यहां अगर कोई ज्ञानी आ गया हो-वापस लौट जाए। मैं उन्हीं के साथ काम कर
सकूंगा, जिन्हें इस बात का बोध है कि वे अज्ञानी हैं। तुम्हारा शान बाधा बन
जाएगा। फिर शान हो ही गया हो तो व्यर्थ श्रम उठाने की जरूरत नहीं है।
इसलिए इसे ठीक से समझ लेना, कि तुम अगर बीमार हो तो मैं दवा दूंगा। तुम अगर
अज्ञानी हो तो मैं शान की तरफ ले चलने की कोशिश करूंगा। तुम अगर अंधेरे
में हो तो मैं तुम्हें प्रकाश का रास्ता बताऊंगा। लेकिन अगर तुम प्रकाश में
ही खड़े हो, तो मेरा श्रम और अपना श्रम व्यर्थ मत करना। जो आदमी सोया हो
उसे जगाना बहुत आसान है। जो आदमी जाग कर पड़ा हो और सोचता हो कि सोया है-उसे
जगाना बहुत मुश्किल है।
दूसरी बात, जीवन सबका एक ही बात को खोज रहा है- कैसे दुख मिटे? कैसे आनंद उपलब्ध हो? एक ही तलाश है और एक ही प्यास है। वह वृक्ष भी अगर उठ रहा है जमीन से आकाश की तरफ, तो इसी तलाश में है। अगर पक्षी उड़ रहे हैं और पशु चल रहे हैं और आदमी जी रहा है-तलाश वही है। एक पत्थर भी अगर अस्तित्व में है, तो उसकी भी भीतरी खोज आनंद की है। तो दूसरी बात खयाल में ले लेना कि खोज क्या रहे हो? बहुत लोग परमात्मा को खोजने निकल पड़ते हैं, लेकिन परमात्मा की खोज मुश्किल है। मुश्किल इसलिए है कि परमात्मा के संबंध में कोई भी तो भीतर गहरी प्यास नहीं है। अपनी प्यास को पकड़ कर चले—स्व दिन शायद वही प्यास परमात्मा की प्यास बन जाए। लेकिन अभी नहीं है। अभी तो आप ठीक से समझ लें कि आपकी तलाश आनंद की तलाश है। शायद यह खोज आगे बड़े, और यह छोटी सी गंगोत्री से निकली गंगा आनंद की तलाश में चले। और धीरे-धीरे जैसे जैसे खोज गहरी हो, वैसे वैसे पता चले कि आनंद तो परमात्मा का ही एक नाम है। और शायद पता चले कि आनंद तो परमात्मा का ही एक गुण है। और शायद पता चले कि हमारी खोज सिर्फ आनंद की नहीं है, कुछ और ज्यादा की है। लेकिन प्रारंभिक खोज आनंद की है, परमात्मा की नहीं है।
कुछ लोग पहले से ही परमात्मा की बात में पड़ जाते हैं, तो कठिनाई हो जाती है। बीज बिना हुए वृक्ष होने की कोशिश शुरू हो जाती है। फिर अड़चन होती है। फिर दौड़-धूप बहुत होती है, परिणाम कुछ भी नहीं आता। और जब परिणाम नहीं आता, तो निराशा पकड़ती है, विषाद घेर लेता है।
तो एक बात-आनंद की तलाश के लिए यहां आए हैं। छोड़े परमात्मा को, जल्दी नहीं है। आप आनंद की खोज पर यात्रा शुरू करें और अंत परमात्मा की उपलब्धि पर होगा। लेकिन शुरुआत परमात्मा से मत करें। पहली सीढ़ी से ही चढ़ना उचित है, और क ख ग से ही शुरुआत करनी ठीक है। आनंद सबकी समझ में आता हैं-फिर वह नास्तिक हो तो भी, फिर वह हिंदू हो, या मुसलमान हो, या ईसाई हो, या जैन हो तो भी। ईश्वर को मानता हो, न मानता हो; धर्म में आस्था रखता हो या न रखता हो-कोई भी हो, आनंद की खोज सार्वभौम है। उससे ही शुरू करें, जो सबकी खोज है।
यह दुनिया में इतने धर्मों का विवाद न हो, हिंदू और मुसलमान और ईसाई की लड़ाई न हो, जैन और हिंदू के बीच कलह न हो- अगर हम सार्वभौम खोज को स्वीकार करें। लेकिन हम ईश्वर की खोज से शुरुआत करते हैं। और ईश्वर का हमें न कोई पता है और न ईश्वर को खोजने की कोई प्रबल आकांक्षा है, न हमें प्रयोजन है। तो शब्दों पर लड़ते हैं। तो जिस ईश्वर का हमें कोई पता नहीं, उसकी हम अलग अलग शाब्दिक व्याख्याएं करते हैं। फिर इन व्याख्याओं में विरोध होता है, फिर मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे खड़े होते हैं और आदमी व्यर्थ ही परेशान होता है।
ओशो
दूसरी बात, जीवन सबका एक ही बात को खोज रहा है- कैसे दुख मिटे? कैसे आनंद उपलब्ध हो? एक ही तलाश है और एक ही प्यास है। वह वृक्ष भी अगर उठ रहा है जमीन से आकाश की तरफ, तो इसी तलाश में है। अगर पक्षी उड़ रहे हैं और पशु चल रहे हैं और आदमी जी रहा है-तलाश वही है। एक पत्थर भी अगर अस्तित्व में है, तो उसकी भी भीतरी खोज आनंद की है। तो दूसरी बात खयाल में ले लेना कि खोज क्या रहे हो? बहुत लोग परमात्मा को खोजने निकल पड़ते हैं, लेकिन परमात्मा की खोज मुश्किल है। मुश्किल इसलिए है कि परमात्मा के संबंध में कोई भी तो भीतर गहरी प्यास नहीं है। अपनी प्यास को पकड़ कर चले—स्व दिन शायद वही प्यास परमात्मा की प्यास बन जाए। लेकिन अभी नहीं है। अभी तो आप ठीक से समझ लें कि आपकी तलाश आनंद की तलाश है। शायद यह खोज आगे बड़े, और यह छोटी सी गंगोत्री से निकली गंगा आनंद की तलाश में चले। और धीरे-धीरे जैसे जैसे खोज गहरी हो, वैसे वैसे पता चले कि आनंद तो परमात्मा का ही एक नाम है। और शायद पता चले कि आनंद तो परमात्मा का ही एक गुण है। और शायद पता चले कि हमारी खोज सिर्फ आनंद की नहीं है, कुछ और ज्यादा की है। लेकिन प्रारंभिक खोज आनंद की है, परमात्मा की नहीं है।
कुछ लोग पहले से ही परमात्मा की बात में पड़ जाते हैं, तो कठिनाई हो जाती है। बीज बिना हुए वृक्ष होने की कोशिश शुरू हो जाती है। फिर अड़चन होती है। फिर दौड़-धूप बहुत होती है, परिणाम कुछ भी नहीं आता। और जब परिणाम नहीं आता, तो निराशा पकड़ती है, विषाद घेर लेता है।
तो एक बात-आनंद की तलाश के लिए यहां आए हैं। छोड़े परमात्मा को, जल्दी नहीं है। आप आनंद की खोज पर यात्रा शुरू करें और अंत परमात्मा की उपलब्धि पर होगा। लेकिन शुरुआत परमात्मा से मत करें। पहली सीढ़ी से ही चढ़ना उचित है, और क ख ग से ही शुरुआत करनी ठीक है। आनंद सबकी समझ में आता हैं-फिर वह नास्तिक हो तो भी, फिर वह हिंदू हो, या मुसलमान हो, या ईसाई हो, या जैन हो तो भी। ईश्वर को मानता हो, न मानता हो; धर्म में आस्था रखता हो या न रखता हो-कोई भी हो, आनंद की खोज सार्वभौम है। उससे ही शुरू करें, जो सबकी खोज है।
यह दुनिया में इतने धर्मों का विवाद न हो, हिंदू और मुसलमान और ईसाई की लड़ाई न हो, जैन और हिंदू के बीच कलह न हो- अगर हम सार्वभौम खोज को स्वीकार करें। लेकिन हम ईश्वर की खोज से शुरुआत करते हैं। और ईश्वर का हमें न कोई पता है और न ईश्वर को खोजने की कोई प्रबल आकांक्षा है, न हमें प्रयोजन है। तो शब्दों पर लड़ते हैं। तो जिस ईश्वर का हमें कोई पता नहीं, उसकी हम अलग अलग शाब्दिक व्याख्याएं करते हैं। फिर इन व्याख्याओं में विरोध होता है, फिर मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे खड़े होते हैं और आदमी व्यर्थ ही परेशान होता है।
ओशो
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